बेटे ने अपनी बूढ़ी माँ को घर से निकाल दिया, अगले दिन जब पड़ोसी उसके घर आया तो…

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खून से बढ़कर इंसानियत: शांति देवी और धर्मेंद्र की कहानी

जब खून के रिश्ते दौलत की चमक के आगे फीके पड़ जाते हैं, तब इंसानियत का असली रंग सामने आता है। क्या होता है जब एक मां की ममता और उसके सालों के त्याग का मोल एक आलीशान घर की दीवारों से कम हो जाता है? यह कहानी है एक ऐसे बेटे की, जो अपनी बूढ़ी मां को बोझ समझ बैठा। और एक ऐसे पड़ोसी की, जिसने इंसानियत का रिश्ता खून के रिश्ते से ऊपर रखा।

रामकृष्ण लेन की पुरानी गली

लखनऊ शहर की एक पुरानी, शांत और मध्यमवर्गीय गली थी रामकृष्ण लेन। इस गली में ज्यादातर पुराने घर थे, जहां लोग एक-दूसरे के सुख-दुख में शरीक होते थे। इसी गली के बीचोंबीच एक पुराना लेकिन मजबूत दो मंजिला मकान था। बाहर लगी संगमरमर की तख्ती पर लिखा था “शांति कुंज”। यह घर था स्वर्गीय सरदार वल्लभ सिंह का, जिन्होंने अपनी पूरी जिंदगी की मेहनत से इसे बनवाया था।

अब इस घर में उनकी 80 साल की विधवा, शांति देवी रहती थीं। उनके चेहरे पर पड़ी झुर्रियां उनके जीवन के संघर्षों की गवाही देती थीं। लेकिन उनकी आंखों में आज भी ममता और संतोष की गहराई थी। शांति कुंज उनके लिए सिर्फ ईंट-पत्थर का ढांचा नहीं, बल्कि उनके पति की आखिरी निशानी, बच्चों की बचपन की यादों का गवाह और उनका स्वाभिमान था।

शांति देवी का परिवार

शांति देवी के दो बच्चे थे—एक बेटी, जो शादी के बाद बेंगलुरु में रहती थी, और एक बेटा रमेश। रमेश लगभग 45 साल का था और शहर के नगर निगम में क्लर्क था। वह अपनी पत्नी मीना और दो बच्चों रोहन और रिया के साथ उसी घर में रहता था।

पहले रमेश एक अच्छा और फरमाबरदार बेटा था, लेकिन शादी के बाद खासकर मीना के प्रभाव में आकर वह पूरी तरह बदल गया। मीना एक लालची, झगड़ालू और छोटी सोच वाली महिला थी। उसके लिए रिश्ते-नाते कोई मायने नहीं रखते थे; उसकी दुनिया केवल पैसे और दिखावे के इर्द-गिर्द घूमती थी। उसे अपनी बूढ़ी सास से नफरत थी, और वह उसे घर में बोझ समझती थी।

घर में बढ़ता तनाव

मीना अक्सर शांति देवी को ताने देती, अपमानित करती। शुरू में रमेश अपनी मां का पक्ष लेता था, लेकिन धीरे-धीरे मीना के दबाव में वह भी घुटने टेक गया। अब उसे भी मां बोझ लगने लगी थी। वह चाहता था कि घर को बेचकर शहर के किसी पॉश इलाके में एक शानदार फ्लैट खरीदे, जहां वह अपनी पत्नी और बच्चों के साथ मॉडर्न जिंदगी जी सके। लेकिन मां के नाम पर घर होने की वजह से वह बेच नहीं सकता था। यह बात दोनों पति-पत्नी के दिलों में कांटे की तरह चुभ रही थी।

पड़ोसी धर्मेंद्र की इंसानियत

शांति देवी सब कुछ समझती थीं। वह अपने बेटे और बहू के बदलते व्यवहार को देखकर अंदर ही अंदर घुटती थीं, लेकिन कभी किसी से कुछ नहीं कहती थीं। वह नहीं चाहती थीं कि घर की बात बाहर जाए और उनका अपमान हो। वह बस चुपचाप अपने कमरे में बैठकर पति की तस्वीर को देखती और रोती रहतीं।

शांति कुंज के ठीक सामने एक छोटा सा एक मंजिला पुराना घर था। वहां रहता था धर्मेंद्र श्रीवास्तव, 40 साल का एक सादगी भरा इंसान। वह सरकारी दफ्तर में मामूली चपरासी था। उसकी दुनिया में उसकी पत्नी सुधा और 10 साल का बेटा अंशु था। उनका परिवार गरीब था, लेकिन दिल से अमीर था।

धर्मेंद्र शांति देवी को अपनी मां की तरह मानता था। वह जानता था कि उन्होंने कितनी मेहनत और त्याग से अपने बच्चों को पाला है। वह देख रहा था कि अब उनके अपने ही घर में उनके साथ कैसा बर्ताव हो रहा है, और उसका दिल दुखता था। वह और उसकी पत्नी सुधा जब भी मौका मिलता, शांति देवी का हाल-चाल पूछते, अपने घर से कुछ अच्छा बनाकर उनके लिए भेजते।

एक अंधेरी और तूफानी रात

अगस्त की एक अंधेरी रात थी। आसमान में काले बादल थे और तेज हवाएं चल रही थीं। उसी रात शांति कुंज में भी तूफान आया। रमेश और मीना ने सारी हदें पार कर दी थीं। वे मिलकर शांति देवी पर चिल्ला रहे थे, उन्हें गालियां दे रहे थे।

मीना चीख रही थी, “यह बुढ़िया ऐसे नहीं मानेगी। इसे आज ही इस घर से बाहर निकालो। या तो यह रहेगी या मैं।”

रमेश भी अपनी पत्नी की हां में हां मिला रहा था। “मां, मैं तुमसे आखिरी बार कह रहा हूं, चुपचाप इन कागजों पर अंगूठा लगा दो और घर मेरे नाम कर दो, वरना नहीं।”

शांति देवी ने कमजोर लेकिन दृढ़ आवाज में कहा, “यह घर मेरे पति की निशानी है। मैं इसे नहीं बेचूंगी। मैं मर जाऊंगी, लेकिन इसे तुम्हारे नाम नहीं होने दूंगी।”

यह सुनकर रमेश का खून खौल उठा। उसने अपनी बूढ़ी, कांपती हुई मां का हाथ पकड़कर उसे घसीटते हुए बाहर सड़क पर धक्का दे दिया और दरवाजा बंद कर लिया।

शांति देवी गिर पड़ीं। उनके घुटने छिल गए। ज्यादा दर्द उन्हें अपनी चोट से नहीं, बल्कि बेटे के इस व्यवहार से हो रहा था। तभी जोर की बारिश शुरू हो गई। वह भीगती हुई अपने ही घर के बंद दरवाजे को देखती रहीं, उनकी आंखों से आंसू बह निकले। उन्हें लगा जैसे आज वह अपने घर से नहीं, बल्कि अपनी जिंदगी से बेदखल हो गईं।

धर्मेंद्र की मदद

यह सारा मंजर धर्मेंद्र ने अपने घर की खिड़की से देखा। उसका पूरा शरीर गुस्से और दुख से कांप रहा था। वह अब और खुद को रोक नहीं पाया। उसने अपनी पत्नी सुधा से कहा, “मैं इंसानियत को इस तरह मरते हुए नहीं देख सकता।”

वह छाता और शॉल लेकर बाहर भागा, शांति देवी को उठाया, उनके सिर पर छाता लगाया और कंधों पर शॉल डाली।

“मां जी, आप मेरे साथ चलिए।”

“नहीं बेटा, मैं अपने घर के सामने ही मरना चाहती हूं।”

धर्मेंद्र ने जबरदस्ती उन्हें सहारा दिया, कहा, “जब तक आपका यह बेटा जिंदा है, आपको कुछ नहीं होगा।”

वह उन्हें अपने घर ले आया। सुधा ने उनके भीगे कपड़े बदले और उन्हें गर्माहट दी। उस छोटी सी झोपड़ी जैसे घर में उस रात शांति देवी को पनाह मिली।

धर्मेंद्र का साहसिक फैसला

अगली सुबह धर्मेंद्र के दिमाग में भी तूफान चल रहा था। वह जानता था कि वह शांति देवी को हमेशा के लिए अपने घर पर नहीं रख सकता। उसका घर छोटा था और आमदनी कम। सबसे बड़ी बात, वह उन्हें उनके हक और स्वाभिमान से वंचित नहीं करना चाहता था।

उसने एक साहसिक फैसला किया। वह सीधे रमेश के घर पहुंचा और दरवाजा खटखटाया।

रमेश ने दरवाजा खोला। धर्मेंद्र को देखकर वह हैरान हुआ, लेकिन शर्मिंदगी नहीं थी।

धर्मेंद्र ने कहा, “रमेश बाबू, मैं आपकी मां को खरीदने आया हूं।”

रमेश को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। धर्मेंद्र ने कहा, “मैं बकवास नहीं, सौदा करने आया हूं। आप और आपकी पत्नी मां जी को बोझ समझते हैं, है ना? आप यह घर बेचना चाहते हैं ताकि बड़ी जिंदगी जी सकें। ठीक है, मैं आपको यह जिंदगी दूंगा।”

धर्मेंद्र ने अपनी जेब से एक फाइल निकाली। “यह मेरे घर के कागजात हैं। मैं यह घर और अपनी पूरी तनख्वाह आपके नाम करने को तैयार हूं।”

रमेश और मीना अविश्वास से देखते रहे।

धर्मेंद्र ने दो शर्तें रखीं:

    मां जी को पूरा जीवन मेरी देखभाल में सौंप देंगे, उनसे कोई हक नहीं जताएंगे। आज से वह मेरी मां हैं।
    शांति कुंज इसी नाम से रहेगा, आप रह सकते हैं लेकिन इसे कभी नहीं बेचेंगे। यह घर मां की अमानत है।

रमेश और मीना को लगा जैसे उन्हें लॉटरी लग गई हो। बिना कुछ किए उन्हें आमदनी मिल रही थी और मां से छुटकारा भी।

उन्होंने तुरंत हां कर दी। कानूनी कागजात तैयार किए गए। धर्मेंद्र ने अपनी पूरी जिंदगी की कमाई उस मां के नाम कर दी, जिसे उसने जन्म नहीं दिया था।

नया परिवार, नया जीवन

जब शांति देवी को यह पता चला तो वह रो पड़ीं। धर्मेंद्र ने कहा, “मैंने मां कमाई है।”

शांति देवी धर्मेंद्र के घर में एक सदस्य बन गईं। धर्मेंद्र, सुधा और अंशु उनकी सेवा करते जितनी शायद रमेश ने कभी नहीं की थी। शांति देवी को लगने लगा जैसे उन्हें नया परिवार मिला है। उनके चेहरे पर फिर से रौनक लौट आई।

समय का पहिया

सात साल गुजर गए। धर्मेंद्र चपरासी से क्लर्क बन गया। अंशु बड़े इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ रहा था। शांति देवी बूढ़ी और कमजोर हो गईं, लेकिन प्यार और देखभाल से खुश थी।

रमेश की दुनिया उजड़ चुकी थी। मीना ने पैसों को फिजूल खर्ची में उड़ा दिया। रमेश को सट्टे और शराब की लत लग गई। उसने नौकरी भी खो दी। घर खंडर जैसा दिखने लगा। बच्चे बिगड़ गए।

पछतावा और माफी

एक दिन भूख और बीमारी से लाचार रमेश धर्मेंद्र के दरवाजे पर आया। धर्मेंद्र ने उसे अंदर बुलाया, सुधा ने खाना दिया।

शांति देवी कमरे में सो रही थीं। उन्होंने रमेश की आवाज सुनी, “मां, मुझे माफ कर दो।”

रमेश ने मां को बिस्तर पर लेटा देखा और फूट-फूट कर रोया। शांति देवी ने कहा, “मैंने तो तुझे उसी दिन माफ कर दिया था।”

धर्मेंद्र और सुधा दरवाजे पर खड़े यह सब देख रहे थे।

रमेश ने धर्मेंद्र के पैर छूकर कहा, “तुम महान हो।”

धर्मेंद्र ने कहा, “महान तो मां होती है, और कर्मों का हिसाब होता है। मैंने इंसानियत का फर्ज निभाया।”

नई शुरुआत

रमेश ने मां की सेवा करना शुरू किया। धर्मेंद्र ने उसे अपनी किराने की दुकान पर काम दिया ताकि वह इज्जत से कमाई कर सके।

कुछ महीनों बाद शांति देवी अपने दोनों बेटों के प्यार और सेवा को पाकर शांति से इस दुनिया से विदा हो गईं।

सीख और संदेश

यह कहानी सिखाती है कि मां-बाप हमारी जिंदगी की सबसे कीमती दौलत हैं। जो उनकी कदर नहीं करते, किस्मत उन्हें सड़क पर ला खड़ा करती है। यह कहानी धर्मेंद्र जैसे गुमनाम नायकों को सलाम करती है, जो साबित करते हैं कि इंसानियत का रिश्ता खून से ऊपर होता है।