जब इंस्पेक्टर ने IPS मैडम को आम लड़की समझकर मारा थप्पड़… फिर जो हुआ, उसने सबको हिला दिया!
सुबह की ठंडी हवा में शहर के बाजार की रौनक धीरे-धीरे जाग रही थी। लोग अपने-अपने कामों में व्यस्त थे। कोई सब्जी खरीद रहा था, कोई अखबार पढ़ते हुए चाय की चुस्की ले रहा था। ऐसे ही भीड़ में एक महिला धीरे-धीरे चल रही थी। साधारण सूती साड़ी में चेहरे पर हल्की मुस्कान और आंखों में एक अजीब सी गंभीरता। कोई नहीं जानता था कि वह दरअसल इस शहर की आईपीएस अधिकारी नेहा सिंह है।
आज नेहा ने तय किया था कि वह अपने सारे औपचारिक पद, गाड़ी, वर्दी और सिक्योरिटी छोड़कर एक आम नागरिक बनकर इस सिस्टम की असली तस्वीर देखेगी। वह जानना चाहती थी कि सड़कों पर, ठेलों पर, छोटे दुकानदारों के बीच पुलिस और जनता का रिश्ता कैसा है। डर का या भरोसे का।
चलते-चलते उसकी नजर एक ठेले पर पड़ी। रामदीन काका पानी पूरी वाले लकड़ी के पुराना ठेला किनारों पर नीली पॉलिश उखड़ी हुई लेकिन उसके पीछे खड़ा आदमी जैसे पूरे जोश से अपनी जिंदगी से लड़ रहा था। रामदीन काका लगभग 55 साल के होंगे। माथे पर पसीना, हाथों में फुर्ती और चेहरे पर ईमानदारी की एक थकी मुस्कान। वह ग्राहकों को पानी पूरिया भर-भर कर दे रहे थे। हर बार ऐसे जैसे हर पूरी में अपनी मेहनत का टुकड़ा रख रहे हो।
नेहा ठेले के पास जाकर रुकी और मुस्कुराते हुए बोली, “काका, एक प्लेट पानी पूरी लगाओ ना।” रामदीन काका ने ऊपर देखा। सामने एक साधारण दिखने वाली लेकिन बेहद आत्मविश्वासी युवती थी। उन्होंने मुस्कुराते हुए पूछा, “तीखा बनाऊं या मीठा बिटिया?” नेहा की आंखों में हल्की शरारत चमकी। “एकदम तीखा। ऐसा बनाओ कि मजा आ जाए।” काका ने मुस्कुराते हुए कहा, “बस बिटिया, अभी चखिए।”
उन्होंने एक पानी पूरी उठाई। उसमें बारीक कटा प्याज, उबला आलू और हल्की सी नमक मिर्च डालकर पुदीना इमली वाले मसालेदार पानी में डुबोया। नेहा ने जैसे ही वह पूरी मुंह में डाली, चेहरे पर एक सिहरन और संतोष दोनों एक साथ उतर आए। वह बोलने ही वाली थी। तभी अचानक आसपास की हंसी ठिठोली की आवाजें थम गईं। सड़क के उस पार से दो बुलेट बाइकें गर्जना करती हुई आईं। हर बाइक पर पुलिस की वर्दी में सजे सिपाही और उनके पीछे एक चौड़ी मूछों वाला इंस्पेक्टर विक्रम ठाकुर। उनकी आंखों में घमंड की परछाई थी और चाल में सत्ता का नशा।
बाइक सीधे रामदीन काका के ठेले के सामने रुकी। इंस्पेक्टर विक्रम ने गुस्से से चिल्लाते हुए कहा, “ए रामदीन, फिर लग गया तेरा ठेला यहां। कितनी बार कहा है? सड़क पर धंधा नहीं करना।” काका का चेहरा एक पल में उतर गया। उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर कहा, “साहब, थोड़ा साइड में ही लगाया है। किसी को दिक्कत नहीं दे रहा। बस दो पैसे का रोजगार है।”
विक्रम हंसा। एक ऐसी हंसी जिसमें इंसानियत नहीं, बस हिकारत थी। “दिक्कत है या नहीं, यह हम तय करेंगे। और इस हफ्ते का हिस्सा कहां है? लगता है धंधा बढ़िया चल रहा है।” तभी इतना अकड़ गया है। रामदीन ने हड़बड़ाकर कहा, “नहीं साहब, बोहनी भी नहीं हुई अभी। शाम तक पहुंचा दूंगा।” इंस्पेक्टर की आंखें लाल हो गईं। “शाम तक तू हमें मूर्ख समझा है क्या? आज ही दिखा।”
काका कुछ बोलने ही वाले थे कि पीछे खड़ा एक कांस्टेबल आगे बढ़ा और ठेले पर रखे पानी के जग को उठाकर जमीन पर पटक दिया। पानी सड़क पर बह निकला। पूरिया मिट्टी में जा गिरी और आसपास खड़े लोगों की आंखों में डर उतर आया। नेहा ने यह सब अपनी आंखों से देखा और उसके अंदर एक लावा फूट पड़ा। लेकिन उसने खुद को शांत रखा क्योंकि आज वह एक आम औरत के रूप में थी। ना वर्दी थी, ना पहचान। बस इंसाफ की आग थी।
मसालेदार पानी सड़क पर बह गया। लोगों के पैर भीगने लगे। लेकिन किसी में हिम्मत नहीं थी कि वह कुछ बोले। उससे पहले कि कोई कुछ समझ पाता, इंस्पेक्टर विक्रम ठाकुर ने अपनी भारीभरकम लात पूरे ठेले पर दे मारी। एक जोरदार धमाके के साथ ठेला उलट गया। उबले हुए आलू, कटे प्याज, मीठी चटनी, मटर और सैकड़ों पानी पूरिया सड़क पर गिर गई। सारा मसाला, सारा स्वाद, सारी मेहनत। एक पल में मिट्टी और गंदे नाले के पानी में बह गया।
रामदीन काका घुटनों के बल सड़क पर बैठ गए। उनकी आंखों में वह दर्द था जिसे कोई कैमरा भी नहीं पकड़ सकता था। वह बिखरी पूड़ियों को देखते हुए रो पड़े जैसे सिर्फ खाना नहीं, उनका सपना टूट गया हो। उनकी बेटी पायल डॉक्टर बनना चाहती थी और वह हर दिन इसी ठेले पर खड़े होकर उसके लिए फीस जोड़ते थे। आज वह सपना भी इस गंदे पानी में बह गया था।
यह सब देखकर नेहा सिंह के अंदर खून खौल उठा। पर यह गुस्सा किसी पद का नहीं था। किसी अहंकार का नहीं था। यह गुस्सा था एक इंसान का जो किसी और इंसान की बेइज्जती होते नहीं देख सकता। वह आगे बढ़ी ठेले के पास आकर खड़ी हुई और सख्त आवाज में बोली, “यह क्या तरीका है? किसी गरीब की रोजीरोटी पर लात मारना आपकी बहादुरी है। आपको शर्म नहीं आती?”
आसपास की भीड़ सन्न हो गई। सभी की नजरें अब नेहा पर थीं। इंस्पेक्टर विक्रम ने उसकी ओर देखा। एक साधारण सलवार कुर्ता पहने औरत, बाल पीछे बंधे हुए, आंखों में दृढ़ता। वह कुछ पल के लिए ठिटका, फिर व्यंग्य से हंसते हुए बोला, “ओहो, देखो तो जरा, आज समाज सेवा करने कौन आ गया है। मैडम, आप कौन हैं? इस बूढ़े की रिश्तेदार हो क्या? जाओ अपना काम करो, ज्यादा नेतागिरी मत दिखाओ।”
पास खड़े कांस्टेबल राकेश यादव ने भी ठहाका लगाया, “लगता है मैडम नई-नई इस शहर में आई हैं। इन्हें नहीं पता कि इंस्पेक्टर विक्रम ठाकुर कौन है।” भीड़ में कुछ लोग धीरे से हंसे, कुछ चुप रहे। लेकिन नेहा की आंखों में अब डर नहीं, आग थी। उसने गहरी सांस ली और शांत लेकिन बेहद मजबूत आवाज में कहा, “मुझे फर्क नहीं पड़ता कि आप कौन हैं। पर मैं इस देश की नागरिक हूं और मुझे हक है सवाल पूछने का। कौन सा कानून आपको यह अधिकार देता है कि आप किसी की मेहनत को यूं सड़क पर बिखेर दें। अगर यही इंसाफ है तो फिर जुल्म किसे कहते हैं?”
यह सुनकर विक्रम ठाकुर का चेहरा तमतमा उठा। उसने कदम बढ़ाया और चीखते हुए बोला, “बड़ी जुबान चल रही है तेरी। रुक, तुझे अभी कानून सिखाता हूं।” भीड़ पीछे हट गई। नेहा स्थिर खड़ी रही और अगले ही पल थप्पड़ पड़ गया। एक जोरदार आवाज गूंजी। नेहा का चेहरा एक ओर झटका खा गया। वह लड़खड़ाई पर गिरने से खुद को संभाल लिया। चेहरे पर पांचों उंगलियों का निशान साफ उभर आया था। पल भर को जैसे पूरा बाजार ठहर गया।
सन्नाटा केवल किसी बच्चे के रोने की आवाज सुनाई दी दूर से। रामदीन काका ने अपने दोनों हाथों से सिर थाम लिया। “हे भगवान!” उनके मुंह से इतना ही निकला। भीड़ में कोई बोल नहीं पाया। डर और हैरत दोनों ने सबकी जुबान बंद कर दी थी। विक्रम ठाकुर मुस्कुराया। “बड़ी कानून सिखाने आई थी। अब समझ आया?” उसके साथी भी जोर-जोर से हंसने लगे।
नेहा ने धीरे-धीरे सिर उठाया। उसकी आंखों से आंसू नहीं, अग्नि निकल रही थी। वह जानती थी अब यह सिर्फ एक ठेले का मामला नहीं रहा। अब यह उस पूरे तंत्र की लड़ाई थी जो गरीबों को कुचलने में गर्व महसूस करता था। इंस्पेक्टर विक्रम ठाकुर ने हथेली हवा में झाड़ते हुए गर्व से कहा, “अब पता चल गया कि पुलिस से दागा लगाने का नतीजा क्या होता है।”
नेहा ने अपने गाल को सहलाया। वहां सिर्फ दर्द नहीं बल्कि गलत तरीके से पल्लवी हुई बेइज्जती की जलन थी। लेकिन उसके अंदर उठता हुआ गुस्सा अब किसी साधारण आग जैसा नहीं रहा था। यह एक ज्वाला बन चुका था जो सब कुछ जलाकर राख कर देने को तैयार था। तभी एक कांस्टेबल ने उसकी कलाई पकड़ ली। उसकी पकड़ कठोर थी। एक तरह का अधिकार जताने वाला होता। “साहब, ले चलूं थाने में?” उसने सचेत होते हुए पूछा।
विक्रम ने गरज कर हां कह दी। “ले चलो, आज इसकी सारी अकड़ निकाल दूंगा।” भीड़ चुप थी। किसी भी चेहरे पर चुनौती की झलक नहीं थी। सिर्फ खौफ था। लोगों की आंखों में वहीं सालों से चला आ रहा डर दफन था। पुलिस के सामने झुकना उनकी आदत बन चुकी थी। नेहा ने भीतर से महसूस किया कि अब मामला गंभीर रूप ले चुका है। उसे पहली बार मन में आया कि अपनी असली पहचान बता दे। एक फोन और सारा खेल खत्म।
पर फिर वही सवाल आया और उस आम औरत का क्या, जिसका आईपीएस टैग नहीं? अगर आज नेहा अपनी पहचान दे देगी तो वह हवन स्थली कौन सा सच देख पाएगी जो अब तक छुपा हुआ है। उसने कठोर निश्चय किया। अभी नहीं। वह बिना कुछ बोले वहां से उठकर थाने की गाड़ी में बैठा दी गई। रास्ते भर वे अफजल आहट भरे मजाक करते रहे। “बहुत तेज निकली है यह औरत, लगता है बड़े घर की होगी।” कोई बोला, “नहीं रे, अगर बड़ा घर होता तो बहक कर पानी पूरी नहीं खाती।” किसी ने तंज कसा, “जरूर किसी से भाग कर आई होगी।”
नेहा ने उनकी बातें सुनी पर कोई जवाब नहीं दिया। उसने हर चेहरे का नाम अपने दिल पर अंकित कर लिया। हर शब्द, हर अंदाज, हर तामझा उसके भीतर एक-एक करके कसौटी बना। थाने पहुंचे ही थे कि तरह-तरह की आवाजें उठी। विक्रम ने आदेश दिया, “इसे लॉकअप में डाल दो।” एक महिला कांस्टेबल ने दरवाजा खोलते हुए नेहा को खींचते हुए औरतों के छोटे से लॉकअप में धकेल दिया और लौह द्वार जोर से बंद कर दिया गया।
बंद घुटन, धुएं सी बदबू और नमी से भरा कमरा। वहां का माहौल किसी जेल से कम ना था। लॉकअप के अंधेरे कोनों में गंदे कंबल बिखरे थे। दीवारों पर पुराने निशान और छिद्र जैसे हर दीवार ने किसी की दबी आवाजें सुन रखी हों। वहां पहले से दो और महिलाएं थीं। एक उम्रदराज पर आंखों में ठहराव और सूझबूझ लिए हुई। दूसरी जवान पर भय से झुकी हुई। बुजुर्ग महिला ने सहमी आवाज में पूछा, “बहन, तुम्हें क्यों पकड़ा?” उसकी आवाज में अनुभव की थकान थी।

नेहा ने हल्की परत वाली मुस्कान दी। वह जानती थी कि अब नाटक ज्यादा चलने नहीं देगा। पर उसने शांत स्वर में कहा, “मैंने बस एक गरीब की मदद करने की गलती कर दी।” बुजुर्ग ने आह भरी और धीरे से कहा, “गरीब इस देश में गरीबों की कोई जगह नहीं। कानून सिर्फ अमीरों के लिए है। अगर तेरे पास पैसे नहीं या पहचान नहीं, तो यह तुझे बहुत सताएंगे।” उसकी आंखों में एक तरह की करुणा और कटु सत्य दोनों झलक रहे थे।
लॉकअप की उस हवा ने नेहा को अंदर तक हिला दिया। वहां का हर स्पर्श, हर गंध उसे यह बता रहा था कि यह सिर्फ एक घटना नहीं। यह व्यवस्था की विडंबना है। नेहा ने देखा कि बगल में वाली लड़की राधा गहरी सांसे ले रही थी। उसकी आंखें सूझी हुई थीं। होंठ कांप रहे थे, जैसे अभी-अभी किसी ने उसे तोड़ दिया हो। लक्ष्मी का चेहरा जो उम्र में बड़ा था पर कमजोर नहीं था। नेहा के मन में सहानुभूति की लकीरें खींच दी।
नेहा ने महसूस किया कि वह अब अकेली नहीं थी। यह चार दीवारी सिर्फ लोहे की नहीं, समाज की उस बेइज्जती की दीवार भी थी जिसे उठाकर उसने खड़ा कर दिया था। उसने अपने भीतर कठोर संकल्प जगा लिया। यह लड़ाई अब सिर्फ उस ठेले के लिए नहीं थी। यह उन हजारों अनकहे घुटनों के लिए थी जिन्हें हर रोज किसी साए के हाथों कुचला जाता है। कमरे की खिड़की से धूप का एक पतला सा किरण टपक रहा था।
उसे देखकर नेहा के चेहरे पर कटु मुस्कान आई। उसने निश्चय कर लिया। बाहर निकलकर बिना शोरशराबे के वह ऐसा सबूत जुटाएगी कि यह तंत्र खुद अपने पैरों पर खड़ा ना रह सके। पर पहले उसे इन औरतों की कहानियां जाननी थी। लक्ष्मी की, राधा की और रामदीन काका की बेटी पायल की। नेहा धीरे-धीरे अपनी सांसों को समेटते हुए बैठ गई। कल उस जख्म का निशान उसके गाल पर रहेगा। पर उसकी आंखों में अब न्याय की एक ठहरी हुई चमक थी।
उसने अपने आप से कहा, “मैं वापस आऊंगी और यह लड़ाई मैं अकेले नहीं लडूंगी।” लॉकअप की ठंडी दीवारों में एक औरत की कराह सुनाई दी। राधा अपनी चोट और अपमान के आंसू रोक ना पाई। उसने साफ-साफ कहा, “दीदी, मैंने बस वही किया जो मेरे दिल ने कहा। अपनी पसंद के लड़के से शादी करने की सोची थी। मेरे घर वालों ने ही मुझे पकड़वा दिया। सुबह से वे पीट रहे हैं और अब कह रहे हैं कि चोरी कबूल कर लो।”
नेहा का दिल गहराई से कांप उठा। यही वह जमीन की हकीकत थी। वह वही तंत्र था जिसकी वह अधिकारी थी। वही झूठी ताकत जिसमें इंसानियत दब कर रह जाती थी। हर सिसकी, हर टटपा हुआ रोना ने उसे भीतर से तकलीफ दी। यह अकेली घटना नहीं, लगातार होने वाला दमन था। कुछ देर बाद वही घमंडी चेहरा फिर सामने आ गया। विक्रम ठाकुर पान चबाते हुए थाने के द्वार पर खड़े थे।
उसने सलाखों से झांक कर तिरस्कार भरी आवाज में कहा, “और समाज सुधारक मैडम जी, हमारा सरकारी मेहमान खाना कैसा लगा?” उसकी आवाज में मजाक और अपमान दोनों मिल रहे थे। नेहा ने बिना डर के उसकी तरफ देखा। आंखों में चोट और जख्म की आग थी। “इंस्पेक्टर, आपने अच्छा नहीं किया। आपने अपनी वर्दी का अपमान किया है।” उसने कड़वे शब्दों में कहा।
विक्रम ने थूकते हुए कहा, “वर्दी का पाठ मत पढ़ा। चुपचाप इस कागज पर साइन कर दे।” उसने एक कागज थमा दिया। उस पर लिखा था कि नेहा ने सरकारी काम में बाधा डाली और नशे में हंगामा किया। नेहा ने ठंडे स्वर में कहा, “मैं किसी झूठे कागज पर साइन नहीं करूंगी। मैंने कोई गलती नहीं की।”
विक्रम की शक्ल कड़क हो गई। उस पल उसका इशारा साफ था। निहित धमकी ना करेगी। “ठीक है। यही तो मच्छर काटेंगे तब अक्ल ठिकाने आएगी। या फिर दूसरा तरीका भी है हमारे पास। बताओ मंजूर है या नहीं।” उसकी आवाज में उसे आनंद मिलता था। सत्ता का कठोर प्रवाह। नेहा ने मुंह में आ गया गुस्सा दबाकर कहा, “अपनी औकात में रहो इंस्पेक्टर, मैं साइन नहीं करूंगी।”
विक्रम गुर्राया और बोला, “राकेश, इसे अंदर ले जाओ और समझाओ कि पुलिस की बात ना मानने का अंजाम क्या होता है।” दो सिपाही अंदर आए और नेहा को उठाकर खींचने लगे। नेहा ने आखिरी बार कहा, “मैं बेकसूर हूं।” पर एक सिपाही ने बर्बरता से उसके बाल पकड़ कर उसे घसीटते हुए अंधेरे कमरे में फेंक दिया। सूट का पल्लू खुला, घुटनों पर चोट लगी। पर नेहा की आंखों में अब इधर-उधर नहीं बल्कि ठहराव और प्रतिज्ञा थी।
विक्रम अंदर आया। हाथ में लकड़ी का डंडा लिए। उसकी हंसी में कोई दया नहीं थी। उसने सवाल किया, “अब बता, साइन करेगी या यह डंडा तेरी सारी समाज सेवा निकाल देगा?” नेहा ने आंखों में आग ली। कहा, “मारो मुझे। पर याद रखना, हर एक चोट का हिसाब तुमको देना होगा।” विक्रम ठहाका मारकर बोला, “कौन लेगा हमसे हिसाब? तू?” और फिर नेहा को फिर से लॉकअप में फेंक दिया गया।
पर अब उसका संकल्प लोहे से भी मजबूत था। रात कठिन रही। आधी रात को उसे दो बासी रोटियां और पानी जैसी दाल दी गई। बदबूदार कंबल, मच्छरों का झुंड और औरतों की सिसकियां सब कुछ एक संग घु था। उसने सोते हुए भी नहीं देखा। हर क्षण उसके दिमाग में योजना बन रही थी। यह शाम उसके लिए परीक्षा थी और वह परीक्षा पास करेगी।
सुबह की पहली किरण जब दरार से आई तो नेहा के गाल पर थप्पड़ के निशान नीले पड़ चुके थे। पर उसकी आंखों में अब ना तो भय था और ना पछतावा। सिर्फ इच्छाशक्ति। अचानक विक्रम फिर आया और बोला, “तेरी किस्मत आज मजबूत है। जमानत मिल गई।” नेहा हैरान हुई। “कौन करवाई जमानत?” विक्रम ने व्यंग्य से कहा, “कोई पत्रकार है। कल रात का तमाशा किसी ने रिकॉर्ड कर लिया। तेरे जैसे लोगों को बचाने कोई ना कोई मूर्ख आ ही जाता है। निकल यहां से पर ज्यादा तमाशा ना कर।”
लॉकअप का दरवाजा खुला और नेहा बाहर लाई गई। वेटिंग एरिया में एक नौजवान रिपोर्टर कैमरा लिए खड़ी थी। शेफाली। उसकी नजरों में जो सच्चाई और जोश था उससे मालूम था कि उसने कहीं से खबर पकड़ी थी। शायद शंभू काका या भीड़ में खड़े किसी व्यक्ति से। शेफाली ने तुरंत कैमरा ऑन करके पूछा, “मैडम, आप पर क्या आरोप लगा है?” पर राकेश ने तीखे स्वर में उसे धक्का दिया। “कैमरा बंद कर और भाग यहां से। यह थाने है न्यूज़ रूम नहीं।” विक्रम बड़बड़ाया। “चल बे औरत, निकल जा। जमानत मिल गई ना। अब तमाशा मत कर।”
पर नेहा की नजरें इधर-उधर भटकते हुए थमीं। थोड़ी दूर एक बूढ़ी औरत फर्श पर बैठकर रो रही थी। “साहब, मेरे बेटे को छोड़ दो। वह बेगुनाह है,” और दरोगा उसी बूढ़ी औरत को धमका रहा था। “भाग यहां से वरना तेरे पोते को भी मैं अंदर डाल दूंगा।” यह दृश्य नेहा का आखिरी धैर्य तोड़ने के लिए काफी था।
नेहा ने गहरी सांस ली। अपनी नीम सी पगड़ी समेटी और ठंडी पर कटु आवाज में विक्रम की ओर मुड़ी। उसकी आवाज में दूध की शांति नहीं, आग थी। विक्रम जो उसे हटाने की बात कहने वाला था, एक लम्हे के लिए चकित रह गया। जैसे कोई अपना ही साया अचानक उजागर हो गया हो। थाने का माहौल जैसे जम गया था। नेहा की आंखें शांत थीं। पर उस शांति में एक ऐसा तूफान था जो सब कुछ बहा ले जाने वाला था।
वो बोली, “इसे मेरा पूरा नाम कैसे पता?” सन्नाटा। किसी ने जवाब नहीं दिया। उसने अपनी नजरें एक-एक कर उन पर गड़ा दी। “कांस्टेबल राकेश यादव।” फिर उसने दाई ओर खड़े दूसरे सिपाही की तरफ देखा। “कांस्टेबल सतीश मोरे” और आखिरी में पीछे खड़े तीसरे कांस्टेबल “गणेश शिंद” तीनों के चेहरों पर खौफ की रेखाएं खींच गईं। उनकी सांसे थम गई जैसे किसी ने उनका वजूद पढ़ लिया हो। थाने में खड़ी पत्रकार शेफाली भी दंग थी।
उसके कैमरे की लाल लाइट अब भी जल रही थी। वह समझ नहीं पा रही थी कि यह औरत जिसे कल तक ठोकर मारी गई थी, आज अपने बोल से सबको पत्थर बना रही है। तभी नेहा ने अपने सूट के अंदर से एक छोटा साधारण सा मोबाइल निकाला। पुराना मॉडल, टूटी स्क्रीन। पुलिस वालों की आंखें चौड़ी हो गईं। विक्रम ठाकुर ने सोचा कि वह किसी को बुला रही है। शायद अपने घर वालों या किसी एनजीओ को।
वह झल्ला उठा। “अबे छीन ले इसका फोन।” कांस्टेबल राकेश आगे बढ़ा। लेकिन नेहा ने अपनी उंगली उठाकर इशारा किया। “अपनी जगह पर खड़े रहो।” उसकी आवाज में जो ठंडक थी उसमें वही ताकत छिपी थी जो किसी बड़े अफसर या सेना के जनरल में होती है। राकेश वहीं रुक गया जैसे किसी अदृश्य दीवार ने उसे पकड़ लिया हो।
नेहा ने फोन का स्पीकर ऑन किया और एक नंबर डायल किया। फोन की घंटी बजने लगी। “ट्रिन ट्रिन ट्रिन!” थाने में खड़े हर पुलिस वाले के चेहरे से रंग उड़ गया। कोई कुछ बोल नहीं पा रहा था। फिर फोन के दूसरी तरफ से आवाज आई, “कमिश्नर ऑफिस, हेलो।” नेहा ने स्थिर स्वर में कहा, “कमिश्नर साहब से बात कराइए। कहिए, आईपीएस नेहा सिंह लाइन पर हैं।”
थाने के भीतर एक सिहरन दौड़ गई। विक्रम ठाकुर के हाथों से पान का डिब्बा गिर पड़ा। राकेश और सतीश के होंठ सूख गए और शेफाली का कैमरा अब उस पल को रिकॉर्ड कर रहा था जो शायद उसकी जिंदगी की सबसे बड़ी खबर बनने वाला था। फोन के दूसरी तरफ रिसेप्शनिस्ट की घबराई हुई आवाज आई, “जी मैडम, 1 मिनट।” फिर कुछ सेकंड का सन्नाटा और उसके बाद एक भारी गंभीर आवाज गूंजी। “नेहा जी, आप सब ठीक हैं। आपने इस नंबर से कॉल किया।”
नेहा की नजरें अब भी विक्रम ठाकुर पर टिकी थीं जो पसीने से भीगा खड़ा था। जैसे उसकी आत्मा को किसी ने निचोड़ दिया हो। नेहा ने शांत लेकिन धारदार स्वर में कहा, “नहीं सर, सब ठीक नहीं है। मैं इस वक्त कोथरोड़ पुलिस स्टेशन में हूं। मैं यहां की मेहमान थी। रात भर आपके लॉकअप में गुजारी है।” फोन के उस पार जैसे सन्नाटा जम गया। कमिश्नर को लगा उन्होंने गलत सुना। “क्या कहा आपने? आप लॉकअप में थीं? मजाक कर रही हैं मैडम।”
नेहा ने ठंडे लहजे में जवाब दिया, “नहीं सर, इंस्पेक्टर विक्रम ठाकुर से पूछ लीजिए। उन्होंने कल रात मुझ पर हाथ उठाया था। बाकायदा हथकड़ी लगाकर मुझे इस थाने में बंद किया गया। मैं चाहूंगी कि आप तुरंत अपनी इंटरनल अफेयर्स टीम के साथ यहां आए। और हां, एसएसपी साहब को भी साथ ले आइएगा। यहां सिस्टम में बहुत गंदगी फैल गई है। उसे साफ करना है।”
फोन के उस पार से घबराई हुई आवाज आई, “जी मैडम, मैं बस 5 मिनट में पहुंच रहा हूं,” और कॉल कट गया। थाने में अब ऐसा सन्नाटा था जैसे किसी ने हवा तक रोक दी हो। किसी के पैरों में हिम्मत नहीं बची थी। विक्रम ठाकुर का चेहरा सफेद पड़ चुका था। उसके हाथों से डंडा गिर पड़ा। “ठप!” राकेश यादव की आंखें फटी रह गईं और मोरे का चेहरा पीला पड़ गया।
विक्रम हकलाते हुए बोला, “मैडम, आप कौन हैं?” नेहा दो कदम आगे बढ़ी। अपने बिखरे बालों को एक झटके में पीछे किया और उसकी आंखें अब दो धारदार तलवारों की तरह चमक रही थीं। वह ठंडी लेकिन साफ आवाज में बोली, “मैं नेहा सिंह, इस जिले की आईपीएस अधिकारी हूं।” यह सिर्फ एक वाक्य नहीं था। यह फैसला था। थाने की दीवारों पर जैसे बिजली गिरी हो।
विक्रम ठाकुर पीछे हट गया। उसके होंठ कांप रहे थे। राकेश यादव ने धीरे से नजर झुका ली और शेफाली का कैमरा अब भी रिकॉर्ड कर रहा था। हर चेहरा, हर पसीने की बूंद, हर कंपन। उस पल सबको एहसास हो गया जिसे उन्होंने कल कुचला था। वहीं आज उनका फैसला सुनाने आई है। जिले की आईपीएस अधिकारी भेष बदलकर आई और पुलिस ने उन्हें पीटा। यह खबर जैसे आग की तरह पूरे सिस्टम में फैल गई।
यह कोई मामूली बात नहीं थी बल्कि प्रशासनिक इतिहास की सबसे बड़ी शर्म और सबसे बड़ी चेतावनी थी। थाने के भीतर इंस्पेक्टर विक्रम ठाकुर की जुबान अब साथ नहीं दे रही थी। “मैडम, गलती हो गई। हमें पता नहीं था।” वह घुटनों के बल गिरने ही वाला था कि नेहा की आवाज गूंज उठी, “खड़े रहो इंस्पेक्टर।” उस एक आदेश में वह अधिकार था जो किसी संविधान की पंक्तियों से भी भारी पड़ता है।
विक्रम वहीं जम गया जैसे वक्त ठहर गया हो। ठीक 5 मिनट बाद थाने के बाहर सायरन की आवाजें गूंज उठीं। एक, दो नहीं पूरा काफिला। छह पुलिस की गाड़ियां थाने के गेट पर एक साथ रुकीं। ब्रेक की चीख के साथ दरवाजे खुले और जिले के सबसे वरिष्ठ अधिकारी अंदर दौड़े चले आए। सबसे आगे एसपी साहब, पीछे एसएसपी और साथ में कमिश्नर खुद।
अंदर का दृश्य देखकर सबके कदम थम गए। थाने के बीचोंबीच साधारण साड़ी पहने, चेहरे पर थप्पड़ का नीला निशान लिए, बालों में धूल और चेहरे पर दृढ़ता लिए आईपीएस नेहा सिंह खड़ी थी। कमरे में इतनी खामोशी थी कि पसीने की बूंद भी गिरती तो सुनाई देती। एसपी साहब ने तुरंत हाथ उठाकर सैल्यूट ठोका। “मैडम, यह क्या हो गया?” उनके पीछे खड़े सभी अफसरों ने भी सैल्यूट किया।
थाने का पूरा स्टाफ जो कल तक इनका तमाशा देख रहा था, आज सिर झुका कर अटेंशन में खड़ा था। वो इंस्पेक्टर विक्रम ठाकुर जिसने कल रात उसी औरत को थप्पड़ मारा था, अब कांपते हुए अपने ही पैरों पर टिकना भूल गया था। उसका चेहरा राख हो चुका था। पसीने की धार उसके कॉलर तक बह रही थी। नेहा ने सीधी नजरों से एसपी की ओर देखा। फिर कहा, “कमिश्नर साहब, कल रात मैंने अपनी आंखों से देखा कि आपकी पुलिस आम जनता के साथ कैसा सलूक करती है।”
उन्होंने एक-एक शब्द नप्पे तौले लहजे में कहा, “जब मैंने एक गरीब आदमी के हक में आवाज उठाई तो आपके इस बहादुर इंस्पेक्टर ने मुझ पर हाथ उठाया।” कमिश्नर का चेहरा शर्म और गुस्से से लाल पड़ गया। उन्होंने विक्रम की तरफ देखा और बस इतना कहा, “शर्म आनी चाहिए इंस्पेक्टर।” अब तक विक्रम अपने घुटनों पर गिर चुका था।
“मैडम, मुझे माफ कर दीजिए। मेरे बच्चों का वास्ता है।” उसकी आवाज में डर नहीं, जान निकलती हुई लग रही थी। “मैं आपको पहचान नहीं पाया।” नेहा की आंखें अब आग बन चुकी थीं। वह गरजी, “यही तो सबसे बड़ा अपराध है इंस्पेक्टर। तुमने मुझे इसलिए नहीं मारा कि मैंने गलती की थी, बल्कि इसलिए कि मैं तुम्हें एक आम औरत लगी। अगर मैं वर्दी में होती तो क्या तुम थप्पड़ मारने की हिम्मत करते?”
थाने में सन्नाटा। कोई आंख ऊपर उठाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था। नेहा ने अपने हाथ से सलाखों की तरफ इशारा किया। “कमिश्नर साहब, इन दो औरतों को देखिए। लक्ष्मी और राधा, इनका क्या अपराध है? क्या इनका कोई हक नहीं? आपका यह थाना जनता की रक्षा का नहीं, शोषण का अड्डा बन चुका है।” शेफाली कैमरा ऑन किए हुए थी। हर शब्द, हर पल लाइव जा रहा था।
हर चैनल पर वही दृश्य। जिले की आईपीएस अधिकारी भेष बदलकर आई और थाने का काला सच उजागर हुआ। नेहा ने अब ठोस आवाज में आदेश दिया, “कमिश्नर साहब, मैं तत्काल प्रभाव से आदेश देती हूं कि इंस्पेक्टर विक्रम ठाकुर, कांस्टेबल राकेश यादव और दोनों सिपाही सतीश मोरे और गणेश शिंद को निलंबित किया जाए। और सिर्फ निलंबन नहीं, इन सब पर एफआईआर दर्ज की जाएगी। महिला पर हाथ उठाने के लिए, गैरकानूनी हिरासत में रखने के लिए और गरीब पर अत्याचार करने के लिए। रामदीन काका के ठेले को जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई भी इन्हीं की तनख्वाह से की जाएगी।”
विक्रम अब जमीन पर लेट गया था। “मैडम, मैं बर्बाद हो जाऊंगा। मेरी मां बीमार है। मेरी पत्नी…” नेहा ने ठंडे लेकिन न्यायपूर्ण स्वर में कहा, “जब तुमने रामदीन काका के ठेले पर लात मारी थी, क्या तब तुम्हें उनकी बीमार मां याद आई थी? जब तुमने एक महिला पर हाथ उठाया, क्या तब तुम्हें अपनी पत्नी का मान याद था?” पूरा थाना मौन। कानून पहली बार जीवित था और न्याय का स्वर स्वयं बोल रहा था।
नेहा ने एएसपी को आदेश दिया, “लक्ष्मी और राधा को तुरंत रिहा करो। उनकी फाइल मेरे ऑफिस भेजो। मैं खुद देखूंगी कि उन्हें इंसाफ मिले।” वह मुड़ी और थाने से बाहर आई। बाहर मीडिया की गाड़ियां, भीड़ और आम जनता का सैलाब था। हर कैमरा, हर चेहरा उन्हें देख रहा था। वह औरत जिसने सिस्टम की नींव हिला दी थी।
भीड़ के बीच खड़े थे रामदीन काका। आंखों में आंसू, हाथ जुड़े हुए। नेहा उनके पास गई और दोनों हाथों से उनके हाथ थाम लिए। “काका, माफी मुझे मांगनी चाहिए। मेरे ही सिस्टम ने आपकी रोजी रोटी छीनी। मैं वादा करती हूं, आपका ठेला आपको वापस मिलेगा और पूरा लाइसेंस मैं खुद दिलवाऊंगी। आज के बाद कोई आपसे हफ्ता नहीं मांगेगा।”
रामदीन काका के होंठ कांपे। “मैडम, आप तो देवी हैं। आपने हमें बचा लिया।” नेहा मुस्कुराई। “नहीं काका, मैं देवी नहीं, बस अपना फर्ज निभा रही हूं।” फिर वह मीडिया की ओर मुड़ी। शेफाली ने माइक आगे किया। नेहा ने दृढ़ स्वर में कहा, “आज जो हुआ वह शर्मनाक है। लेकिन यह एक नई शुरुआत है। मैं इस जिले के हर नागरिक को भरोसा दिलाती हूं। कानून से ऊपर कोई नहीं है। ना कोई नेता, ना कोई अफसर और ना ही वह जो खुद को कानून का रक्षक कहते हैं। अगर पुलिस जनता की रक्षक बनेगी तो हम उसे सलाम करेंगे। लेकिन अगर वह भक्षक बनेगी तो उसे बख्शा नहीं जाएगा।”
वह रुकी फिर बोली, “आज से इस थाने में सीसीटीवी कैमरे लगेंगे और हर हफ्ते उनकी फुटेज की जांच होगी।” कमिश्नर ने सिर झुका कर कहा, “जी मैडम।” पीछे इंस्पेक्टर विक्रम ठाकुर और उसके साथी अब हथकड़ी में पुलिस की जीप में बिठाए जा चुके थे। कल तक जो वर्दी उनका घमंड थी, आज वही वर्दी उनकी बेइज्जती का सबक बन चुकी थी।
नेहा ने एक गहरी सांस ली। उनका चेहरा थका हुआ था। गाल पर चोट अब भी नीली थी। पर उनके दिल में पहली बार सुकून था। क्योंकि आज उन्होंने सिर्फ एक अफसर के रूप में नहीं, बल्कि एक इंसाफ की आवाज बनकर सिस्टम की गंदगी को धो दिया था।
नेहा ने अपने दिल में एक नई उम्मीद जगा ली थी। यह लड़ाई अब खत्म नहीं हुई थी, बल्कि एक नई शुरुआत थी। वह जानती थी कि उसे और भी कई लड़ाइयाँ लड़नी हैं, लेकिन आज उसने साबित कर दिया था कि सच्चाई और न्याय की राह पर चलने वाले को कभी हार नहीं मिलती।
इस तरह, नेहा सिंह ने न केवल अपने लिए बल्कि समाज के लिए एक मिसाल कायम की। वह एक ऐसी अधिकारी बन गईं, जो न केवल कानून की रखवाली करती थीं, बल्कि समाज के कमजोर वर्ग के अधिकारों की भी रक्षा करती थीं। उनकी यह कहानी हर उस व्यक्ति के लिए प्रेरणा बनी जो अन्याय के खिलाफ खड़ा होना चाहता था।
नेहा ने यह साबित कर दिया कि एक महिला की शक्ति केवल उसके पद में नहीं, बल्कि उसके साहस में होती है। और यही साहस उसे आगे बढ़ने की शक्ति देता है। अब नेहा सिंह सिर्फ एक आईपीएस अधिकारी नहीं थीं, बल्कि एक नायक थीं, जिन्होंने अपने संघर्ष से यह दिखाया कि सच्चाई और न्याय की लड़ाई कभी खत्म नहीं होती।
इस कहानी ने यह संदेश दिया कि जब तक हम अन्याय के खिलाफ खड़े नहीं होते, तब तक सच्चाई की जीत संभव नहीं है। हमें अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहिए और कभी भी किसी भी अन्याय को सहन नहीं करना चाहिए। यह कहानी हमें सिखाती है कि एक व्यक्ति का साहस पूरे समाज को बदल सकता है।
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