रिटायरमेंट के बाद बीमार बूढ़े पिता को बेटे-बहू ने अकेला छोड़ा… फिर जो हुआ, पूरा गांव रो पड़ा

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अध्याय 1: विदाई का दिन

बिहार के देवरिया गाँव में आज स्कूल की छत पर हल्की धूप बिखरी थी। सरकारी स्कूल के हेडमास्टर, विश्वनाथ चौधरी, चार दशक की सेवा के बाद रिटायर हो रहे थे।
स्कूल के आँगन में बच्चों, शिक्षकों और गाँववालों की भीड़ थी।
बच्चों की आँखों में आँसू थे, शिक्षक भावुक थे।
शिक्षक बोले, “सर, आपकी सेवा की मिसाल कोई नहीं। अब आराम कीजिए।”
विश्वनाथ जी मुस्कुराए, लेकिन उनकी आँखों में एक अजीब सी थकान थी।
रिटायरमेंट उनके लिए बस घर लौटना नहीं था, बल्कि एक खालीपन की शुरुआत थी।

घर पहुँचे तो आँगन में तुलसी चौरा के पास पत्नी सुशीला देवी इंतजार कर रही थी।
दो बेटे—अरुण और तरुण—और बहुएँ कविता व रीमा भी आए हुए थे।
घर भरा-भरा लग रहा था।
पोते-पोतियों की हँसी, सुशीला की मुस्कान, पुराने रेडियो की आवाज़…
विश्वनाथ जी ने सोचा, “अब जीवन का सबसे अच्छा समय शुरू हुआ है। बस परिवार के बीच सुकून।”
लेकिन किस्मत को कुछ और मंजूर था।

अध्याय 2: अचानक तन्हाई

कुछ ही महीने बाद, एक सुबह सुशीला देवी को दिल का दौरा पड़ा।
रसोई में चाय बनाते हुए गिर पड़ीं।
विश्वनाथ जी भागे, उन्हें उठाया, अस्पताल ले गए, लेकिन देर हो चुकी थी।
पूरा संसार पल भर में बिखर गया।
जहाँ कभी सुबह उनके हाथ की चाय से दिन शुरू होता था, अब वही रसोई सबसे डरावनी जगह बन गई।

तेरहवीं पर बेटों ने कहा, “पिताजी, गांव में अकेले कैसे रहेंगे? चलिए बारी-बारी हमारे पास रह लीजिए।”
विश्वनाथ जी मुस्कुराकर बोले, “बेटा, मैं यहीं ठीक हूँ। यही मेरा घर है। यही तुम्हारी माँ की यादें हैं।”
बहुएँ चुप रहीं, लेकिन उनके चेहरे पर राहत थी।
विश्वनाथ जी समझ गए—शहर की चकाचौंध में बूढ़े मां-बाप की जरूरत अब फोटो तक रह गई है।

अब घर में सिर्फ विश्वनाथ जी और उनका पुराना नौकर, भोला यादव, रह गए थे।
भोला कोई आम नौकर नहीं था।
तीस साल से इस परिवार के साथ था।
उसकी पत्नी कमला रोज आकर खाना बना जाती और भोला खेतों व घर का सारा काम संभालता।

विश्वनाथ जी कहते, “भोला, अब तू ही मेरा सहारा है बेटा।”
भोला झुककर कहता, “मालिक, जब तक जान है, आपकी सेवा करता रहूँगा।”

अध्याय 3: बीमारी की दस्तक

समय बीतता गया।
उम्र का असर अब विश्वनाथ जी के शरीर पर दिखने लगा था।
शुगर, ब्लड प्रेशर, दवाइयों के सहारे दिन कटता।
एक सुबह उठने की कोशिश की तो पैर साथ नहीं दे रहे थे।
भोला दौड़कर आया, उठाया, डॉक्टर बुलाया गया।
डॉक्टर बोले, “पैरों की नसें कमजोर हो रही हैं। जल्दी इलाज जरूरी है, नहीं तो चलना-फिरना मुश्किल हो जाएगा।”

खबर सुनते ही दोनों बेटों को फोन किया गया।
अरुण लखनऊ से बोला, “पिताजी, भोला को बोलिए अच्छे डॉक्टर को दिखा दे।”
तरुण नोएडा से बोला, “मैं ऑफिस में हूँ, अगले हफ्ते छुट्टी लेकर आऊँगा।”
लेकिन वो हफ्ता कभी नहीं आया।

भोला इलाज करवाता रहा, दवाइयाँ देता रहा।
पर हालत बिगड़ती गई।
अब विश्वनाथ जी को बिस्तर से उठने में भी मदद चाहिए होती थी।
भोला सुबह-शाम नहलाता, कपड़े पहनाता, खाना खिलाता।
जैसे कोई बेटा अपने पिता की सेवा करता है।

कई बार भोला कहता, “मालिक, किसी को और बुला लीजिए। मैं अकेला सब नहीं संभाल पाऊँगा।”
विश्वनाथ जी उसका हाथ पकड़कर कहते, “भोला, मुझे किसी और की जरूरत नहीं है। बस तू है तो मैं जिंदा हूँ।”

धीरे-धीरे हालत इतनी खराब हो गई कि अब वह खुद मल-मूत्र तक नहीं छोड़ पाते थे।
भोला ने बिना किसी झिझक, बिना किसी स्वार्थ के सब किया।
हर सुबह मालिक को साफ करता, नहलाता, मुस्कुराते हुए कहता, “भगवान ने सेवा का मौका दिया है, मैं भाग्यशाली हूँ।”

अध्याय 4: असली अपने कौन?

विश्वनाथ जी सोचते रहते, “कभी मैंने भोला को सिर्फ नौकर समझा था, लेकिन आज यही मेरा सबसे बड़ा बेटा बन गया।”
हर रात बिस्तर पर लेटकर सोचते, “क्या सच में खून के रिश्ते ही अपने होते हैं? या फिर वही लोग जो हमारे बुरे वक्त में साथ खड़े रहते हैं, असली अपने कहलाते हैं?”

उनकी आँखों में आँसू आ जाते, धीमे स्वर में बोलते, “भोला, अगर तू ना होता तो मैं कब का इस दुनिया से चला गया होता।”

भोला और कमला अब पहले से भी ज्यादा ख्याल रखने लगे थे।
हर सुबह की पहली किरण के साथ भोला आँगन में पहुँच जाता, हाथ में पीतल की लोटा, गुनगुना पानी और आँखों में अपनापन।

एक सुबह, विश्वनाथ जी बोले, “भोला, मुझे अब किसी चीज की कमी नहीं लगती। लेकिन दिल में सबसे ज्यादा खालीपन क्या है, जानता है?”
भोला चुपचाप खड़ा रहा।
विश्वनाथ जी बोले, “जब बेटा छोटा था, तो उसके लिए दौड़ता था, खिलाता था, गिरता तो उठा लेता था। आज जब मैं गिरता हूँ, कोई बेटा नहीं आता।”

भोला की आँखें नम हो गईं।
धीरे से बोला, “मालिक, सब वक्त का खेल है। भगवान गवाह है, जब तक मैं जिंदा हूँ, आपको अकेलापन महसूस नहीं होने दूँगा।”

अध्याय 5: अंतिम इच्छा

अब विश्वनाथ जी चारपाई से उठ नहीं पाते थे।
भोला हर सुबह नहलाता, साफ कपड़े पहनाता, तेल मालिश करता, चारपाई पर बैठा देता।
कमला ताजा रोटी बनाकर लाती, हाथ से खिलाती।
गाँव के लोग आते-जाते, पर बेटों की आवाज़ अब घर में नहीं गूंजती थी।

एक रात, अचानक तेज दर्द हुआ।
भोला ने डॉक्टर बुलाया, इंजेक्शन दिलवाया।
दर्द कम हुआ तो विश्वनाथ जी बोले, “भोला, कभी सोचा है? हम मिथ्या भ्रम में जीते हैं। सोचते हैं—घर, पैसा, बीवी, बच्चे… सब हमारा है। असल में कोई किसी का नहीं। सब अपने-अपने स्वार्थ में जीते हैं।”

भोला की आँखों से आँसू गिरते रहे।
विश्वनाथ जी बोले, “मुझे अब कुछ नहीं चाहिए। बस मन की शांति चाहिए। तू है तो लगता है भगवान ने तुझे अपने रूप में भेजा है।”

भोला बोला, “मालिक, ऐसा मत कहिए। मैं तो बस एक नौकर हूँ।”
विश्वनाथ जी मुस्कुरा दिए, “नौकर नहीं, भोला। तू मेरा बेटा है। बेटा वही होता है जो पिता के बुरे वक्त में उसके साथ खड़ा रहे।”

कुछ दिन बाद, विश्वनाथ जी ने भोला को बुलाया, “भोला, तहसील से वकील और लेखपाल को बुला लाओ।”
भोला को समझ नहीं आया, लेकिन उसने बिना पूछे कहा, “ठीक है, मालिक।”

अध्याय 6: वसीयत का फैसला

अगले दिन, वकील साहब आए।
विश्वनाथ जी बोले, “मैं अपनी संपत्ति का बंटवारा करना चाहता हूँ। जो मैंने खुद की मेहनत से बनाई है, उसका फैसला मैं खुद करूंगा।”

वकील ने कागज निकाले।
विश्वनाथ जी बोले, “मेरी 20 बीघा जमीन है। 10 बीघा पुश्तैनी है, दोनों बेटों में बराबर बाँट दी जाए। बाकी 10 बीघा जो मैंने अपनी कमाई से खरीदी थी, उसे भोला यादव के नाम कर दो।”

भोला का चेहरा उतर गया, घुटनों पर गिर गया, “मालिक, यह क्या कर रहे हैं? मैं कौन होता हूँ यह सब लेने वाला?”

विश्वनाथ जी बोले, “जो इंसान अपनी सेवा में दिल लगा दे, वह नौकर नहीं, भगवान का भेजा फरिश्ता होता है। तूने मुझे अपनों से ज्यादा अपनापन दिया है। मैं मरते वक्त तेरे परिवार का भविष्य सुरक्षित करके जा रहा हूँ। यही मेरा सुकून है।”

भोला रो पड़ा।
कमला भी आँसू बहा रही थी।
वकील ने दस्तखत करवाए, जमीन का बेनामा पूरा किया।
विश्वनाथ जी बोले, “मेरे बेटों को इस जमीन पर कोई दावा नहीं रहेगा।”

भोला ने सिर झुकाकर कहा, “मालिक, आपने जो कर दिया, वह मेरे जीवन का सबसे बड़ा आशीर्वाद है। लेकिन मुझसे वादा लीजिए, जब तक सांस है, आपकी सेवा नहीं छोड़ूँगा।”

विश्वनाथ जी ने कांपते हाथों से उसका सिर सहलाया, “यही मेरा वरदान है बेटा।”

अध्याय 7: अंतिम विदाई

शाम गहराने लगी।
अगली सुबह, भोला चाय बना रहा था।
कमरे में विश्वनाथ जी की तबीयत और बिगड़ रही थी।
सांस लेने में तकलीफ थी।
भोला ने दवा दी, तकिए के पीछे हाथ रखते हुए बोला, “मालिक, कुछ खा लीजिए, अब दवा लेनी है।”

विश्वनाथ जी बोले, “भूख नहीं है, भोला। शरीर थक गया है। अब बस आराम चाहिए।”
भोला बोला, “अभी कहीं नहीं जाना है, मालिक। मैं हूँ आपके साथ।”
विश्वनाथ जी मुस्कुरा दिए, “अब यही शब्द मुझे जिंदा रखते हैं।”

शाम होते ही हवा भारी लगने लगी।
भोला ने कंबल ओढ़ा दिया, चारपाई के पास बैठ गया।
विश्वनाथ जी बोले, “भोला, वह फाइल संभाल के रखना जो वकील साहब कल दिए थे। उसमें मेरी आखिरी बात लिखी है। बेटों को बता देना, मेरे जाने के बाद उसी के अनुसार सब होगा।”

भोला बोला, “मालिक, ऐसी बातें मत कीजिए। आप ठीक हो जाएंगे।”
विश्वनाथ जी ने उसकी हथेली पकड़ ली, “नहीं भोला, अब वक्त आ गया है। तू वादा कर, मेरे बिना भी इस घर को अकेला नहीं छोड़ेगा। तेरी कमला, तेरे बच्चे, यही तो अब मेरा परिवार है।”

भोला की आँखों से आँसू बह निकले, सिर झुका कर कहा, “मालिक, आपकी बातें मेरे लिए हुक्म हैं।”

तीसरे दिन सुबह, घर में सन्नाटा था।
भोला कमरे में पहुँचा।
विश्वनाथ जी गहरी नींद में थे।
चेहरे पर शांति थी।
भोला ने उनका पैर छुआ, “मालिक उठिए ना।”
कोई जवाब नहीं मिला।
उसकी आँखों से फूट-फूट कर आँसू बहने लगे।
वो बाहर दौड़ा, “मालिक चले गए…”

पूरा गाँव उमड़ पड़ा।
हर आदमी की आँखें नम थीं।
जिस व्यक्ति ने जीवन में किसी को तकलीफ नहीं दी, वह अब सदा के लिए शांत हो गया था।

अध्याय 8: असली बेटा

पंडाल लगाया गया।
भोला मालिक के सिरहाने बैठा था, कांपते हाथों में माला थी।
वकील, तहसीलदार, दोनों बेटे अरुण और तरुण भी पहुँचे।
कई साल बाद दोनों गाँव आए थे।
चेहरों पर गंभीरता और भीतर कहीं अपराधबोध।

अरुण और तरुण पिता के शरीर के पास बैठे।
तरुण बोला, “भैया, हमने बहुत बड़ी गलती की। बाबूजी को अकेला छोड़ दिया।”
अरुण बोला, “अब पछताने से क्या फायदा? उन्होंने हमें माफ किया भी तो क्या हम खुद को माफ कर पाएंगे?”

वकील ने फाइल खोली, वसीयत पढ़ी—
“मेरी 20 बीघा जमीन और मकान इस प्रकार बाँटा जाए: 10 बीघा पुश्तैनी जमीन दोनों बेटों में बराबर, बाकी 10 बीघा मेरे सेवक पुत्र समान भोला यादव के नाम।”

भीड़ में कानाफूसी शुरू हो गई।
अरुण और तरुण के चेहरे उतर गए।
भोला स्तब्ध रह गया।

वकील ने आगे पढ़ा—
“जिसने मेरा मलमूत्र साफ किया, जिसने मुझे अपने पिता की तरह संभाला, वो नौकर नहीं, सच्चा बेटा है। मैं जो कुछ दे रहा हूँ, वो उसका हक है, इनाम नहीं।”

अरुण ने भाई की ओर देखा, बोला, “तरुण, लगता है बाबूजी ने सही किया। हमने सिर्फ नाम के बेटे बनकर फर्ज निभाया, लेकिन भोला ने वो किया जो हमसे कभी ना हो सका।”

तरुण की आँखों में पानी भर आया, “हाँ भैया, बाबूजी ने हमेशा कहा था कि सेवा सबसे बड़ा धर्म है। आज समझ आया।”

दोनों भाई आगे बढ़कर भोला को गले लगा लिया।
भोला सिसक उठा, “साहब, मैं तो बस उनका नौकर था।”
अरुण बोला, “अब तू उनका असली बेटा है। यह घर तेरा होगा।”

अध्याय 9: अंतिम संस्कार

चिता तैयार थी।
तरुण बोला, “भोला ने वह किया जो हमसे कभी ना हो सका। जिसने हमारे पिता का दर्द देखा, उनके दुख में रोया, वही असली बेटा है।”

तरुण ने भोला के कांपते कंधों पर हाथ रखा, “हमने सिर्फ खून का रिश्ता निभाया, लेकिन तूने दिल का रिश्ता निभाया है। आज हम दोनों भाई यह अधिकार तुझे देते हैं कि तू ही बाबूजी को मुखाग्नि दे।”

भोला के कदम डगमगा गए, “मैं कैसे? मैं तो उनका नौकर था।”
तरुण बोला, “नहीं, तू हमारा बड़ा भाई है। बाबूजी की आत्मा को शांति तभी मिलेगी जब अग्नि उन्हीं हाथों से मिलेगी जिन्होंने उनकी आखिरी सांस तक सेवा की।”

भोला ने कांपते हाथों से मुखाग्नि दी।
लपटें उठीं, पूरा गाँव सिसक उठा।
हर आँख नम थी, हर दिल ने महसूस किया—सच्चे रिश्ते खून से नहीं, निस्वार्थ सेवा और प्रेम से बनते हैं।

अध्याय 10: नई सुबह

रात को भोला चुपचाप बैठा था।
आँखों में नींद नहीं थी।
सामने वही चूल्हा बुझा पड़ा था, जिसमें हर सुबह मालिक के लिए दूध गर्म करता था।
कमला पास थी, बोली, “अब घर खाली हो गया। भोला, मालिक चले गए।”

भोला बोला, “मालिक नहीं गए, वह यहीं हैं। इस आंगन में, इस बरगद की छाँव में, हर कोने में उनकी आवाज़ गूंजती है।”

कमला ने उसका हाथ पकड़ा, “भगवान ने तुम्हें परीक्षा में डाला था, तुमने निभाया भी बेटा बनकर।”

भोला आँगन की ओर देखता रहा, जहाँ विश्वनाथ जी शायद तारे बनकर चमक रहे थे।

अगले दिन गाँव के मंदिर में श्रद्धांजलि सभा रखी गई।
अरुण उठा, बोला, “मेरे पिता ने सिखाया था कि ईमानदारी और सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं। हमने बहुत कुछ पाया, पर वो नहीं पाया जो भोला ने पाया—बाबूजी का आशीर्वाद।
आज मैं और मेरा भाई अपने हिस्से की जमीन भी भोला के नाम करते हैं, ताकि बाबूजी की आत्मा को शांति मिले।”

गाँव वाले हैरान थे।
भोला रो पड़ा, “साहब, ऐसा मत कीजिए। मालिक ने जो दिया वही बहुत है।”

अरुण ने उसका कंधा पकड़ा, “भोला, यह मालिक की आखिरी सीख है। जिसने सच्चे मन से सेवा की, वही हकदार है।”

अध्याय 11: विरासत

दिन बीतते गए।
भोला अब उसी घर में रहता था, जिसमें कभी वह नौकर कहलाता था।
अब उस घर का रखवाला था।
कमला सुबह-सुबह तुलसी में दिया जलाती, भोला बरगद के नीचे बैठकर मालिक की फोटो को निहारता, धीरे से कहता, “मालिक, देखिए, आपका आशीर्वाद अब भी मेरे सिर पर है।”

गाँव के बच्चे अब उसे “भोला बाबू” कहने लगे थे।
लोग सलाह लेने आते, खेती-बाड़ी की बातें करते।
राहगीर पूछते, “यह बड़ा सा मकान किसका है?”
गाँव वाले जवाब देते, “यह मकान उस आदमी का है जिसने खून से नहीं, सेवा से रिश्ता निभाया।”

एक साल बाद, उसी तारीख को भोला ने गाँव में एक स्कूल बनवाई।
स्कूल में पट्टिका लगवाई—“विश्वनाथ चौधरी स्मृति सदन, जहाँ इंसानियत ने रिश्तों से बड़ी जीत हासिल की।”

गाँव के बच्चे फूल लेकर आए।
भोला बोला, “बेटा, जब बड़े हो जाओ तो अपने मां-बाप को कभी अकेला मत छोड़ना। जो उनके साथ आखिरी वक्त में होता है, वही असली बेटा होता है।”

बच्चे ताली बजाने लगे, लेकिन भोला की आँखें भर आईं।
वो आकाश की ओर देख रहा था, जैसे वहाँ कहीं मालिक मुस्कुरा रहे हों।

अध्याय 12: अंतिम मिलन

रात ढल चुकी थी।
भोला बरगद के नीचे बैठा था, जहाँ से सब शुरू हुआ था।
हवा में अब सन्नाटा नहीं, शांति थी।
उसने आसमान की ओर देखा, “मालिक, अब मुझे भी सुकून चाहिए। जब बुलाना हो, बुला लेना।”

अगली सुबह, कमला उठी, भोला वहीं बरगद के नीचे बैठा मिला।
आँखें बंद, चेहरा शांत।
जैसे किसी ने उसे नींद में ही मालिक से मिला दिया हो।

गाँव में फिर शोक की लहर दौड़ गई।
लोग कहते, “भोला भी अपने मालिक के पीछे चला गया। अब दोनों साथ होंगे, जहाँ इंसानियत सबसे बड़ा रिश्ता होती है।”

बरगद की छाँव में दो छोटी समाधियाँ बनीं।
एक पर लिखा था—“विश्वनाथ चौधरी: पिता समान इंसान”
दूसरी पर—“भोला यादव: सेवा में जन्मा सच्चा बेटा”

गाँव वाले जब भी उस रास्ते से गुजरते, सिर झुकाते और कहते, “यहाँ खून नहीं, इंसानियत का रिश्ता दफन है।”

समापन

इस कहानी ने सिखाया—
रिश्ते खून से नहीं, दिल से बनते हैं।
कभी-कभी जो लोग अपने कहलाते हैं, वही अकेला छोड़ देते हैं।
और जो पराए होते हैं, वही अपनेपन की परिभाषा बदल देते हैं।
सेवा, त्याग और निस्वार्थ प्रेम—यही इंसानियत की सच्ची पहचान है।

दोस्तों, अगर आपके माता-पिता बुढ़ापे में अकेले पड़ जाएँ तो क्या आप भी शहर की व्यस्तता का बहाना बनाकर उन्हें अकेला छोड़ देंगे?
या फिर उनका सहारा बनकर वह करेंगे जो एक सच्चे बेटे का फर्ज होता है?

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अपने माता-पिता का साथ ही जीवन की सबसे बड़ी कमाई है।
जय हिंद, जय भारत।