अरबपति ने एक बेघर लड़के को पुल के नीचे दूसरे बच्चों को पढ़ाते हुए देखा – कहानी आगे कैसे बढ़ती है?
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पुल के नीचे जलता दीया
1. मुंबई की शाम और एक अनोखी झलक
मुंबई, जहाँ सपनों की कीमत अक्सर जेब में रखे पैसों से तय होती है। ऊँची-ऊँची इमारतों की छाया में पलने वाले कई अरमान रोज़ दम तोड़ देते हैं। लेकिन कुछ जिद्दी दीये होते हैं, जो तूफानों में भी जलते रहते हैं।
शाम के पाँच बज रहे थे। लोअर परेल का फ्लाईओवर, जहाँ ट्रैफिक का विशाल सागर ठहरा हुआ था। इसी भीड़ के बीच एक सिल्वर रंग की जगुआर कार खड़ी थी। पिछली सीट पर देश के मशहूर टेक्सटाइल टाइकून, 55 वर्षीय अविनाश साहनी बैठे थे। चेहरे पर सफलता की चमक थी, लेकिन आँखों में तनाव। उनका जीवन नफे-नुकसान के तराजू पर टिका था। उनके लिए सफलता का मतलब था बैंक बैलेंस के बढ़ते हुए शून्य।
गाड़ी इंच-इंच करके रेंग रही थी। झुंझलाहट में अविनाश ने खिड़की का पर्दा हटाया और बाहर देखने लगे। बाहर की दुनिया उन्हें हमेशा गंदी और शोरगुल वाली लगती थी। लेकिन आज पुल के नीचे का दृश्य कुछ अलग था। करीब 15-20 बच्चे फटी हुई प्लास्टिक की बोरियों पर बैठे थे। उनके कपड़े मैले थे, बाल बिखरे हुए। लेकिन सबकी नज़रें एक लड़के पर थीं—चंदन। मुश्किल से 14 साल का, हवाई चप्पल, पुरानी टी-शर्ट, घुटनों तक सिली हुई पैंट। लेकिन उसकी आँखों में अजीब सा तेज था।
चंदन के हाथ में कोई चौक नहीं थी। उसने सड़क किनारे पड़ा सफेद पत्थर उठा लिया था। वह काले खंभे को ब्लैकबोर्ड की तरह इस्तेमाल कर रहा था। पूरे उत्साह से हिंदी वर्णमाला लिख रहा था। ट्रैफिक के शोर के बावजूद अविनाश ने शीशा थोड़ा और नीचे किया, तो चंदन की बुलंद आवाज़ सुनाई दी—”हौसले से हार नहीं होती!” बच्चों ने कोरस में दोहराया। जब एक छोटी बच्ची ने सही जवाब दिया, चंदन ने अपनी जेब से बिस्किट का एक छोटा पैकेट निकाला और उसमें से एक बिस्किट उस बच्ची को दे दिया। वह बिस्किट शायद उसका अपना खाना था, जिसे वह खुद न खाकर बच्चों को प्रोत्साहन देने में लगा था।
अविनाश का गुस्सा और तनाव पल भर के लिए गायब हो गया। वह बस उस लड़के को देखते रहे, जो उस गंदे खंभे को ज्ञान के मंदिर में बदल रहा था। तभी ट्रैफिक खुला और गाड़ी आगे बढ़ गई। लेकिन वह तस्वीर अविनाश के दिमाग में छप चुकी थी।
2. महल की तन्हाई और दिल की बेचैनी
साहनी विला के संगमरमर के फर्श और विदेशी झूमरों से सजे बंगले में अविनाश पहुंचे, तो वहाँ हमेशा की तरह खामोशी थी। लेकिन आज उन्हें यह महल सोने का पिंजरा लग रहा था। उनके दिमाग में अभी भी फ्लाईओवर के नीचे का वह काला खंभा और चंदन का मुस्कुराता चेहरा घूम रहा था।
डाइनिंग हॉल में बहस हो रही थी। उनका पोता समर, 15 साल का, गुस्से में खाने की प्लेट खिसका रहा था। “मुझे नहीं पढ़ना उस ट्यूटर से, वो बहुत बोरिंग है डैड। मेरा नया आईपैड कहाँ है? मुझे प्रो मॉडल चाहिए!”
अविनाश ने बर्बाद हुए खाने को देखा और उन्हें वह आधा बिस्किट याद आ गया, जो चंदन ने अपनी भूख मारकर उस छोटी बच्ची को दिया था। उन्होंने समर से कहा, “तुम्हारे पास दुनिया की सबसे बेहतरीन किताबें हैं, गैजेट्स हैं, फिर भी पढ़ाई बोरिंग लगती है?”
समर ने लापरवाही से कंधे उचकाए। “दादू, आप नहीं समझेंगे, पढ़ाई स्ट्रेस देती है।”
अविनाश मुस्कुराए, “शायद मैं नहीं समझूंगा, क्योंकि मैंने आज असली पढ़ाई कहीं और देखी है।” वो बिना खाना खाए अपने कमरे में चले गए। उस रात उन्हें नींद नहीं आई। एक तरफ उनका अपना खून था, जो सब कुछ पाकर भी नाशुक्रा था, दूसरी तरफ वह अनजान अनाथ बच्चा था, जो कचरे के ढेर में भी उम्मीद के फूल खिला रहा था।
3. एक अरबपति का फैसला
अगले दिन ऑफिस जाने के बजाय अविनाश ने अपने ड्राइवर से कहा, “गाड़ी लो और परेल की तरफ चलो। उसी फ्लाईओवर के नीचे।” शाम का वही वक्त था। गाड़ी जब फ्लाईओवर के करीब पहुंची, तो अविनाश ने उसे दूर ही रुकवा दिया। वह पैदल उस पिलर के पास गए, बिना अपनी रईसी का रौब दिखाए।
लेकिन आज वहाँ का नजारा कल जैसा शांत नहीं था। कुछ बच्चे डरे हुए कोने में दुबके थे। उनकी फटी बोरियां और किताबें बिखरी पड़ी थीं। एक पुलिस कांस्टेबल डंडा लिए खड़ा था और चंदन को धमका रहा था—”यह सरकारी जगह है, तेरे बाप का स्कूल नहीं। भाग यहाँ से वरना अंदर कर दूंगा सबको!”
चंदन डरा हुआ था, लेकिन वह भागा नहीं। वह बच्चों के सामने ढाल बनकर खड़ा हो गया। “साहब, बस आधा घंटा और, आज गणित का पाठ पूरा होने वाला है। प्लीज साहब, ये बच्चे अभी गिनती सीख रहे हैं।”
कांस्टेबल का दिल नहीं पसीजा। उसने चंदन का गिरेबान पकड़ लिया। तभी एक भारी आवाज गूंजी—”हाथ छोड़ो उसका!” कांस्टेबल ने पलट कर देखा, सामने अविनाश साहनी खड़े थे। उन्होंने अपना विजिटिंग कार्ड दिखाया—”मैं वो हूँ जो एक फोन घुमा दे तो तुम्हारी वर्दी उतर सकती है। बच्चे को छोड़ो।”
कांस्टेबल का चेहरा पीला पड़ गया। उसने तुरंत चंदन का कॉलर छोड़ दिया और सैल्यूट मारते हुए वहाँ से चला गया।

4. चंदन की सच्चाई और पहली मदद
बच्चे डर से बाहर आ गए। चंदन अपनी फटी शर्ट ठीक करते हुए अविनाश को देख रहा था। उसके लिए यह कोई सपना जैसा था। अविनाश ने बिखरी किताबें उठाने में मदद की। चंदन ने पैर छूने की कोशिश की, लेकिन अविनाश ने उसे रोका—”कपड़े गंदे होने से धुल जाते हैं बेटा, लेकिन अगर विद्या का अपमान हो जाए तो वह दाग कभी नहीं धुलता।”
उन्होंने पूछा, “तुम खुद एक बच्चे हो, तुम्हारी उम्र खेलने-कूदने की है। अगर तुम ट्रैफिक सिग्नल पर भीख मांगते या फूल बेचते तो शायद ज्यादा पैसे कमा लेते, फिर यह सब क्यों?”
चंदन ने कहा, “भीख मांगकर मैं पेट तो भर सकता हूँ, लेकिन भूख तो रोज़ लगती है। मेरे पापा अनपढ़ थे, एक्सीडेंट में मर गए क्योंकि अस्पताल का फॉर्म भरना नहीं आता था। माँ बीमार रहती है। मुझे समझ आ गया साहब कि गरीबी से निकलने का रास्ता किताब के पन्नों से होकर जाता है। अगर मैंने इन्हें नहीं पढ़ाया तो कल ये भी मेरी तरह सिग्नल पर खड़े होंगे।”
अविनाश सन्न रह गए। उन्होंने नोटों की गड्डी निकालकर चंदन की ओर बढ़ाई, “यह लो, इससे बच्चों के लिए किताबें और खाना ले आना।”
लेकिन चंदन ने हाथ जोड़ दिए, “माफ करना साहब, पैसे नहीं चाहिए। अगर आपने पैसे दिए तो मुझे आदत पड़ जाएगी। फिर मैं मेहनत करना छोड़ दूंगा और दान का इंतजार करूंगा। अगर मदद करनी है तो कुछ ऐसा दीजिए जो खत्म ना हो। मुझे एक असली ब्लैक बोर्ड चाहिए और थोड़ी चौक।”
उस छोटी सी मांग ने अविनाश के दिल को झकझोर दिया।
5. पहला स्कूल और एक नई शुरुआत
अगली शाम जब चंदन और उसके साथी बच्चे पिलर के पास जमा हुए, तो वहाँ का नजारा बदला हुआ था। लोडिंग टेम्पो से नया हरा ब्लैकबोर्ड, चौक के डिब्बे, कॉपियों के बंडल, पेंसिलें और साफ-सुथरी दरियां उतारी गईं। बच्चों के लिए यह किसी खजाने से कम नहीं था। चंदन की आँखें फटी की फटी रह गईं।
पीछे से अविनाश साहनी आए, साधारण कुर्ता-पायजामा पहने। “कैसा लगा मेरा तोहफा मास्टर जी?” चंदन दौड़ कर आया और अविनाश के कदमों में गिर पड़ा। “बाबूजी, आपने तो हमारे लिए स्कूल बना दिया। मैं आपका यह एहसान जिंदगी भर नहीं भूलूंगा।”
अविनाश ने उसे गले लगाया, “यह एहसान नहीं है बेटा, यह निवेश है। मैं बिजनेसमैन हूँ, कभी घाटे का सौदा नहीं करता। बस एक वादा करो, प्रणय कभी मत छोड़ना।”
उस दिन अविनाश ने खुद ब्लैकबोर्ड पर चौक उठाई और बच्चों को गणित पढ़ाया। फ्लाईओवर के नीचे देश का एक अरबपति गरीब बच्चों को हिसाब-किताब सिखा रहा था। लेकिन वो सिर्फ अंकों का गणित नहीं था, वो जिंदगी का गणित था।
6. समर का असली पाठ
अगली सुबह अविनाश ने समर से कहा, “कल सुबह 6 बजे तैयार रहना, तुम मेरे साथ एक बिजनेस ट्रिप पर चल रहे हो।”
समर ने सोचा, “लंदन, दुबई या सिंगापुर?” लेकिन गाड़ी फ्लाईओवर के नीचे रुकी। समर को घिन आ रही थी, लेकिन दादाजी के आदेश के आगे उसकी बोलती बंद थी।
चंदन और बाकी बच्चे पहले से मौजूद थे। समर ने हिकारत भरी नजरों से देखा—फटे कपड़े, बिखरे बाल, नंगे पैर। “मैं इन भिखारियों के साथ बैठूंगा कभी नहीं।” समर ने चिल्लाया।
अविनाश ने समर का हाथ कसकर पकड़ा, “तुम्हारे पास दो रास्ते हैं, या तो यहाँ दो घंटे बैठो और देखो कि असली दुनिया कैसे चलती है, या फिर आज से तुम्हारा पॉकेट मनी, गाड़ियाँ, गैजेट्स सब बंद।”
समर गुस्से में बच्चों से दूर बैठ गया। क्लास शुरू हुई। एक छोटे बच्चे की पेंसिल गंदे पानी में गिर गई। समर ने अपनी जेब से महंगी पेन फेंक दी—”रो मत, यह ले।” लेकिन बच्चा नहीं उठा। चंदन ने बिना हिचकिचाहट के कीचड़ में हाथ डालकर पेंसिल निकाल ली—”पेन की स्याही तो खत्म हो जाएगी, लेकिन पेंसिल को छीलकर हम और लिख सकते हैं। चीजों की कद्र करना सीखो।”
समर के लिए यह एक तमाचा था। बारिश शुरू हो गई। बच्चे अपनी किताबें और ब्लैकबोर्ड बचाने में जुट गए। समर ने देखा कि चंदन अपनी फटी शर्ट उतारकर ब्लैकबोर्ड को ढक रहा था। समर ने अपनी महंगी जैकेट उतारी और कॉपियों के ऊपर लपेट दी। “खराब हो जाने दो चंदन, यह सिर्फ कपड़ा है। लेकिन अगर इनकी मेहनत खराब हो गई तो वह बाजार में नहीं मिलेगी।”
उस दिन समर ने बच्चों के साथ मिलकर सारा सामान सुरक्षित किया। भीगते हुए, कीचड़ से लथपथ, समर के चेहरे पर पहली बार सुकून भरी मुस्कान थी।
7. दोस्ती, शिक्षा और बदलाव
समर ने बच्चों से माफी मांगी—”मैंने तुम लोगों को भिखारी समझा, लेकिन असली रईस तो तुम लोग हो।” चंदन ने अपना टिफिन बढ़ाया—”भैया, भूख लगी होगी, खा लो।”
समर ने गणित का सवाल हल किया और बच्चों को सिखाया। अब वह हर शाम अपनी कोचिंग छोड़कर उस सड़क के स्कूल में आने लगा। उसने अपने पिता और दादाजी को मनाकर बच्चों के लिए एक छोटी सी जगह किराए पर ली, ताकि बारिश या धूप में उनकी पढ़ाई न रुके।
धीरे-धीरे साल बीतते गए। मुंबई की सड़कें बदल गईं। लेकिन अविनाश साहनी के दिल में उस दिन की यादें आज भी ताजा थीं।
8. 12 साल बाद: ज्ञानदीप विद्यालय
बारह साल बाद, शहर के बीचों-बीच एक भव्य इमारत—ज्ञानदीप विद्यालय। उद्घाटन समारोह था। मीडिया, उद्योगपति, राजनेता मौजूद थे। मंच पर समर भाषण दे रहा था—”लोग पूछते हैं कि मैंने हार्वर्ड या ऑक्सफोर्ड छोड़कर भारत में शिक्षा पर काम क्यों चुना? क्योंकि मुझे बिजनेस मेरे दादाजी ने सिखाया, लेकिन जीना मुझे मेरे एक दोस्त ने सिखाया। असली अमीर वह है, जो दूसरों की खाली झोली भर दे।”
मंच पर चंदन आया, अब एक सफल युवा और इस स्कूल का प्रिंसिपल। “अगर उस दिन बाबूजी की गाड़ी वहाँ न रुकती, और समर भैया ने हाथ न बढ़ाया होता, तो आज भी हम अंधेरे में खोए होते।”
अविनाश की आँखों से खुशी के आँसू बह निकले। दौलत और गरीबी की दीवार हमेशा के लिए ढह चुकी थी। भीड़ भव्य इमारत को देख रही थी, लेकिन अविनाश उस नींव को देख रहे थे, जो एक बिस्किट के टुकड़े और एक फटी हुई जैकेट से रखी गई थी।
9. अंतिम संदेश
सच ही कहा है—दुनिया में कोई इतना अमीर नहीं कि अपना बीता हुआ कल खरीद सके, और कोई इतना गरीब नहीं कि अपना आने वाला कल न बदल सके। बस जरूरत है एक हाथ की, जो गिरने वाले को थाम सके।
समाप्त
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