कुली ने बिना पैसे लिए उठाया बीमार बुज़ुर्ग का भारी संदूक, जब संदूक खोला तो अंदर देख कुली के होश उड़ गए

शंकर का संदूक: एक कुली की इंसानियत और किस्मत का खजाना

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वाराणसी कैंट रेलवे स्टेशन की भीड़, शोर और भागदौड़ के बीच शंकर नाम का एक मामूली कुली अपनी जिंदगी की जद्दोजहद में लगा था। उसके मजबूत कंधे रोज सैकड़ों मन का बोझ उठाते थे, लेकिन उसकी अपनी दुनिया—बीमार पत्नी पार्वती, होनहार बेटी मीना और किराए के दो कमरे का छोटा सा घर—इन सबसे कहीं ज्यादा भारी थी। शंकर ईमानदार था, कभी मोलभाव नहीं करता, जितना मिलता उतने में संतुष्ट रहता। उसकी कमाई कम थी, लेकिन उसका दिल बड़ा था।

एक दिन प्लेटफार्म नंबर 5 पर दिल्ली से आई ट्रेन से एक बेहद बुजुर्ग, बीमार आदमी उतरा। उसके पास एक भारी पुराना संदूक था, जिसे कोई कुली उठाने को तैयार नहीं था। सबको लगा, इतने गरीब आदमी से क्या पैसे मिलेंगे? पर शंकर ने इंसानियत दिखाते हुए उसकी मदद की, संदूक उठाया, बाहर तक छोड़ा, पानी पिलाया और धर्मशाला में कमरे का इंतजाम भी कर दिया। जब बुजुर्ग ने मजदूरी देने की कोशिश की, शंकर ने पैसे लेने से मना कर दिया—”आपने मुझे बेटा कहा, क्या बेटा अपने बाप से सेवा के पैसे लेता है?”

दो दिन बाद धर्मशाला से बुलावा आया—बुजुर्ग की हालत बहुत खराब थी, वे शंकर को ही बार-बार पुकार रहे थे। शंकर भागा-भागा पहुंचा, बुजुर्ग ने आखिरी सांसों में उसे संदूक खोलने को कहा। जब शंकर ने संदूक खोला, उसकी आंखें फटी रह गईं—संदूक सोने, जवाहरात, हीरे-मोती से भरा पड़ा था। बुजुर्ग ने बताया—”बेटा, मेरा नाम दयाराम है। मैं राजस्थान की रियासत का शाही जहरी था। यह खजाना सात पुश्तों की अमानत है। मैंने पूरी जिंदगी इसे संभाला, पर अब चाहता हूं कि इसे किसी नेक इंसान को सौंप दूं।”

दयाराम जी ने शंकर से वादा लिया—”इस दौलत से गरीबों की सेवा करना, अस्पताल और स्कूल बनवाना, ताकि जरूरतमंदों को मदद मिल सके।” शंकर ने रोते हुए वादा किया। दयाराम जी ने शांति से आंखें बंद कर लीं।

शंकर ने सबसे पहले अपनी पत्नी का इलाज करवाया, बेटी को अच्छे स्कूल में पढ़ाया, नया घर लिया। लेकिन उसने खजाने का बड़ा हिस्सा समाज सेवा के लिए अलग रखा। उसने “दयाराम मेमोरियल अस्पताल” और “मीना विद्या मंदिर” स्कूल बनवाया, जहां गरीबों का मुफ्त इलाज और अनाथ बच्चों को शिक्षा मिलती थी। अपने पुराने कुली साथियों के लिए भी वेलफेयर फंड बनाया।

लोग पूछते, “शंकर, तुम्हारी किस्मत कैसे बदली?” वह मुस्कुराकर कहता—”मैंने सिर्फ एक बीमार बुजुर्ग का बोझ उठाया था, भगवान ने मेरी पूरी जिंदगी का बोझ उठा लिया।”

यह कहानी हमें सिखाती है कि इंसानियत और निस्वार्थ सेवा का फल एक दिन जरूर मिलता है। नेकी का रास्ता कभी बेकार नहीं जाता।

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धन्यवाद!