कहानी: मीरा की ईमानदारी

प्रारंभ

ईमानदारी की कोई कीमत नहीं होती। पर कभी-कभी उसकी वजह से हमें कुछ ऐसा वापस मिल जाता है जो दुनिया की हर दौलत से ज्यादा कीमती होता है। यह कहानी है मीरा की। एक ऐसी लड़की की जिसे एक गरीब सब्जी वाले ने गलती से कुछ ₹100 ज्यादा लौटा दिए थे। मीरा जब अपनी ईमानदारी का फर्ज निभाने के लिए वह पैसे लौटाने गई तो उसने उस सब्जी वाले के चेहरे पर कुछ ऐसा देखा कि वह कांप उठी।

मीरा का अतीत

उसे नहीं पता था कि एक छोटी सी गलती और उसकी एक छोटी सी ईमानदारी एक ऐसे दफन हुए राज पर से पर्दा उठा देगी जिसने उसकी पूरी दुनिया को 10 साल पहले ही उजाड़ दिया था। मुंबई, लाखों सपनों और टूटे हुए दिलों का शहर। इसी शहर की भागती दौड़ती दुनिया में मीरा अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रही थी। 26 साल की मीरा एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करती थी। वह एक होशियार और महत्वाकांक्षी लड़की थी।

लेकिन उसकी हौसला के पीछे एक गहरा दर्द छिपा था। एक ऐसा दर्द जिसे वह पिछले 10 सालों से अपने सीने में दफन किए हुए थी। 10 साल पहले मीरा की दुनिया एक खुशहाल परिवार थी। उसके पिता, प्रोफेसर रमेश शर्मा, शहर के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में पढ़ाते थे। वह अपने छात्रों के बीच बहुत लोकप्रिय और अपने उसूलों के लिए जाने जाते थे।

कलंक का आघात

पर एक दिन उनकी इस इज्जत और सम्मान की दुनिया पर एक ऐसा कलंक लगा जिसने सब कुछ तबाह कर दिया। कॉलेज में हुए एक बहुत बड़े वित्तीय घोटाले में प्रोफेसर साहब का नाम आया। उन पर लाखों रुपए के गबन का आरोप लगा। मीडिया, पुलिस, अदालत सब उनके पीछे पड़ गए। प्रोफेसर साहब चीख-चीख कर कहते रहे कि वह बेकसूर हैं, उन्हें फंसाया जा रहा है। लेकिन कोई सबूत उनके पास नहीं था। सारे सबूत उनके खिलाफ थे।

उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया। समाज में उनकी इज्जत नीलाम हो गई। इस सदमे और जिल्लत को वह बर्दाश्त नहीं कर पाए। एक रात उन्होंने एक खत छोड़कर घर से कहीं चले गए। खत में लिखा था, “मैं एक गुनहगार हूं। मैं तुम लोगों के लिए एक बोझ बन गया हूं। मुझे भूल जाना और अपनी नई जिंदगी शुरू करना।” उस रात के बाद प्रोफेसर रमेश शर्मा कभी वापस नहीं लौटे।

मीरा का संघर्ष

पुलिस ने उन्हें बहुत ढूंढा, पर उनका कुछ पता नहीं चला। मीरा, उसकी मां और उसके छोटे भाई की दुनिया उजड़ गई। उन पर कर्ज का बोझ था और समाज के ताने थे। पर मीरा ने कभी हार नहीं मानी। उसके दिल में एक विश्वास हमेशा जिंदा रहा कि उसके पिता बेकसूर हैं और एक दिन वह उन्हें ढूंढ निकालेगी और उनके नाम पर लगे इस दाग को धोकर रहेगी।

इन 10 सालों में मीरा ने बहुत मेहनत की। उसने अपनी पढ़ाई पूरी की। एक अच्छी नौकरी पाई और अपने परिवार को संभाला। पर उसकी आंखें हमेशा अपने खोए हुए पिता को तलाशती रहती। रोज शाम को ऑफिस से लौटते समय वह अपने घर के पास लगने वाले एक छोटे से बाजार से सब्जी खरीदती।

सब्जी वाले से मुलाकात

उसी बाजार के एक कोने में एक बूढ़ा सा सब्जी वाला अपना छोटा सा ठेला लगाता था। वह एक बहुत ही खामोश इंसान था। उसकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी, बाल सफेद थे और वह हमेशा अपनी नजरें झुकाकर ही सब्जी तौलता। उसकी आवाज में एक अजीब सी उदासी थी। मीरा पिछले कई हफ्तों से उसी से सब्जी खरीद रही थी।

उस शाम भी मीरा ने उसी ठेले से कुछ सब्जियां खरीदीं। सब्जियों का बिल ₹90 हुआ। मीरा ने उसे ₹500 का नोट दिया। बाजार में बहुत भीड़ थी। उस बूढ़े सब्जी वाले ने जल्दी-जल्दी में उसे पैसे लौटाए। मीरा ने भी बिना गिने पैसे अपने पर्स में रखे और घर आ गई।

ईमानदारी का फैसला

घर आकर जब उसने अपना पर्स खोला तो वह हैरान रह गई। उस सब्जी वाले ने उसे ₹410 लौटाए थे। मतलब उसने ₹500 के नोट को गलती से ₹100 का नोट समझ लिया था। मीरा के घर की आर्थिक हालत अब भी कोई बहुत अच्छी नहीं थी। ₹400 उसके लिए मायने रखते थे।

एक पल के लिए उसके मन में ख्याल आया, “यह तो उसी की गलती है। मैं क्यों जाऊं लौटाने?” पर अगले ही पल उसे अपने पिता की याद आ गई। वह हमेशा कहते थे, “बेटा, ईमानदारी इंसान का सबसे बड़ा गहना होती है। इसे कभी खुद से अलग मत करना।” उसे उस बूढ़े गरीब सब्जी वाले का चेहरा भी याद आया।

उसने सोचा, “पता नहीं उस बेचारे का कितने का नुकसान हो गया होगा। नहीं, मैं यह पैसे नहीं रख सकती।” उसने फैसला किया कि वह अगले दिन जाकर उसे यह पैसे लौटा देगी।

लौटाना और मिलना

अगले दिन शाम को वह ऑफिस से सीधा उसी बाजार में पहुंची। वह बूढ़ा सब्जी वाला अपने ठेले पर बैठा ग्राहकों का इंतजार कर रहा था। उसके चेहरे पर आज एक गहरी चिंता और उदासी थी। शायद उसे अपने नुकसान का एहसास हो गया था। मीरा उसके पास पहुंची।

“Baba, कल आपने मुझे गलती से ज्यादा पैसे लौटा दिए थे। यह लीजिए आपके ₹400,” उसने कहा। वह बूढ़ा सब्जी वाला पहले तो हैरान हुआ। उसने अपनी झुकी हुई नजरें उठाई और पहली बार सीधे मीरा की आंखों में देखा।

पहचान का क्षण

जैसे ही मीरा की नजरें उसकी आंखों से मिलीं, मीरा के पूरे शरीर में जैसे बिजली दौड़ गई। वह कांप उठी। उसकी आंखें, वह भूरी, गहरी और कुछ पढ़ाने वाली आंखें। इन आंखों को तो वह जानती थी। इन्हीं आंखों को तो वह पिछले 10 सालों से हर अजनबी चेहरे में तलाश रही थी।

उस बढ़ी हुई सफेद दाढ़ी, चेहरे की झुर्रियों और गरीबी की धूल के पीछे जो चेहरा छिपा था, वह किसी और का नहीं बल्कि उसके अपने पिता प्रोफेसर रमेश शर्मा का था। “पापा!” एक कांपती हुई अविश्वसनीय सिसकी मीरा के मुंह से निकली।

भावनाओं का ज्वार

यह सुनते ही वह बूढ़ा सब्जी वाला प्रोफेसर रमेश शर्मा पत्थर का हो गया। उसकी आंखें डर और शर्मिंदगी से फैल गईं। जिस राज को वह 10 सालों से दुनिया से छिपाए एक गुमनाम जिंदगी जी रहा था, आज वह उसकी अपनी बेटी के सामने उजागर हो गया था। उसने फौरन अपनी नजरें झुका लीं।

“नहीं, नहीं। तुम कोई और हो। मैं तुम्हारा पिता नहीं हूं।” पर मीरा ने दौड़कर उसे पकड़ लिया। वह अपने पिता से लिपट कर फूट-फूट कर रोने लगी। “नहीं पापा, आप झूठ मत बोलिए। मैं आपको पहचान गई हूं। आपकी बेटी आपको पहचान गई है। कहां चले गए थे आप? हमें छोड़कर क्यों चले गए थे? हम हर रोज हर पल आपको याद करते थे। मैं जानती थी कि आप बेकसूर हैं।”

मिलन का दृश्य

बाजार में भीड़ इकट्ठा हो गई। सब हैरान होकर इस बाप-बेटी के इस दर्दनाक मिलन को देख रहे थे। प्रोफेसर साहब भी अब खुद को रोक नहीं सके। बेटी की आंखों में अपने लिए वही प्यार और विश्वास देखकर उनका 10 सालों का दबा हुआ बांध टूट गया।

वह भी अपनी बेटी से लिपट कर रोने लगे। “हां बेटी, मैं ही हूं तेरा अभागा बाप। मैं गुनहगार हूं। मैं तुम लोगों के सामने आने के लायक नहीं था।” उस दिन मीरा अपने पिता को अपने साथ घर ले आई।

परिवार का पुनर्मिलन

घर पर जब मीरा की मां ने अपने पति को इस हालत में देखा तो वह बेहोश होते-होते बची। 10 साल बाद वह परिवार पूरा तो हुआ था, पर एक टूटे हुए बिखरे हुए रूप में प्रोफेसर साहब अब भी खुद को गुनहगार मानते थे। वह चुपचाप एक कोने में बैठे रहते।

पर मीरा अब चुप बैठने वाली नहीं थी। उसे अपने पिता वापस मिल गए थे। अब उसे अपने पिता का खोया हुआ सम्मान वापस लाना था। उसने फैसला किया कि वह उस केस को फिर से खुलवाएगी।

न्याय की तलाश

उसने अपनी सारी बचत एक अच्छे वकील को दे दी। वह खुद भी दिन-रात उस केस की पुरानी फाइलों को पढ़ने लगी। वह एक तेज तर्रार कॉर्पोरेट लड़की थी और उसका यह दिमाग अब अपने पिता के लिए इंसाफ ढूंढ रहा था। महीनों की मशक्कत के बाद उसे उन पुरानी फाइलों में एक ऐसी कड़ी मिली जिसे 10 साल पहले या तो नजरअंदाज कर दिया गया था या जानबूझकर छिपा दिया गया था।

उसे कुछ ऐसे बैंक ट्रांजैक्शंस के सबूत मिले जो घोटाले का पैसा प्रोफेसर साहब के नहीं बल्कि कॉलेज के एक भ्रष्ट ट्रस्टी के खाते में जाने का इशारा कर रहे थे। वह ट्रस्टी जो कभी प्रोफेसर साहब का सबसे अच्छा दोस्त होने का दावा करता था।

सच्चाई का खुलासा

मीरा ने यह सबूत पुलिस और अपने वकील को सौंप दिए। केस फिर से खुला। जांच हुई और इस बार सच सामने आ गया। असली गुनहगार वह ट्रस्टी ही था जिसने खुद को बचाने के लिए सारा इल्जाम अपने दोस्त प्रोफेसर रमेश शर्मा पर डाल दिया था। उसे गिरफ्तार कर लिया गया।

अदालत ने प्रोफेसर रमेश शर्मा को बाइज़त बरी कर दिया। 10 साल बाद उनके नाम पर लगा कलंक हमेशा के लिए धुल गया। अखबारों में उनकी बेगुनाही की खबरें छपीं। कॉलेज ने उनसे माफी मांगी और उन्हें उनकी नौकरी और सम्मान वापस देने की पेशकश की।

नया जीवन

उस दिन प्रोफेसर साहब सालों बाद खुलकर मुस्कुराए। उन्होंने अपनी बेटी को गले लगाया और कहा, “बेटी, आज तुमने मुझे सिर्फ ढूंढा नहीं है। तुमने मुझे फिर से जिंदगी दी है।” मीरा ने अपने पिता के हाथ पकड़े और कहा, “नहीं पापा, यह सब मेरी वजह से नहीं बल्कि मेरी उस छोटी सी ईमानदारी की वजह से हुआ। अगर उस दिन मैंने वह ₹400 लौटाने का फैसला ना किया होता तो शायद मैं आपको कभी पहचान ही नहीं पाती। आपने ही तो सिखाया था कि ईमानदारी का रास्ता हमें हमेशा सही मंजिल तक ले जाता है।”

नया अध्याय

प्रोफेसर साहब ने अपनी पुरानी गुमनाम जिंदगी को पीछे छोड़ दिया। पर उन्होंने वापस कॉलेज में पढ़ाना शुरू नहीं किया। उन्होंने पास की एक बस्ती में गरीब बच्चों के लिए एक छोटा सा स्कूल खोला। वह कहते थे, “मैंने 10 साल तक गुमनामी में रहकर जिंदगी का जो सबक सीखा है, वह मैं अब इन बच्चों को सिखाना चाहता हूं।”

समापन

मीरा का परिवार फिर से एक हो गया था। उनकी जिंदगी में अब दौलत नहीं पर सम्मान और सुकून था जो हर दौलत से बढ़कर होता है।

तो दोस्तों, यह कहानी हमें सिखाती है कि हमारे छोटे-छोटे ईमानदार फैसले भी हमारी जिंदगी में कितने बड़े और सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं और यह भी कि हमें अपनों पर विश्वास करना कभी नहीं छोड़ना चाहिए।

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