नौकरानी के प्यार में पड़कर पत्नी को तलाक दे दिया, और नौकरानी सारा माल लेकर भाग गयी, फिर जो हुआ

हीरा और काँच – आदित्य, राधिका और माया की कर्म–कथा

प्राक्कथन
जब दृष्टि पर वासना, अहंकार और ऊब की धुंध जम जाती है तो व्यक्ति मूल्यांकन की क्षमता खो देता है: हीरा साधारण कंकड़ लगने लगता है और काँच हीरे का भ्रम पैदा करता है। यह कहानी उस भ्रम की है—एक शिक्षित, सफल पुरुष आदित्य की—जिसने सुविधा, नवीनता और क्षणिक आकर्षण के लिए जीवन के सबसे स्थायी स्तंभ—विश्वास, निष्ठा और परिवार—को तुच्छ मान लिया। यह कहानी राधिका की भी है—जिसने अपमान और त्याग की राख से स्वयं को फिर से गढ़ा। और यह कथा माया के छल की है—जो व्यक्ति नहीं बल्कि वह ‘जाल’ है जिसमें गिरकर लोग अपने चरित्र का असली स्तर प्रकट करते हैं। अंततः यह कथा ‘कर्म’ के अदृश्य लेखा–जोखा की साक्षी बनती है।

अस्वीकरण (संक्षेप):

    कहानी में दर्शाई माया जैसे पात्रों का उद्देश्य किसी वर्ग (घरेलू सहायक, ग्रामीण लड़कियाँ आदि) का सामान्यीकरण नहीं; वह एक विशिष्ट धूर्त चरित्र है।
    कथा का ध्येय नैतिक पतन और आत्म–पुनर्निर्माण पर प्रकाश डालना है, न कि स्त्री–विरोध या वर्ग–द्वेष।

अध्याय 1: वसंत विहार का स्वप्न–महल
दिल्ली के उच्चवर्गीय वसंत विहार की चौड़ी सड़क पर, सफेद संगमरमर के स्तंभों वाला “कृष्णा विला” धूप में पुते देवालय जैसा चमकता था। सुव्यवस्थित लॉन, कारपोर्ट में तीन चमचमाती गाड़ियाँ, गुलमोहर की छाया में रखी झूलती कुर्सी—यह सब आदित्य की सफलता की जिंदा प्रदर्शनी था।
आदित्य—लगभग चालीस—रॉयल फ़ैब्रिक्स का मालिक। उसकी वाणी में कॉर्पोरेट ठहराव, चाल में विजय का दंभ और आँखों में ‘अब और क्या?’ की बेचैनी। सफलता का प्लेटफॉर्म उसने विरासत की नींव पर निज परिश्रम की ऊपरी मंज़िल जोड़कर बनाया था—पर इस ऊँचाई ने उसे भावनात्मक स्थिरता से दूर कर दिया।

अध्याय 2: राधिका – गंवाई नहीं, सहेजी हुई ‘संस्कारिता’
राधिका—पैंतीस—एक रिटायर्ड प्रोफेसर की पुत्री, साहित्य में परास्नातक। शादी के बाद उसने आकांक्षाओं को “घर की शांति” की वेदी पर समर्पित कर दिया। दिन का व्याकरण:
सुबह ब्रह्ममुहूर्त जप – रसोई – बच्ची (पिया) को तैयार – आदित्य की फाइलें क्रमवार – दोपहर व्यवस्थापन – संध्या दीप – रात्रि सबके सोने के बाद अपनी पुरानी किताबें चुपके से सहलाना।
वह ‘पुराने ढंग’ की नहीं थी; वह बस ‘प्राथमिकताओं का चयन’ करने वाली थी। पर आदित्य ने उसकी स्थिरता को जड़ता मान लिया—क्योंकि उसकी स्वयं की इंद्रियों को नवीनता की उत्तेजना चाहिए थी।

अध्याय 3: ऊब का मूक प्रसार
उच्चवर्गीय पार्टियाँ—कॉकटेल, अंग्रेज़ी में तीखे हँसी–व्यंग्य, चमकदार पोशाकें। आदित्य को निगाहें कहतीं—“तुम सफल हो।” पर भीतर दूसरी आवाज़—“तुम्हारी पत्नी इस सामाजिक तमाशे में फिट नहीं।”
राधिका ने कभी रोका नहीं—पर वह ‘प्रदर्शन आधारित निकटता’ में सहज नहीं थी। आदित्य ने इस ‘अदर्शिता’ को ‘कमतरता’ का लेबल दे दिया। यही विचार बाद में माया के लिए उपजाऊ धरती बना।

अध्याय 4: माया का प्रवेश
माया—इक्कीस–बाईस के बीच, दुबली, चपल, बड़े आँखें जो “निर्दोष” का आवरण पहनने में प्रशिक्षित। स्वयं को ‘अनाथ, छोटी बहन की पढ़ाई हेतु संघर्षरत’ बताते हुए प्रस्तुत किया।
राधिका ने मानवतावश उसे रख लिया—एक कोना, एक लोहे का बिस्तर, दो जोड़ी कपड़े, भोजन।
शुरुआत: समय पर झाड़ू–पोंछा, धीमी चाल, आवाज़ में सम्मान। राधिका ने ‘विश्वास’ नाम का द्वार खोल दिया—माया ने देखा—“घर के ताने–बाने में प्रवेश बिंदु मिल गया।”

अध्याय 5: सूक्ष्म मनो–रणनीति
माया की रणनीति स्तरों में थी:

    दृश्य–उत्तेजना: हल्के तंग सलवार/टी–शर्ट, झुक कर काम (आदित्य घर पर हो तो रसोई में वस्त्र प्रबंधन बदल जाता)।
    भाषिक मधुरता: “साहब आप बहुत थक जाते होंगे… कोई पूछता नहीं… मैं पैर दबा दूँ?”
    तुलनात्मक बीज रोपण: “भाभी जी बहुत अच्छी हैं… बस आपको समझती कम हैं।” (प्रशंसा–विष–मिश्रित वाक्य)
    नियंत्रित अव्यवस्था: खाने में नमक–मिर्च असंतुलित करना; प्रेस किए कपड़े पर हल्का दाग गीले कपड़े से छिड़क कर फैला देना।
    त्वरित सुधारक भूमिका: समस्या के बाद तुरंत ‘रक्षक’ बनना—“भाभी जी व्यस्त होंगी—आप भूखे मत रहिए।”
    यह ‘समस्या उत्पन्न–समाधान उपलब्ध’ चक्र आदित्य के अवचेतन में “माया = ध्यान रखने वाली” का न्यूरल लिंक बनाता गया।

अध्याय 6: आदित्य का गिरता विवेक
पहले असहज दृष्टि—फिर ठहराव—फिर स्वीकृति—फिर सक्रिय तलाश। वह माया की उपस्थिति खोजने लगा। उसके ऑफिस से लौटने का घर्य: “आज क्या नया प्रदर्शन?”
राधिका ने संकेत पकड़े—वह बोली—“उसकी निगाहें सही नहीं।”
आदित्य—“तुम्हारी समस्या यह है कि तुम आधुनिक नहीं। हर युवा लड़की तितली–सी खुली रहती है। तुम असुरक्षित हो।”
यह ‘रक्षात्मक प्रतिक्रिया’ वस्तुतः ‘अपराधभावना–पूर्व निषेध’ थी।

अध्याय 7: विवाहिक दरार का चौड़ा होना
घर संवाद में कटौती:
पहले: “प्रेजेण्टेशन कैसी रही?” “ठीक।”
अब: मौन + मोबाइल स्क्रीन + माया की धीमी खनकती आवाज़ रसोई से।
राधिका ने “काउंसलिंग” जैसा शब्द सोच भी नहीं सकती थी—वह पीढ़ीगत संस्कारों में विवाह को ‘एकतरफा धैर्य के माध्यम से स्थिर’ मानती।
माया ने देखा—“राधिका अब रक्षात्मक—अगला चरण: निर्वासन।”

अध्याय 8: पतन–बिंदु (नैतिक अनर्थ)
एक रात आदित्य शराब में भीग कर लौटा—माया ने पहले ही कमरे की बत्ती मंद, सुगंधित मोमबत्ती, हल्का संगीत। राधिका ने उसे सहारा देना चाहा—धक्का—“हटो… तुम मुझे थका देती।”
वह लड़खड़ाता माया के कमरे—जहाँ “भारतीय निरीह नौकरानी” का आवरण हटकर “लक्षित मोहकता” का अभिनय सक्रिय था—एक रेखा लाँघ गई।
अगली सुबह राधिका ने दोनों को एक ही परिप्रेक्ष्य में पाया—उसकी धमनियों में बर्फ़ की नदी बह गई।
“आपने…?”
आदित्य (निर्लज्जता से तर्क गढ़ते): “जो मृत है उसे तोड़े बिना भी खत्म कहा जा सकता। हमारा रिश्ता सालों पहले मर गया।”
राधिका—“आप पिता हैं… पति हैं… यह पिया…”
“उसे बोर्डिंग भेज देंगे। मुझे जीवन चाहिए।”

अध्याय 9: निष्कासन
राधिका ने पहली बार तीव्रता दिखाई—माया के बाल पकड़ खींचना। आदित्य ने ‘नैतिकता–रहित संरक्षण’ की मुद्रा—“माया को हाथ लगाया तो बुरा होगा। इस घर से तुम जाओगी।”
धक्के—दरवाज़ा—आठ साल की पिया रोती—“मम्मा…”
राधिका सड़क किनारे धूप में, हाथ में एक कपड़ा, पिया को सीने से भींच—पीछे बंद होता दरवाज़ा। माया भीतर परदे की ओट से मुस्कुराती—‘योजना चरण–1 पूर्ण।’

अध्याय 10: त्वरित दूसरी शादी
कानूनी प्रक्रिया—तुरंत वकील—‘क्रूरता का दोष’ गढ़े गए (माया द्वारा निर्देशित ‘घरेलू असंवेदनशीलता’ के छोटे–छोटे नोट्स)। राधिका ने प्रतिवाद नहीं किया—उसने युद्धक्षेत्र छोड़ ‘स्वाभिमान–पुनर्निर्माण’ चुना।
हफ्ते भर में आदित्य–माया रजिस्ट्रार कार्यालय।
कर्मचारी ने मौन देखा—“अचानक?”—आदित्य ने चेकबुक दिखाते मुस्कुराहट—“समय बर्बाद नहीं करता।”

अध्याय 11: भ्रमित स्वर्ग
6 महीने—माया ‘प्रोजेक्टेड परफेक्शन’:

सुबह स्वास्थ्य पेय “साहब आपकी ऊर्जा।”
दोपहर मीटिंग सुझाव “यह क्लाइंट पिछली बार चिड़चिड़ा था—टाई हल्का रंग ले जाइए।” (अंदरूनी दस्तावेज़ों को ताक–झाँक से जुटाए इनसाइट)
संध्या अंतरंगता–आधारित कृतज्ञता प्रदर्शन।
धीरे–धीरे हस्ताक्षर–अधिकार: कंपनी के ऑनलाइन बैंकिंग में नॉमिनी, पावर ऑफ़ अटॉर्नी ड्राफ्ट (वह बोली—“अगर आपको कुछ… मैं अनाथ—सुरक्षा चाहिए”)।
पिया को—“बोर्डिंग उसकी प्रोग्रेस के लिए”—असल कारण: माँ की शेष छाप हटाना।

अध्याय 12: माया का ग्रैंड फ़िनाले
छठा महीना—लेखा परीक्षक की चेतावनी (लिक्विडिटी परिवर्तित)—आदित्य व्यस्त, प्रतिवेदन अनदेखा।
एक चुनी रात—माया ने सुगंधित भोजन + शराब (नींद की गोलियों मिश्रित) परोसा। आदित्य अर्ध–अवचेतन।
उसने व्यवस्थित: गहने, नकद, डिजिटल टोकन एक्सेस नोट्स, संपत्ति मूल डीड्स, कंपनी के संवेदनशील आपूर्तिकर्ता अनुबंध प्रतिलिपियाँ।
बिस्तर किनारे नोट—काँच–हीरा रूपक—अपमान सूक्तियाँ।
रात्रि–बस → पटना → आगे (तय).

अध्याय 13: पतन का प्रातः
आदित्य जागा—सिर भारी। घर निर्जीव: अलमारियाँ खुली, दराज खाली, लॉकर की स्टील पर खरोंच।
नोट—हर वाक्य उसके भ्रम को कुचलता—“तुमने हीरे को काँच समझा—अब काँच तुम्हारी नसों में।”
फोन—माया स्विच ऑफ़।
अगले दिनों में बैंक ईमेल—“असामान्य निकासी”—कर्जदाता कॉल—डिफॉल्ट। संपार्श्विक नीलामी। बंगला—नीलामी सूची में।
केवल भौतिक ही नहीं—सामाजिक पूँजी भी गिरती: नेटवर्क में फुसफुसाहट—“कंपनी अस्थिर—व्यक्तिगत जीवन कांड।”

अध्याय 14: सड़क – अहं का निर्वासन
आदित्य को एक किराये की कोठरी भी न बची। फुटपाथ—मंदिर सीढ़ी—बस टर्मिनल।
वह निर्माण स्थल पर दिहाड़ी—पहली बार हथेली पर ईंट का खुरदरा वजन, धूल फेफड़ों को चुभती।
रात में ख़याल—राधिका का शांत चेहरा—उसका धैर्य—अपनी आवाज़—“तुम जलती हो”—अब गूँजते व्यंग्य।
दो वर्ष—काया कृश, चेहरे पर समय की तीखी लकीरें।

अध्याय 15: अंतरदृष्टि का पुनर्जागरण
दूसरे वर्ष के अंतिम तिमाही में, बैठे–बैठे उसने स्व–संवाद—“दंड निष्क्रिय विनाश नहीं; सक्रिय प्रायश्चित विकल्प बन सकता है। मैं भागा करता रहा। अब लक्ष्य: सत्य पुनर्स्थापन, न्यायिक प्रक्रिया।”
स्मृति से एक संकेत उभरा—माया कभी अनायास बोली थी—“हमारे मधुबनी इलाके में मेहंदी खूबसूरत लगती…” और कलाई की तितली टैटू। यही सूक्ष्म क्लू अब कम्पास।

अध्याय 16: शिकायत और रणनीति
उसने इकोनॉमिक ऑफ़ेंस विंग में विस्तृत शिकायत—समयसारिणी, खाता विवरण, हस्ताक्षर पैटर्न, माया की पहचान विवरण (अब ऊपरी रूपांतरण संभाव्यता)।
दर्ज हुआ—पर “जांच समय लेगी।”
उसने अलग मार्ग—स्वयं खोज + पुलिस सहयोग मॉडल। छोटी पूँजी से पुराना स्मार्टफोन खरीदा—नोट्स ऐप में परत–दर–परत घटनाक्रम (ताकि कथ्य सुसंगत)।

अध्याय 17: मधुबनी की खोज
ट्रेन—भीड़—हाथ में थैला—मन में ‘पश्चाताप + संकल्प’।
ग्राम–कस्बा परत–दर–परत—अधिकांश ने “नहीं”—कुछ ने “एक लड़की पैसों के साथ लौटी—पार्लर खोला।”
यात्रा–वर्णन: धूल भरी गली, आधे झुके बैनर, उखड़ी दीवार पर पान की धार।
आख़िर ‘मयाज़ मेकओवर’ साइन—आधुनिक फ़ॉन्ट, भीतर चकाचौंध एलईडी।

अध्याय 18: सामना
काउंटर पर वह—भूतपूर्व ‘माया’—अब ‘मयाज़’—रेशमी परिधान, नकली अभिजात्य मुद्रा।
आदित्य—दिहाड़ी मज़दूर जैसे वस्त्र में—भीतर उठता ज्वार—पर स्वर संतुलित—“धोखाधड़ी समाप्त करने चला आया। बाहर टीम इंतज़ार में।”
माया का भय–मिश्रित तंज—“भिखारी बनकर न्याय?”
तभी स्थानीय पुलिस (पूर्व सूचना पर) दाख़िल—पहचान, गिरफ्तारी।
पूछताछ में—उसका ‘मॉड्यूल’: अमीर विवाहिता लक्ष्य, भावनात्मक शोषण, संपत्ति नियंत्रण, गायब। अन्य पीड़ितों के संकेत भी उभरे—मामला विस्तृत हुआ।

अध्याय 19: न्यायिक परिणति
दिल्ली वापस—मुकदमा—चार्जशीट में डिजिटल ट्रेल, हस्ताक्षरित पावर, गवाह (बैंक क्लर्क, गार्ड)।
माया ने पहले नकारा—फिर साक्ष्यों पर ‘प्लीड’। अदालत ने 7 वर्ष कठोर कारावास (धोखाधड़ी, आपराधिक विश्वासभंग, संपत्ति हड़पने के सम्मिलित प्रावधान)।
आदित्य को ‘वित्तीय क्षतिपूर्ति’ का कुछ भाग—पर वह मुख्य नहीं—यह नैतिक ‘रिस्टोरेशन’ था: राधिका पर लगा “विफल पत्नी” का आरोप परोक्ष रूप से ध्वस्त।

अध्याय 20: राधिका का पुनर्निर्माण
तलाक के बाद राधिका ने सुप्त आकांक्षाएँ पुनर्जीवित: बी.एड., शिक्षण, उत्कृष्ट प्रदर्शन से पदोन्नति—स्कूल प्रधानाचार्य।
उसने पिया को बोर्डिंग से निकाला—माँ–बेटी का छोटा किराया घर—दीवारों पर कविताएँ, समय सारिणी, विज्ञान परियोजनाएँ।
उसने स्वयं सहायता समूहों में वैवाहिक भावनात्मक अपमान पर सत्र लिए—“आत्म–मूल्य साथी की दृष्टि का निर्भर फल नहीं।”
उसे अधीरता से आदित्य की तलाश नहीं—उसने ‘स्व’ को प्राथमिक इकाई मान लिया।

अध्याय 21: पुनर्मिलन – बिना पुनर्संबंध
आदित्य स्कूल गेट—गार्ड द्वारा प्रताड़ित—“मैडम किसी से जल्दी नहीं मिलती।”
वह सड़क तल बैठ—उष्ण डामर की गर्मी—पीछे कारें—घंटों द्वार पर दृष्टि टिकाए।
शाम—काली–ग्रे कार—राधिका—प्रिंसिपल का बैज—परिपक्व संतुलन। उसने अजनबीयत देखी—फिर चेहरे का अवयव–संकेत—आश्चर्य।
आदित्य—उठने का प्रयास—घुटने काँपे।
“राधिका… गलती… क्षमा…”
राधिका की आँखों में द्वंद्व नहीं—क्योंकि निर्णय महीनों पहले—क्रोध का ताप समाप्त—शीतल विवेक।
“पिया बाहर आओ।”
छोटी किशोरी—“मम्मा यह अंकल?”
“यह तुम्हारे पिता हैं।”
वाक्य में शोक नहीं, न याचना—सरल सत्य का उद्घोष। उसने पीछे देखा तक नहीं—चली गई।
आदित्य ने पिया की पीठ पर पड़ती सोने की धूप को गायब होते देखा—उसका ‘कर्म–मिरर’ अंतिम बार चमका।

अध्याय 22: आत्म–परीक्षण का जीवन
आदित्य ने अब रोमानी पुनर्गठन का आग्रह नहीं किया—उसे स्पष्ट था:

क्षमा = संभव (राधिका के व्यवहार से प्रत्यक्ष)।
पुनर्संबंध = नहीं (विश्वास की टेक्टोनिक प्लेट खिसक चुकी)।
उसने शेष जीवन के लिए तीन ध्येय लिखे:

    आर्थिक पुनर्स्थापन पारदर्शी श्रम द्वारा।
    धोखाधड़ी पीड़ित सहायता नेटवर्क।
    पिया की शिक्षा हेतु नियमित, सम्मानजनक वित्तीय योगदान (कोर्ट–मान्य ट्रस्ट के माध्यम से ताकि व्यक्तिगत संपर्क थोपना न लगे)।

अध्याय 23: पुनरुद्धार की यात्रा
वह छोटे परामर्श अनुबंध (टेक्सटाइल प्रक्रियाएँ) लेने लगा। पुराने एकाउंटेंट ने सीमित विश्वास पर अवसर—“कागज़ी व्यवहार अब निष्कलंक रहेंगे।”
उसने एक एनजीओ से मिलकर ‘संबंधिक छल जागरूकता’ पर वेबिनार—“कौन–कौन से लाल संकेत: अचानक अतिशय प्रशंसा, समस्या उत्पत्ति–तत्काल समाधान पैटर्न, वित्तीय हस्ताक्षर जल्द।”
उसका स्वर अनुभव का अंशांकन—लोगों ने सुनना शुरू किया।

अध्याय 24: राधिका का दृष्टिकोण
किसी सत्र में एक शिक्षक ने राधिका से पूछा—“अगर वह पूर्णतः बदल जाए—क्या पुनः विवाह संभव?”
उत्तर—“समस्या सिर्फ उसकी त्रुटि नहीं, मेरी निष्ठा का अपमान और मेरी पहचान को वस्तु की तरह बदल देना था। मैंने नई आत्म–संरचना खड़ी कर ली—उसे फिर पुराने खंडहर वास्तु में बदलना स्वयं पर अन्याय होगा। वह पिता है—उसे पिता होने का उत्तरदायित्व निर्वाह करना है—बस।”
यह परिपक्वता श्रोताओं में प्रतिफलित—ताली नहीं—गंभीर अंतरावलोकन।

अध्याय 25: पिया का दृष्टि–कोण
पिया किशोरावस्था में माँ से पूछती—“पापा ने क्यों?”
राधिका—“कभी–कभी लोग अपने अंदर के रिक्त को बाहरी नवीनता से भरना चाहते—भ्रम होता—रिक्त बढ़ता। हम यह सीख लें कि अपने मूल्य की पुष्टि स्वयं करें।”
पिया ने निर्णय—सीमित पर विनम्र संवाद—“स्कोर पर ज़रूरत, सलाह”—भावनात्मक कोर माँ के पास। यह संतुलित सीमारेखा ने संभावित द्वंद्व को स्थिर रखा।

अध्याय 26: माया की रिहाई (भविष्य का प्रतिबिंब)
सात वर्षों के अंत में (कथा समयरेखा में आगे) माया रिहा—समाज तटस्थ—उसका नेटवर्क छिन्न–भिन्न। उसे अब वही संघर्ष जो उसने अन्य पर थोपा—इनकार—लेबल—अविश्वास।
कर्म चक्र ‘प्रतिगामी पीड़ा’ नहीं—‘अनुभव समरूपता’ से शिक्षा।

अध्याय 27: आदित्य की आंतरिक शांति
एक संध्या वह पुराने नीलाम बंगले के सामने रुका—अब कोई अन्य परिवार, बच्चे लॉन में दौड़ते। उसे हल्की पीड़ा—पर साथ संतोष—“वस्तु लौटाने योग्य; अंतर्दृष्टि परिस्थितियों से न खरीदी जा सकती न छीनी।”
उसने कागज़ पर अंतिम पंक्तियाँ लिखीं—“हीरा और काँच का अंतर चमक नहीं—दीर्घकालिक ठहराव है। मुझे अब प्रकाश की तीव्रता नहीं—उसकी गुणवत्ता पहचानना आया।”

अध्याय 28: कथा का तात्विक निष्कर्ष

    वासना + अहंकार + ऊब = निर्णयात्मक धुंध (Perception Distortion Equation)
    संबंधों का ह्रास ‘एक दिन का विश्वासघात’ नहीं—सूक्ष्म अनादर का संचयी परिणाम।
    पीड़ित (राधिका) का पुनर्निर्माण प्रतिशोध–चालित नहीं—स्व–सिद्धि–चालित—यही उसे अनुग्रह देता।
    अपराधी (आदित्य) का पछतावा तभी अर्थपूर्ण जब वह संरचनात्मक सुधार (जागरूकता कार्य, आर्थिक पारदर्शिता) में बदले।
    छलिया (माया) चरित्र ‘लिंग/वर्ग’ प्रतिनिधि नहीं—मानव लोभ का स्वरूप—जिसे पहचानने के लिए भावनात्मक सतर्कता आवश्यक।

उपसंहार
कहानी का “सुखान्त” पारंपरिक नहीं—कोई पुनर्विवाह, कोई मेल–गाथा नहीं। सुखान्त यह है कि:

एक स्त्री ने अपमान को पहचान की स्थायी दरार नहीं बनने दिया।
एक पुरुष ने अपनी पराजय को स्थायी पतन नहीं रहने दिया—उसे प्रायश्चित में ढाला।
एक बच्ची ने विकृत वैवाहिक गतिशीलता को अपनी भविष्य–परिभाषा नहीं बनने दिया।
एक छल प्रकरण ने सामाजिक चेतना में ‘लाल संकेत पहचान’ की नई परत जोड़ दी।

सीख (संक्षेप):

नवीनता के आकर्षण को ‘मूल्य’ समझने की भूल न करें।
प्रशंसा यदि असामान्य रूप से शीघ्र और अत्यधिक हो—सतर्कता।
विवाह/संबंध में संवाद की कमी विष को स्थान देती—मौन दीर्घकालीन शत्रु।
क्षमा = संभव; पुनर्स्थापन = वैकल्पिक, अनिवार्य नहीं।
आत्म–सम्मान की री–बार लगाने से पहले पुनर्संबंध का पुल नहीं बनाना चाहिए।
कर्म तात्कालिक नहीं—पर जब लौटता है तो शेष ‘संपत्ति’ सिर्फ अनुभूति (पछतावा/बोध) रह जाती—अतः पूर्व ही स्व–समीक्षा कर लेना बुद्धिमानी।

अंतिम दृश्य (कल्पना)
रात। हल्की बूंदाबांदी। राधिका अपनी छोटी खिड़की के पास बैठ, परीक्षा–उत्तर पुस्तिकाएँ जाँच रही। पिया भीतर पढ़ते–पढ़ते सो चुकी। दूर किसी सामुदायिक हॉल में आदित्य “संबंधिक नैतिकता” पर बोल रहा—दर्शक चुप। माया (अब अप्रसिद्ध) किसी अन्य शहर में नौकरी खोज रही—उसकी हथेली पर धुंधला पड़ता तितली टैटू समय की विडंबना।
हीरे की परख सूर्य की प्रखरता में नहीं—बरसात की मंद रोशनी में भी उसकी आभा स्थिर रहे—राधिका उसी स्थिर आभा का प्रतीक है।

(समाप्त)