फ़ातिमा का सब्र – एक सच्ची कहानी
दोपहर का वक्त था। सूरज अपनी पूरी तपिश के साथ आसमान में चमक रहा था। मिट्टी से उठती भाप और हवा में घुलती तपिश से पूरा गांव जैसे पिघल रहा था। इसी धूप में दो नन्ही बच्चियां, फातिमा और अस्मा, मुश्किल से पांच साल की, अपने छोटे-छोटे हाथों से कुएं से पानी भर रही थीं। बाल्टियां आधी भरते ही झुक जातीं, मगर वे दोनों बिना शिकायत, बिना आराम किए, एक-एक कदम चलती जातीं। उनकी आंखों में थकान थी, मगर ज़ुबान पर सब्र था। मां के जाने के बाद ज़िंदगी ने उन्हें उम्र से पहले बड़ा कर दिया था। एक महीने पहले उनकी मां बीमार पड़ी थी, मगर चाची ने दवा तक नहीं दिलाई। और जब मौत आई, तो उसने इन दोनों के सिर से साया छीन लिया। अब दोनों उसी चाची के रहम पर थीं, जो हर रोज़ जुल्म को ईबादत की तरह अंजाम देती थी। घर पहुंचते ही चाची की चीख गूंजी—“कहां मर गई थीं तुम दोनों? सूरज डूब गया, मगर पानी नहीं भरा?” फातिमा बोली—“चाची, औरतें थीं कुएं पर, देर हो गई।” मगर जवाब में एक चांटा पड़ा, जो चेहरे से ज़्यादा दिल पर लगा। “बहाने मत बना, पहले कपड़े धो, फिर खाना मिलेगा।” दोनों बच्चियां भूखी थीं, मगर डर के मारे कुछ नहीं बोलीं। पानी रखकर, गीले कपड़ों की गठरी उठाई और धुलाई शुरू कर दी। शाम ढली, तो भूख ने पेट में आग लगा दी। अस्मा धीरे से बोली—“फातिमा, अम्मा की बहुत याद आ रही है।” फातिमा की आंखें भर आईं—“चलो, कब्र पर चलते हैं।” अस्मा बोली—“चाची मारेंगी।” मगर फातिमा ने उसका हाथ थाम लिया—“अम्मा नाराज़ नहीं होंगी।” दोनों धीरे-धीरे कब्रिस्तान की तरफ चलीं। रास्ते में दो सूखी रोटियां मिलीं, जिन्हें उन्होंने इज्ज़त से उठाया और अम्मा की कब्र पर बैठकर रो पड़ीं—“अम्मा, हमें भूख लगी है, चाची बहुत मारती है, वापस आ जाओ।” हवा ने जैसे उनका दर्द सुन लिया। पत्ते हिले, और सूरज की आख़िरी किरण उन पर पड़ी, जैसे किसी ने ऊपर से उन्हें दुआ दी हो। कुछ देर बाद दोनों वापस लौटीं, चाची ने बचा-कुचा खाना फेंक दिया—“लो, यही खाओ, और रोना मत शुरू करना।” दोनों ने शुक्रीये से खाना खाया। यही उनका रोज़ का सिलसिला था—मेहनत, गाली, और फिर थोड़ी सी राहत। दिन बीतते गए। एक रात अस्मा को तेज़ बुखार चढ़ गया। उसका छोटा-सा जिस्म तपने लगा। फातिमा उसके सिर पर पानी की पट्टियां रखती रही, मगर बुखार उतरने का नाम नहीं ले रहा था। सुबह उसने चाची से कहा—“चाची, अस्मा बीमार है, डॉक्टर के पास ले चलो।” मगर जवाब में फिर वही जुल्म—“डॉक्टर के पैसे हैं तुम्हारे पास? खुद ही ठीक हो जाएगी।” फातिमा चुप हो गई, मगर दिल रो रहा था। दिन चढ़ा, तो अस्मा की सांसें धीमी होने लगीं। फातिमा भागकर आई—“चाची, देखिए, अस्मा कुछ बोल नहीं रही।” मगर चाची बेपरवाह बोली—“ड्रामा मत कर, जा बर्तन धो।” कुछ देर बाद जब फातिमा लौटी, तो अस्मा की आंखें बंद थीं। जिस्म ठंडा था। उसकी चीखें पूरे घर में गूंज उठीं—“अस्मा, उठो! मैं अकेली रह जाऊंगी!” मगर कोई जवाब नहीं आया। चाची भी वहां आई, मगर चेहरे पर अफसोस नहीं था। बस बोली—“अब क्या करूं? मर गई तो मर गई।” उस दिन फातिमा का बचपन दफन हो गया। मां के बाद अब बहन भी चली गई थी। वह खामोश रहने लगी। दिन-रात काम करती और आसमान की तरफ देखती—शायद वहां कोई है जो उसे देख रहा है। वक्त गुज़रा, फातिमा जवान हुई। उसकी आंखों में वही दर्द था, मगर अब चेहरा चमकने लगा था। उसकी सुंदरता गांव की चर्चा बन गई थी। उसकी आंखों में अजीब सी सादगी थी, जो किसी भी दिल को छू जाए। मगर यही बात उसकी चाची और उसकी बेटी नजमा को जलाती थी। नजमा का रिश्ता तय करने के लिए कई लोग आते, मगर जब भी फातिमा नजर आती, सब उसी की तारीफ करते। एक दिन मेहमान आए, चाची ने सख्ती से कहा—“तू बाहर मत आना, मेहमानों के सामने दिखी तो बुरा हो जाएगा।” मगर किस्मत को कुछ और मंज़ूर था। नजमा चाय लेकर आई और गलती से गिरा दी। चीखते हुए बोली—“फातिमा, आकर साफ कर।” फातिमा दौड़ी, और जैसे ही सिर झुकाया, महफिल खामोश हो गई। उसकी आंखें, सांवली रंगत और सादगी ने सबका दिल जीत लिया। लड़के की मां ने पूछा—“ये लड़की कौन है?” चाची झूठ बोली—“हमारी नौकरानी है।” उसी वक्त उसका दिल जल उठा। मेहमान चले गए, मगर शाम को फातिमा पर गुस्से की आग बरस पड़ी। चाची ने थप्पड़ मारते हुए कहा—“हरामखोर, मना किया था कि बाहर मत आना, फिर क्यों आई?” फातिमा रोई—“चाची, आपने ही बुलाया था।” मगर किसी ने नहीं सुना। उस दिन उसके दिल पर ऐसा ज़ख्म लगा जो सालों तक नहीं भरा। चंद दिनों बाद चाची ने एक खतरनाक योजना बनाई। उसने गांव के एक नीच आदमी से बात की—“इसे कहीं दूर ले जा, हमेशा के लिए।” अगले दिन उसने कहा—“फातिमा, जा कुएं से पानी भर ला।” फातिमा घड़ा लेकर चली गई। कुएं से पानी भरकर जैसे ही मुड़ी, किसी ने पीछे से रुमाल मुंह पर रख दिया। वो तड़पी, मगर कुछ ही पल में बेहोश हो गई। आंखें खुलीं तो खुद को एक अंधेरे कमरे में पाया। हाथ बंधे थे, चारों तरफ सन्नाटा। उसने हाथ छुड़ाने की कोशिश की और किसी तरह रस्सी ढीली हो गई। दरवाज़ा खुला, तो बाहर घना जंगल था। वो भागी, पीछे से कदमों की आवाज़ आई। कांटे चुभे, मगर वो रुकी नहीं। तभी वो किसी से टकराई और बेहोश होकर गिर पड़ी। जब होश आया, तो अस्पताल में थी। सामने एक नौजवान खड़ा था, जो चिंतित निगाहों से उसे देख रहा था। उसने कहा—“घबराइए नहीं, आप अब सुरक्षित हैं। वो आदमी जो आपको उठा ले गया था, वो आपकी चाची का नाम ले रहा था।” फातिमा के होंठ कांप उठे। उसकी आंखों से आंसू झरने लगे। “मेरी चाची ने ही…?” वो बमुश्किल बोल पाई। नौजवान बोला—“मैंने पुलिस को खबर दी, मगर वो भाग गया। फिलहाल आप यहां रहिए।” उसका नाम शहरोज था। उसने फातिमा को अपने घर ले जाकर जगह दी। धीरे-धीरे फातिमा के जख्म भरने लगे, मगर दिल का दर्द कायम था। शहरोज की हवेली बड़ी थी, मगर दिल उससे भी बड़ा। वो फातिमा से इंसानियत के नाते पेश आता, मगर कब वो मोहब्बत में बदल गई, उसे खुद भी पता नहीं चला। एक दिन उसने कहा—“फातिमा, मैं तुमसे शादी करना चाहता हूं। तुम्हारी आंखों में जो सब्र है, वही मेरे दिल को छू गया।” फातिमा ने पहली बार किसी पर भरोसा किया और हामी भर दी। उनकी शादी सादगी से हुई, मगर उसमें सुकून था। शहरोज ने कहा—“अब तुम्हारे माजी के सारे जख्म मैं मिटा दूंगा।” वक्त गुज़रा, अल्लाह ने उन्हें एक बेटे से नवाज़ा। हवेली में हंसी गूंजने लगी। फातिमा अब उस दर्दनाक अतीत से दूर थी। मगर किस्मत के खेल खत्म नहीं हुए थे। गांव में चाची की बेटी नजमा की शादी हुई थी, मगर वो रिश्ता लालच पर टिका था। कुछ ही महीनों में उसे तलाक दे दिया गया। वो मायके लौटी, और अपनी मां से लड़ती रही—“सब आपकी वजह से हुआ! अगर आपने फातिमा को ना सताया होता, तो अल्लाह का कहर हम पर न आता।” चाची की आंखों में पछतावे की लकीरें गहरी होती गईं। उसे याद आने लगा जब अस्मा बुखार में तड़प रही थी और उसने मदद नहीं की थी। उसे याद आया जब उसने फातिमा को मार डालने की कोशिश की थी। एक दिन नजमा की तबीयत बिगड़ गई। तेज बुखार और दर्द से वो तड़पती रही, मगर डॉक्टर भी कुछ न कर सका। उसने भी उसी तरह दम तोड़ दिया, जैसे सालों पहले अस्मा ने तोड़ा था। चाची चीख-चीख कर रोने लगी। उसका दिल अंदर से टूट गया। गुनाह का बोझ उस पर हावी हो गया। कुछ दिनों बाद उसे फालिज का अटैक आया और वो बिस्तर पर गिर पड़ी। अब वो लाचार थी, बेबस थी, और हर लम्हा एक ही नाम पुकारती—“फातिमा… फातिमा…” शहरोज ने फातिमा से कहा—“उन्हें माफ कर दो। जो भी हुआ, अल्लाह के हुक्म से हुआ।” फातिमा बोली—“ठीक है, मैं उनसे मिलने जाऊंगी।” अगले दिन वो अपने बेटे के साथ उस घर पहुंची, जहां कभी उसने दर्द झेला था। चाची को देखा—कमज़ोर, सिसकती हुई, और आंखों में पश्चाताप। जैसे ही फातिमा पास पहुंची, चाची ने कांपते हाथ जोड़ दिए—“मुझे माफ कर दो, मैंने तुम्हारे साथ बहुत जुल्म किया, मुझे सुकून नहीं मिलता।” फातिमा की आंखों में आंसू आ गए। उसने नरमी से कहा—“चाची, मैंने आपको माफ कर दिया। अल्लाह भी आपको माफ करे।” बस यही सुनते ही चाची की आंखें बंद हो गईं। उसने आख़िरी सांस ली और दुनिया छोड़ दी। कमरे में सन्नाटा छा गया। फातिमा के दिल में ग़म था, मगर कहीं न कहीं सुकून भी था। आखिरकार, इंसाफ हुआ था। अल्लाह ने उसके सब्र का फल दे दिया था। वो घर लौटी, बेटे को सीने से लगाया और आसमान की तरफ देखा—“अम्मा, आज आपके बच्चों पर अल्लाह ने रहमत की है।” हवेली में अब रोशनी थी, फातिमा की जिंदगी में चैन था, और सबक ये कि सब्र करने वालों के लिए हमेशा इंसाफ होता है, चाहे देर ही क्यों न लगे। अगर आपको ये कहानी अच्छी लगी हो, तो दिल से दुआ करें—कि दुनिया की हर फातिमा को उसका सुकून मिले, और कोई बच्ची यूं बेबस होकर अपनी मां की कब्र के पास न बैठे।
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