वर्दी के पीछे छुपा दिल

दिल्ली के एक बड़े सरकारी अस्पताल के बाहर शाम का वक्त था। डॉक्टर आरोही वर्मा, जो न्यूरोलॉजी विभाग की सबसे काबिल डॉक्टर मानी जाती थी, थकी हुई मगर संतुष्ट होकर बाहर निकली। तभी अस्पताल के गेट पर एक बोसीदा कपड़ों में शख्स, हाथ में अखबारी कागज में लिपटा गुलदस्ता लिए उसका इंतजार कर रहा था। उसकी आंखों में बरसों की पहचान थी, मगर चेहरा वक्त की गर्द से ढका हुआ।

“आरोही, मैं राजू हूं।” उसकी आवाज में कपकपाहट थी, मगर हौसला भी। आरोही ने एक पल को पहचानने की कोशिश की, फिर नजरें फेर ली। उसके साथ खड़े डॉक्टर साथी हंसी दबा रहे थे। राजू ने गुलदस्ता आगे बढ़ाया और बोला, “मैं तुमसे शादी का प्रस्ताव लेकर आया हूं।” यह सुनते ही आसपास के लोग रुक गए। नर्सें, मरीज, सबकी निगाहें उन पर टिक गईं।

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आरोही ने तंजिया अंदाज में कहा, “एक मैट्रिक फेल लड़का एक न्यूरोलॉजिस्ट से शादी करेगा? ख्वाब में भी मत सोचना!” राजू की आंखों में दर्द साफ था, मगर उसने कोई शिकायत नहीं की। गुलदस्ता उसके हाथ से गिर गया, सफेद गुलाब फुटपाथ पर बिखर गए। लोग हंसते रहे, वीडियो बनाते रहे, मगर राजू चुपचाप वहां से चला गया। उसकी खामोशी में बरसों की मोहब्बत और रुसवाई थी।

अगली सुबह आरोही सब्जी मंडी गई। वहां सरोज चाची ने उसे बताया, “वह कोई आम लड़का नहीं था, वह तुम्हारा बचपन का दोस्त राजू है। अब भारतीय फौज का ब्रिगेडियर है। कल वह भष बदलकर आया था, शायद यह देखने कि तुम उसे दिल से पहचानती हो या सिर्फ कपड़ों से।” यह सुनते ही आरोही का दिल कांप उठा। उसे अपने किए पर शर्मिंदगी महसूस हुई।

घर लौटकर उसने मां से पूछा, “मां, क्या राजू सच में इतना बड़ा अफसर बन गया?” मां ने सिर हिलाया, “बेटा, असली इंसान उसकी मेहनत और किरदार से पहचाना जाता है, ना कि कपड़ों से।” आरोही की आंखें नम हो गईं। उसने तय किया कि वह राजू से माफी मांगेगी।

कुछ दिन बाद गांव में एक समारोह हुआ, जिसमें राजू को सम्मानित किया गया। पूरे गांव के लोग जुटे थे। राजू वर्दी में, सजी-धजी फरारी गाड़ी से उतरा। उसकी चाल में आत्मविश्वास था, आंखों में गहराई। आरोही की नजरें उससे हट नहीं रही थीं। समारोह में राजू ने कहा, “जिंदगी में कुछ लोग हमें बदल देते हैं। मैं उन सबका शुक्रगुजार हूं, चाहे साथ रहे या छोड़ गए।”

समारोह के बाद, भीड़ में से गुजरते हुए राजू आरोही के सामने आया। दोनों की नजरें मिलीं। आरोही ने धीमे स्वर में कहा, “राजू, मैं शर्मिंदा हूं। मैंने तुम्हें कपड़ों से परखा, दिल से नहीं। माफ कर दो।” राजू ने मुस्कुरा कर कहा, “माफ करना मुश्किल नहीं, मगर याद रखो, कुछ जख्म भर तो जाते हैं, मगर निशान छोड़ जाते हैं।”

आरोही की आंखों में आंसू थे, मगर दिल में सच्चाई की चमक। उसने राजू का हाथ थामा, जैसे बरसों की दीवार एक पल में गिर गई। वह लम्हा, जो कभी रुसवाई से जुड़ा था, अब एक नई शुरुआत बन गया। गांव की हवाओं में सुकून था। दोस्ती वहीं निभती है, जहां दिल पहचाने जाते हैं, शक्लें नहीं।

यह कहानी हमें सिखाती है कि असली पहचान दिल की होती है, लिबास की नहीं। रिश्तों की खूबसूरती सच्चाई और इज्जत में है, ना कि दिखावे में।