मासूम बच्चे ने सिर्फ खाना मांगा था, करोड़पति पति–पत्नी ने जो किया… पूरी इंसानियत रो पड़ी

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इंसानियत का सबसे बड़ा रिश्ता

गुजरात के सूरज शहर की एक समृद्ध कॉलोनी में जयदेव भाई और उनकी पत्नी मीरा रहते थे। उनके पास सब कुछ था—पैसा, शोहरत, आराम। लेकिन उनके घर में एक खालीपन था, जो कोई दौलत या आराम नहीं भर सकता था। आठ महीने पहले उनके इकलौते बेटे आदित्य की बीमारी से मौत हो गई थी। तब से उनके घर की हर दीवार जैसे रोने लगी थी।

मीरा अक्सर आदित्य के खिलौनों को छूकर रोती, और जयदेव भाई खिड़की से बाहर ताकते रहते, शायद कहीं दूर अपने बेटे की यादों में खोए हुए। उस सुबह भी कुछ ऐसा ही हुआ। मीरा सफाई कर रही थी, तभी अलमारी से आदित्य की पुरानी कॉपी निकल आई। कॉपी के पहले पन्ने पर गोल-गोल अक्षरों में लिखा था—“मम्मा पापा मैं आपसे बहुत प्यार करता हूँ।”

ये शब्द दोनों के दिलों को अंदर तक तोड़ गए। ड्राइंग रूम में बैठकर वे एक-दूसरे के गले लगकर रोने लगे। उनकी आंखों से बहते आंसू चुपचाप फर्श पर गिरते रहे। तभी दरवाजे पर दस्तक हुई। मीरा ने आंखें पोंछीं और धीरे से दरवाजा खोला।

मासूम बच्चे ने सिर्फ खाना मांगा था, करोड़पति पति–पत्नी ने जो किया… पूरी  इंसानियत रो पड़ी

सामने एक आठ साल का बच्चा खड़ा था। दुबला-पतला शरीर, मैले कपड़े, फटे जूते और आंखों में भूख की चमक। उसने हाथ जोड़ते हुए कहा, “आंटी, मुझे खाने के लिए दे दीजिए। अगर आपके यहां कोई काम हो तो मैं कर दूंगा। बदले में आप मुझे भरपेट खाना दे दीजिए।”

मीरा कुछ पल उसे देखती रही। उसकी मासूमियत और बातों की गरिमा ने उसका दिल छू लिया। उसने तुरंत कहा, “अंदर आ जाओ बेटा।” बच्चा हिचकिचाया और बोला, “पहले काम बताइए, फिर खाना खाऊंगा।”

मीरा की आंखें भर आईं, उसने कहा, “पहले खाना, फिर काम देखेंगे।” रसोई से मीरा गरम-गरम रोटियां और सब्जी लेकर आई। बच्चा शांति से बैठकर खाने लगा। जयदेव भाई दूर से यह सब देख रहे थे। हर कौर के साथ जैसे उनके अपने बेटे की याद ताजा हो रही थी।

खाना खत्म होने के बाद बच्चा बोला, “आंटी, अब बताइए क्या काम करना है? बर्तन धो दूं? पौधों में पानी डाल दूं?” मीरा ने नरमी से पूछा, “बेटा, नाम क्या है? कहां से आए हो?”

बच्चा धीमे स्वर में बोला, “मेरा नाम करण है। मैं सूरत के पास एक छोटे गांव से हूं। पहले मम्मी-पापा के साथ था। वे मजदूरी करते थे, लेकिन एक हादसे में दोनों चल बसे। चाचा-चाची ने मुझे रखा, मगर वहां हर वक्त डांट-फटकार और मार पड़ती थी। पढ़ाई भी बंद कर दी गई। मुझे लगा अगर काम करके ही खाना मिलेगा तो क्यों न किसी और घर में काम करूं, पर कम से कम मार तो नहीं पड़ेगी।”

करण की मासूम आंखों में दर्द साफ झलक रहा था। मीरा और जयदेव भाई एक-दूसरे को देखने लगे। दोनों के मन में एक ही ख्याल उठ रहा था—शायद किस्मत ने उन्हें जवाब भेजा है।

करण बोला, “आंटी, आज के बाद भी मैं यहां आ सकता हूं। काम कर दूंगा, बदले में खाना खा लूंगा।” उसकी आंखों में अनकही दुआ झलक रही थी। मीरा का दिल भर आया, लेकिन वह मुस्कुराई। “बेटा, आज से यह घर तुम्हारा भी है। यहां तुम्हें कोई भूखे पेट नहीं सोने देगा।”

जयदेव भाई पास आकर बोले, “करण, काम तो हम सब करेंगे, लेकिन तुम्हें पढ़ाई भी करनी होगी। बिना पढ़ाई के जिंदगी अधूरी है।” करण ने चौंकते हुए पूछा, “क्या मुझे सच में पढ़ने को मिलेगा? मेरे मम्मी-पापा हमेशा कहते थे कि पढ़ाई से इंसान बड़ा बनता है, लेकिन चाचा-चाची ने किताबें छीन ली थीं।”

उसके शब्द सुनकर मीरा और जयदेव की आंखों में आंसू भर आए। मीरा ने उसका सिर सहलाया, “अब किताबें कोई नहीं छीनेगा। तू खूब पढ़ेगा और बड़ा आदमी बनेगा।”

करण ने झिझकते हुए कहा, “लेकिन आंटी, मैं बिना काम किए खाना नहीं खा सकता। मुझे तो दुकानदार ने सिखाया था कि बिना मेहनत का खाना मांगना भीख कहलाता है। मैं भिखारी नहीं बनना चाहता।”

यह सुनकर जयदेव भाई गहराई से सोच में डूब गए। इतनी छोटी उम्र और इतनी समझदारी! उसी समय मीरा ने उसे छोटे-छोटे काम बताए—पौधों में पानी डालना, अपना बिस्तर ठीक करना, किताबें सही जगह रखना। करण तुरंत तैयार हो गया और बड़े मन से पौधों को पानी देने लगा। उसके चेहरे पर मेहनत की खुशी झलक रही थी।

शाम को मीरा ने साफ-सुथरे कपड़े निकाले। करण ने जब उन्हें पहना तो वह आईने में खुद को देखता रह गया। उसके चेहरे पर पहली बार आत्मसम्मान की चमक थी। जयदेव भाई ने कहा, “कल हम स्कूल जाएंगे, तुम्हारा एडमिशन कराएंगे।”

करण की आंखें भर आईं, “क्या सच में मैं स्कूल जा सकता हूं?” मीरा ने उसे गले लगाकर कहा, “हाँ बेटा, अब तू अकेला नहीं है।”

अगली सुबह करण तैयार होकर स्कूल पहुंचा। टीचर ने उसे क्लास में भेजा। शुरुआत में बच्चे हंसे उसकी टूटी-फूटी अंग्रेजी और गांव की बोली देखकर, लेकिन जल्दी ही सबने उसे अपना लिया। करण ने पहली बार खुलकर किताबें खोलीं और अक्षरों की दुनिया में डूब गया।

टिफिन टाइम पर उसने मीरा के बनाए पराठे निकाले। पास बैठा बच्चा बोला, “वाह, मेरी मम्मी भी ऐसे ही बनाती है।” करण ने मन ही मन सोचा, “अरे, भी मम्मी है।”

घर लौटकर करण ने उत्साह से हर बात सुनाई—कैसे टीचर ने उसकी तारीफ की, कैसे नए दोस्त बने। जयदेव भाई ने गर्व से कहा, “देखा मीरा, यही तो हमारी असली कमाई है।” मीरा की आंखों में खुशी के आंसू थे।

उस रात सोने से पहले करण धीमे स्वर में बोला, “मां, क्या मैं आपको मां कह सकता हूं?” मीरा ने खुशी से कहा, “बेटा, अब तू हमें मां-बाप ही कहेगा। यही हमारा सबसे बड़ा सम्मान है।”

लेकिन करण की जिंदगी की यह नई शुरुआत चुनौतियों से खाली नहीं थी। मोहल्ले के लोग फुसफुसाने लगे, “इतनी संपत्ति है, पर अपना खून नहीं तो अनाथ को ले आए। पता नहीं आगे क्या होगा।”

धीरे-धीरे करण ने स्कूल की पढ़ाई में खुद को भालना शुरू कर दिया। शुरुआत में उसे बहुत मुश्किल आई। कई बार कॉपी में शब्द गलत लिख देता, गणित के सवाल हल नहीं कर पाता। क्लास के कुछ बच्चे मजाक उड़ाते—“गांव से आया है, इसे क्या पता पढ़ाई का।” यह सुनकर करण का दिल टूटता, लेकिन वह चुप रहता। रात को देर तक बैठकर मेहनत करता और मीरा उसके साथ बैठकर उसे समझाती। इतिहास की बातें कहानियों की तरह सुनाती, गणित के सवाल खेल की तरह समझाती। जयदेव भाई भी समय निकालकर उसकी मदद करने लगे। धीरे-धीरे करण का आत्मविश्वास लौट आया।

तीन महीने बाद स्कूल में निबंध प्रतियोगिता हुई। विषय था “मेरे माता-पिता।” करण ने पूरे दिल से लिखा, “भगवान ने मुझे दो बार माता-पिता दिए—पहले जिन्होंने मुझे जन्म दिया, और दूसरे जिन्होंने मुझे जीवन दिया। मुझे भूखे पेट से बचाया, पढ़ाई दी, और सिखाया कि मेहनत से जीना ही असली जीवन है।”

जब उसका निबंध चुना गया और उसे स्टेज पर बुलाकर इनाम दिया गया तो पूरे स्कूल ने तालियां बजाईं। मीरा और जयदेव भाई की आंखों से खुशी के आंसू बह निकले। शाम को करण इनाम लेकर घर लौटा। उसने ट्रॉफी सीधे अपने मां-बाप के पैरों में रख दी और बोला, “यह मेरी नहीं, आपकी जीत है। आपने मुझे फिर से जीना सिखाया।”

मीरा ने उसे सीने से लगा लिया। जयदेव भाई के चेहरे पर गर्व झलक रहा था। उस दिन घर में लंबे समय बाद हंसी और खुशी की गूंज थी।

लेकिन मोहल्ले के कुछ लोग अब भी फुसफुसाते, “देखना, बड़ा होकर यह बच्चा पलट जाएगा। खून का रिश्ता अलग होता है, यह कब तक निभाएगा?”

मीरा और जयदेव भाई इन बातों को अनसुना कर देते। वे कहते, “बेटे का रिश्ता खून से नहीं, दिल से होता है।” करन भी अब समझदार हो गया था। वह जानता था कि दुनिया क्या सोचती है, पर उसे फर्क नहीं पड़ता था। उसके लिए बस उसकी मां और पापा ही सब कुछ थे।

समय के साथ करण की मेहनत रंग लाने लगी। खेलों में भी उसने नाम कमाया। स्पोर्ट्स डे पर जब उसने दौड़ में पहला स्थान पाया तो मंच से उतरते ही सीधे मीरा और जयदेव भाई के पास गया और मेडल उनके गले में डाल दिया। बोला, “यह भी आपकी जीत है।” दोनों की आंखें भर आईं।

लेकिन जिंदगी हमेशा इतनी आसान नहीं रहती। करण के चाचा-चाची, जिन्होंने कभी उसे अपनाया नहीं था, अब उसकी तरक्की की खबरें सुनकर बेचैन होने लगे। एक दिन चाचा सूरत पहुंचे और मोहल्ले में पूछताछ करने लगे। यह खबर करण तक पहुंची तो उसका दिल घबराया।

रात को उसने डरते-डरते कहा, “मां, अगर वे लोग मुझे वापस ले जाना चाहें तो मैं आपसे अलग नहीं होना चाहता।” लेकिन क्या उसका अतीत उसे चैन से छोड़ देगा? या फिर नई जिंदगी में कोई और तूफान आने वाला था?

करण अब किशोरावस्था में कदम रख चुका था। पढ़ाई में वह और निखरने लगा था। हर परीक्षा में अच्छे अंक लाता और खेलों में भी आगे रहता। उसके अध्यापक अक्सर कहते, “इस लड़के में कुछ अलग है। मेहनत और लगन इसकी पहचान है।” मीरा और जयदेव भाई यह सुनकर गर्व से भर जाते।

घर का माहौल भी पहले जैसा सुना नहीं रहा था। जहां कभी सन्नाटा पसरा रहता था, वहां अब करण की हंसी और बातें गूंजती थीं।

लेकिन दुनिया की बातें अभी भी पीछा नहीं छोड़ रही थीं। मोहल्ले के कुछ लोग बार-बार ताने कसते, “खून का रिश्ता अलग होता है। देखना, बड़ा होकर यह बच्चा सब भूल जाएगा।”

जयदेव भाई हर बार जवाब देते, “बेटे का रिश्ता खून से नहीं, दिल से होता है।” मीरा भी यही मानती कि करण की मुस्कान ही सबसे बड़ी गवाही है।

करण अब धीरे-धीरे कॉलेज की उम्र में पहुंच रहा था। उसके सपने बड़े हो रहे थे। वह अक्सर कहता, “पापा, मैं बड़ा होकर अपना व्यवसाय शुरू करूंगा, अपनी मेहनत से नाम कमाऊंगा।” जयदेव भाई मुस्कुरा कर कहते, “बेटा, मेहनत और ईमानदारी से कोई भी सपना अधूरा नहीं रहता।”

इसी दौरान करण की जिंदगी में आर्या नाम की लड़की आई। वह उसकी क्लासमेट थी—हसमुख, समझदार और पढ़ाई में तेज। दोनों पहले दोस्त बने, फिर धीरे-धीरे दिल की बातें भी साझा करने लगे। आर्या को करण की सादगी और ईमानदारी बहुत भाती थी, और करण भी उसकी मुस्कुराहट में सुकून ढूंढता।

समय के साथ दोनों की दोस्ती गहरे रिश्ते में बदलने लगी। लेकिन करण हमेशा एक बात दोहराता, “आर्या, मैं तुझसे बहुत प्यार करता हूं, लेकिन जब तक अपने मां-पापा की अनुमति ना मिल जाए, मैं कोई फैसला नहीं करूंगा।”

आर्या पहले हैरान हुई, फिर करण की बात सुनकर उसके प्रति और भी सम्मान महसूस करने लगी। घर पर मीरा और जयदेव भाई ने भी करण की इस सोच को देखकर गर्व महसूस किया। वे बोले, “बेटा, तूने हर कदम पर हमें गर्व दिया है। अगर तेरी खुशी आर्या में है तो हमें कोई आपत्ति नहीं।”

मीरा ने तो आर्या को पहली मुलाकात में ही बेटी की तरह गले से लगा लिया।

कुछ महीनों बाद करण और आर्या की शादी धूमधाम से हुई। रिश्तेदारों की भीड़, शहनाइयों की गूंज, और हर कोने में खुशियां ही खुशियां थीं। जयदेव भाई और मीरा की आंखों में आंसू थे—खुशी के, संतोष के। वे सोच रहे थे कि भगवान ने उनकी जिंदगी को फिर से रोशन कर दिया है।

लेकिन शादी के कुछ महीनों बाद ही हालात बदलने लगे। आर्या, जो पहले मीरा और जयदेव भाई की बहुत इज्जत करती थी, धीरे-धीरे बदलाव दिखाने लगी। उसे लगने लगा कि अब तो उसका पति ही सब कुछ कमा रहा है, तो सास-ससुर का कहना मानने की कोई जरूरत नहीं।

घर में छोटी-छोटी बातों पर तकरार शुरू हो गई। मीरा चुप रहती, सोचती बेटे को क्यों परेशान करूं, लेकिन दिल में पीड़ा छुपा नहीं पाती। जयदेव भाई कहते, “सच बता दो करण को।” मगर मीरा हर बार रोक देती, “नहीं, अगर बेटा पत्नी के कहे में आकर हमसे अलग हो गया तो मैं यह जोखिम नहीं उठाऊंगी।”

पर एक दिन किस्मत ने सबके सामने सच्चाई ला दी। करण अचानक घर लौटा और उसने आर्या को मीरा से ऊंची आवाज में बोलते हुए सुन लिया। करण का चेहरा गुस्से से लाल हो गया। उसने साफ कहा, “आर्या, अगर तुमने मां के खिलाफ एक शब्द भी बोला तो मैं भूल जाऊंगा कि तुम मेरी पत्नी हो।”

आर्या ने पहली बार करण का यह रूप देखा और सन्न रह गई। लेकिन यह तो बस एक शुरुआत थी। आगे आने वाले समय में करण को अपनी असली पहचान उजागर करनी थी।

कुछ दिनों तक घर का माहौल तनावपूर्ण रहा। करण ने आर्या को मनाने की कोशिश नहीं की, जिससे आर्या और भी बेचैन हो गई। आखिर एक रात उसने करण से कहा, “तुमने मुझे मनाने की कोशिश क्यों नहीं की? मैंने ऐसा क्या बुरा किया था?”

करण ने एक गहरी सांस लेकर कहा, “आर्या, शायद तुझे अभी तक मेरी असली कहानी नहीं पता।” उसने आर्या को बैठाकर सब बताया—कैसे उसके असली माता-पिता एक हादसे में गुजर गए थे, कैसे चाचा-चाची ने उसे सताया, कैसे वह भूखा-प्यासा सूरत की सड़कों पर भटकता रहा, और कैसे मीरा और जयदेव भाई ने उसे अपने बेटे की तरह अपनाया।

करण की आंखें भर आईं, “अगर यह दोनों मुझे न मिलते तो शायद मैं आज जिंदा भी न होता। उन्होंने मुझे नया जीवन दिया है। इसलिए मेरे लिए इनसे बड़ा कोई नहीं। अगर तू इनका सम्मान नहीं कर पाएगी तो मेरे साथ रहना मुश्किल होगा।”

आर्या का दिल पिघल गया। उसकी आंखों से आंसू बह निकले। वह सीधे मीरा के पास गई, उनके पैर पकड़कर बोली, “मां, मुझसे गलती हो गई। मुझे माफ कर दीजिए। अब से आपको कभी शिकायत का मौका नहीं मिलेगा।”

मीरा ने उसे उठाकर गले से लगा लिया और कहा, “बेटी, तू हमारी बहू ही नहीं, हमारी बेटी भी है।”

उस दिन के बाद घर का माहौल पूरी तरह बदल गया। आर्या अब पहले से भी ज्यादा मीरा और जयदेव भाई का ख्याल रखने लगी। करण ने भी राहत की सांस ली।

कुछ सालों बाद करण और आर्या के दो प्यारे बच्चे हुए। उनकी किलकारियों ने घर में खुशियों का सागर भर दिया। जयदेव भाई और मीरा अब दादा-दादी बन गए थे। वे बच्चों के साथ खेलते, कहानियां सुनाते और उनकी हर छोटी-बड़ी जरूरत पूरी करते।

करण अपनी मेहनत से व्यवसाय में सफल हुआ और मोहल्ले में मिसाल बन गया। लोग अब कहते, “देखो जिसने अनाथ बच्चे को अपनाया था, आज उसी ने उनका नाम रोशन कर दिया।”

घर में हर तरफ प्यार और अपनापन था। करण ने साबित कर दिया कि असली रिश्ता खून से नहीं, दिल से बनता है। मीरा और जयदेव भाई की आंखों में अब कोई कमी नहीं थी। उन्होंने भगवान का धन्यवाद किया कि जिसने उनका बेटा छीन लिया था, उसी ने एक नया बेटा उन्हें लौटाया।

कहानी का संदेश

यह कहानी हमें यही सिखाती है कि इंसानियत सबसे बड़ा रिश्ता है। अगर दिल से किसी को अपनाया जाए तो खून का रिश्ता भी छोटा पड़ जाता है। असली बेटा वही है जो दिल से मां-बाप की इज्जत और सम्मान करे।