नर्स उस लावारिस बूढ़ी औरत की देखभाल करती थी, दो महीने बाद उसका अरबपति बेटा उसे खोजने आया।
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“कविता और अम्मा – एक निस्वार्थ सेवा की अनकही कहानी”
क्या इंसानियत का कोई मोल होता है? क्या इस दौड़-भाग भरी दुनिया में कोई किसी अजनबी के लिए अपनी नींद और चैन त्याग सकता है? और अगर कोई ऐसा करता है, तो क्या उस सेवा और त्याग का कोई सिला मिलता है?
यह कहानी है कविता की – एक साधारण सी नर्स, जिसके लिए उसकी ड्यूटी सिर्फ एक नौकरी नहीं, बल्कि एक इंसानियत का मिशन थी। यह कहानी है एक लावारिस बूढ़ी अम्मा की, जिन्हें समाज ने मरने के लिए छोड़ दिया था। और यह कहानी है अरबपति राजीव मेहरा की, जो अपने ऐशोआराम के पीछे अपनी सबसे कीमती चीज़ – अपनी मां को खो बैठा था।
दिल्ली के एक सरकारी अस्पताल में 28 वर्षीय कविता पिछले पाँच सालों से सेवा दे रही थी। राजस्थान के एक छोटे गांव से आई कविता का सपना बस इतना था कि अपने बूढ़े माता-पिता की देखभाल कर सके और अपने छोटे भाई की पढ़ाई पूरी करवा सके।
एक सर्द रात अस्पताल में एक बूढ़ी महिला को पुलिस एंबुलेंस द्वारा लाया गया। वे अचेतावस्था में थीं, ब्रेन हैमरेज से पीड़ित और कोमा में चली गई थीं। उनके पास कोई पहचान पत्र, फोन या दस्तावेज़ नहीं था। उन्हें लावारिस घोषित कर बेड नंबर 24 पर डाल दिया गया।
बाकी स्टाफ के लिए वह सिर्फ एक बेड नंबर थी। लेकिन कविता के लिए वह एक मां थीं। जब कविता ने उनके चेहरे की झुर्रियों को देखा तो उसे अपनी मां की याद आ गई। उस पल से उसने उनकी सेवा का संकल्प ले लिया। वह उन्हें “अम्मा” कहकर बुलाने लगी।
डॉक्टरों ने कह दिया था कि बचने की उम्मीद नहीं है। लेकिन कविता ने हार नहीं मानी। हर रोज़ वह अम्मा की सफाई करती, खाना ट्यूब से देती, बातें करती, उन्हें हनुमान चालीसा सुनाती, और रोज़ दुआ करती कि अम्मा की आंखें खुल जाएं।
जहां दूसरी नर्सें उसे ताना देतीं, “क्या करेगी इतनी सेवा? कोई नहीं है उसका!” वहीं कविता मुस्कुरा कर कहती, “इसीलिए तो हम हैं। एक नर्स का काम सिर्फ दवा देना नहीं, सेवा करना भी होता है।”
उसे यह नहीं पता था कि हजारों मील दूर लंदन में एक बेटा अपनी मां को पागलों की तरह ढूंढ रहा है।
राजीव मेहरा – 32 साल का युवा उद्योगपति, मेहरा ग्रुप ऑफ इंडस्ट्रीज का मालिक – अपनी मां श्रीमती शांति देवी से बेहद प्यार करता था। लेकिन व्यस्तता और दौलत की चमक में उसने मां को अकेला छोड़ दिया था। एक झगड़े के बाद शांति देवी घर से निकलीं और गायब हो गईं।
राजीव ने हर संभव प्रयास किया – प्राइवेट डिटेक्टिव, पुलिस, अखबार, टीवी पर इश्तिहार – लेकिन दो महीने तक मां का कोई पता नहीं चला। फिर एक दिन एक गुमनाम सुराग मिला – कि एक वृद्ध महिला दो महीने पहले एक सड़क दुर्घटना के बाद एक सरकारी अस्पताल में भर्ती कराई गई थीं।
राजीव बिना समय गंवाए अस्पताल पहुंचा। पूछताछ की, तस्वीर दिखाई, लेकिन कोई जानकारी नहीं मिली। तभी एक वार्ड बॉय ने कहा, “साहब, ये तो बेड नंबर 24 वाली लावारिस अम्मा हैं।”
राजीव के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। दौड़ता हुआ वह जनरल वार्ड में पहुंचा। दूर से देखा – मशीनों से घिरी एक कमजोर महिला। वही उसकी मां थीं।
लेकिन उसी पल उसकी नजर पड़ी कविता पर, जो अम्मा के माथे पर गीला कपड़ा रख रही थी और कह रही थी, “अम्मा, देखिए, आपके लिए ताजे गेंदे के फूल लायी हूं। जल्दी से आंखें खोल दीजिए।”
राजीव की आंखें भर आईं। वार्ड बॉय बोला, “साहब, आपकी मां जिंदा हैं तो सिर्फ कविता दीदी की वजह से। इन्होंने ही उन्हें अम्मा नाम दिया और बेटी की तरह सेवा की है।”
राजीव कविता के पास गया और हाथ जोड़ते हुए कहा,
“मैं राजीव मेहरा हूं। ये मेरी मां हैं – श्रीमती शांति देवी।”
कविता चौंक गई। “आपकी मां? तो आप इतने दिन कहां थे?”
राजीव ने सिर झुका लिया – “लंदन में था… मुझे बहुत बड़ी गलती का एहसास है। लेकिन आपने जो किया, उसके लिए मैं आपका कर्जदार हूं।”
वह चेकबुक निकाल कर एक बड़ी रकम देने लगा।
कविता ने विनम्रता से मना कर दिया –
“साहब, मैंने सेवा पैसों के लिए नहीं की। अगर आप सच में कुछ करना चाहते हैं, तो बस दुआ कीजिए कि अम्मा ठीक हो जाएं।”
राजीव स्तब्ध था – इतनी निस्वार्थ सेवा, इतना स्वाभिमान! उसने तुरंत अपनी मां को प्राइवेट अस्पताल में शिफ्ट कराया, और वहीं एक बड़ा फैसला लिया।
अस्पताल डीन को बुलाकर कहा,
“मैं अपनी मां के नाम पर इस शहर में एक शांति देवी चैरिटेबल हॉस्पिटल बनवाऊंगा – जहां गरीबों और लावारिसों का मुफ्त इलाज होगा। और उसकी डायरेक्टर होंगी कविता जी।”
कविता घबरा गई – “मैं? मैं तो एक मामूली नर्स हूं।”
राजीव मुस्कुराया –
“जो बिना किसी रिश्ते के इतना कर सकता है, उससे बड़ी जिम्मेदारी कोई नहीं निभा सकता। आपकी इंसानियत ही आपकी सबसे बड़ी काबिलियत है।”
राजीव ने कविता की आगे की पढ़ाई, हॉस्पिटल मैनेजमेंट का कोर्स और विदेश में ट्रेनिंग का सारा खर्च उठाने की घोषणा की।
कुछ महीने बाद शांति देवी ठीक हो गईं। जब उन्हें सारी सच्चाई पता चली, तो उन्होंने रोते हुए कविता को गले लगा लिया –
“तू मेरी बेटी है। जो मेरा बेटा नहीं कर सका, तूने कर दिखाया।”
2 साल बाद, दिल्ली के बीचों-बीच एक भव्य अस्पताल खुला – “शांति देवी चैरिटेबल हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर” – और उसकी डायरेक्टर थीं कविता शर्मा।
वही कविता, जो कभी मामूली तनख्वाह में जी रही थी, अब हजारों ज़रूरतमंदों की उम्मीद बन चुकी थी। लेकिन उसकी सादगी और दयालुता ज्यों की त्यों थी। वह आज भी हर मरीज को “अम्मा” या “बाऊजी” कहकर बुलाती थी।
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