हल्की बारिश हो रही थी, जब राजन की अर्थी को मिट्टी दी जा रही थी। छोटा सा काला छाता भी उस औरत के दिल का अकेलापन छिपाने के लिए काफी नहीं था। लगभग चालीस साल का साथ अब बस एक गीली कब्र और मुट्ठीभर ठंडी मिट्टी में सिमट चुका था। उस दिन वह काँपते हाथों से अगरबत्ती जलाते हुए सोच भी नहीं सकती थी कि पति की मौत के बाद उसकी ज़िंदगी एक और दर्दनाक मोड़ लेने वाली है।
अभी सात दिन भी नहीं बीते थे कि उसका बड़ा बेटा रवि—जिस पर राजन को सबसे ज़्यादा भरोसा था—घर की चाबियाँ अपने हाथ में ले चुका था। सालों पहले, जब राजन स्वस्थ थे, उन्होंने अपनी पत्नी से कहा था:
“हम बूढ़े हो गए हैं। सब कुछ बेटे के नाम कर दो। वही ज़िम्मेदारी संभालेगा।”
एक माँ ने बिना सोचे सब कुछ बेटे को सौंप दिया—घर, ज़मीन, दस्तावेज़—सब। उसे लगा यही स्वाभाविक है। आखिर माता-पिता अपने बच्चों पर ही तो भरोसा करते हैं।
लेकिन पति की मौत के सातवें दिन ही सच्चाई सामने आ गई। रवि उसे टहलने के बहाने बाहर ले गया और लखनऊ के किनारे एक ऑटो-रिक्शा स्टैंड पर गाड़ी रोक दी। ठंडे स्वर में बोला:
“यहीं उतर जाओ। अब हम तुम्हारा खर्चा नहीं उठा सकते। आगे से अपना ख्याल तुम खुद रखना।”
वह सुनकर स्तब्ध रह गई। कानों में घंटियाँ बज रही थीं, आँखों के सामने अंधेरा छा गया। सड़क किनारे, एक शराब की दुकान के पास, सिर्फ एक छोटे से कपड़े के थैले के साथ वह बेसुध बैठी रही। वह घर—जहाँ उसने अपना जीवन बिताया था, पति और बच्चों की परवरिश की थी—अब उसका नहीं था।
लोग कहते हैं, “पति के जाने के बाद भी संतान सहारा होती है।” लेकिन कभी-कभी संतान होना, न होने के बराबर होता है। उसे अपने ही बेटे ने बेसहारा सड़क पर छोड़ दिया था।
लेकिन रवि नहीं जानता था कि उसकी माँ पूरी तरह असहाय नहीं थी। राजन और उसने मिलकर जीवनभर की मेहनत से तीन करोड़ रुपये से भी अधिक बचाए थे, जो एक बैंक पासबुक में छिपे थे। न किसी बच्चे को पता था, न किसी और को। राजन कहा करते थे:
“लोग तभी अच्छे होते हैं, जब तुम्हारे हाथ में कुछ हो।”
उस दिन उसने ठान लिया—न तो भीख माँगेगी, न अपना राज़ खोलेगी। वह देखना चाहती थी कि ज़िंदगी और रवि उसके साथ कैसा बर्ताव करते हैं।
संघर्ष की शुरुआत
पहली रात उसने एक चाय की दुकान के छज्जे के नीचे बिताई। दुकान की मालकिन, आंटी लता, ने दया दिखाकर गरम चाय दी। उसने बताया कि पति गुजर गए और बेटे ने छोड़ दिया। आंटी ने बस आह भरकर कहा:
“बहन, अब ऐसे हालात आम हैं। बच्चे कभी-कभी पैसों को माँ-बाप के प्यार से ऊपर रखते हैं।”
उसने बाज़ार के पास एक छोटा सा कमरा किराए पर लिया। पासबुक का ब्याज ही उसके गुज़ारे के लिए काफी था। लेकिन उसने कभी किसी को अपने पैसों का सच नहीं बताया। पुराने कपड़े पहनती, सस्ती रोटी-दाल खाती और साधारण जीवन जीती ताकि कोई उस पर ध्यान न दे।
रात को अक्सर यादें उसे तोड़ देतीं। पुराने घर की छत का पंखा, पति के हाथों की मसाला चाय की खुशबू—सब याद आता। पर वह खुद से कहती: “जब तक साँस है, आगे बढ़ना ही होगा।”
धीरे-धीरे उसने काम करना शुरू किया। मंडी में सब्ज़ियाँ धोना, बोरे उठाना, सामान पैक करना—जो भी छोटा-मोटा काम मिलता, वह करती। लोग उसे “सज्जन श्रीमती शांति” कहकर बुलाने लगे। कोई नहीं जानता था कि हर रात वह अपने किराए के कमरे में लौटकर अपनी बचत की किताब देखती और फिर छिपा देती। वही उसका असली सहारा था।
बेटे की गिरावट
उसे रवि की खबरें मिलती रहती थीं। बड़ा घर, नई कार—लेकिन जुए और सट्टे में लिप्त। धीरे-धीरे उसने ज़मीन भी गिरवी रख दी। माँ का दिल दर्द से कराहता, पर उसने उससे कोई संबंध न रखने का निश्चय किया। जिसने माँ को सड़क पर छोड़ दिया, उसके लिए शब्द भी व्यर्थ थे।
एक दिन रवि का शराबी दोस्त ढाबे पर उससे मिलने आया, जहाँ अब वह अपनी पुरानी सहेली मीरा के परिवार के साथ काम कर रही थी। उसने गुस्से से कहा:
“तुम रवि की माँ हो? उस पर हमारे लाखों रुपये बकाया हैं। वह छिपा हुआ है। अगर तुम उससे प्यार करती हो, तो उसकी मदद करो।”
वह चुप रही, बस हल्के से बोली:
“मैं बहुत गरीब हूँ, मेरे पास देने को कुछ नहीं है।”
दोस्त चला गया, लेकिन उसके दिल में तूफ़ान छोड़ गया। वह सोचती रही—क्या बेटे को उसके हाल पर छोड़ देना ही न्याय है?
आख़िरी मोड़
कुछ महीने बाद, रवि खुद उसके सामने आ खड़ा हुआ। दुबला-पतला, टूटा हुआ, आँखों में आँसू। देखते ही घुटनों के बल गिर पड़ा:
“माँ, मैं ग़लत था। मुझे माफ़ कर दो। अगर तुमने मुझे बचाया नहीं, तो मेरा पूरा परिवार बर्बाद हो जाएगा।”
उस पल उसके दिल में भावनाओं का सैलाब उमड़ पड़ा। उसे वो दिन याद आया जब बेटे ने निर्दयता से उसे सड़क पर छोड़ दिया था। लेकिन उसे पति के शब्द भी याद आए:
“जो भी हो, वह हमारा बेटा ही है।”
लंबी चुप्पी के बाद, वह कमरे में गई और पासबुक लेकर लौटी। तीन करोड़ रुपये से अधिक की बचत बेटे के सामने रख दी। उसकी आँखें शांत लेकिन कठोर थीं:
“ये पैसे तेरे माँ-बाप ने ज़िंदगी भर की मेहनत से बचाए थे। मैंने इन्हें इसलिए छुपाया क्योंकि मुझे डर था कि तू इनकी कद्र नहीं करेगा। अब मैं इन्हें तुझे दे रही हूँ। पर याद रख—अगर तूने माँ के प्यार को फिर कुचला, तो चाहे तेरे पास कितना भी पैसा क्यों न हो, तू कभी अपना सिर ऊँचा नहीं रख पाएगा।”
रवि काँपते हाथों से पासबुक थामे फूट-फूटकर रो पड़ा।
समापन
वह जानती थी कि शायद बेटा बदलेगा, शायद नहीं। लेकिन एक माँ के नाते उसने अपना आख़िरी कर्तव्य निभा दिया। उसका राज़—जीवनभर की बचत—सही समय पर उजागर हुआ।
यह कहानी सिर्फ़ एक औरत की नहीं, बल्कि उन तमाम माताओं की है जो अपना सब कुछ संतान पर न्यौछावर कर देती हैं। संदेश साफ़ है—बच्चों से प्यार करो, लेकिन अपना सब कुछ कभी मत सौंपो। क्योंकि कभी-कभी माँ का छुपाया हुआ राज़ ही उसकी सबसे बड़ी ताक़त होता है।
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