बच्चे के पास फीस देने के लिए रूपए नहीं थे , फिर स्कूल टीचर ने जो किया देख कर इंसानियत रो पड़ी

एक गुमनाम गुरु का उजाला: रोहन, अग्निहोत्री जी और इंसानियत की जीत”
क्या ज्ञान का कोई मोल होता है? क्या एक बच्चे के सपनों की कोई कीमत लगाई जा सकती है? और क्या होता है जब गरीबी की एक दीवार एक मासूम के भविष्य के सामने आकर खड़ी हो जाती है? यह कहानी है एक ऐसे ही बच्चे की जिसकी आंखों में सितारे थे, दिल में पढ़ने का जुनून था, पर जेबें खाली थीं। यह कहानी है एक ऐसे स्कूल की जहां अनुशासन के नियम तो थे, पर शायद इंसानियत का पाठ पढ़ाया जाना बाकी था। और सबसे बढ़कर, यह कहानी है एक ऐसे गुमनाम गुरु की, जिसने अपनी पूरी जिंदगी की जमा पूंजी को दांव पर लगाकर शिक्षा के असली मतलब को जिंदा कर दिया।
बिसवान की धूल भरी गलियों से
उत्तर प्रदेश के विशाल मैदानों में बसे छोटे से कस्बे बिसवान की यह कहानी है। बिसवान एक ऐसा कस्बा था जो शहर बनने की कोशिश में अपने गांव होने का एहसास धीरे-धीरे खो रहा था। यहां पक्की सड़कें थीं, पर उन पर दौड़ती गाड़ियों से ज्यादा साइकिलें और बैलगाड़ियां नजर आती थीं। इसी कस्बे के बाहरी छोर पर, जहां खेत शुरू हो जाते थे, एक छोटी सी बस्ती थी। यहीं दिहाड़ी मजदूरी करने वाले लोग रहते थे। इन्हीं धूल भरी गलियों के एक छोटे से दो कमरों वाले घर में रहता था आठ साल का रोहन।
रोहन सरस्वती विद्या मंदिर की चौथी कक्षा का सबसे होनहार छात्र था। उसकी दुनिया किताबों, कागज और पेंसिल की खुशबू में बसती थी। उसके लिए स्कूल सिर्फ एक इमारत नहीं, बल्कि एक जादुई जगह थी, जहां हर दिन उसे कुछ नया सीखने को मिलता। उसकी आंखों में एक अजीब सी चमक थी—ज्ञान की प्यास से पैदा हुई चमक। गणित के मुश्किल सवाल हों या इतिहास की लंबी-लंबी कहानियां, रोहन हर विषय को ऐसे समझता जैसे वह कोई खेल हो।
उसके शिक्षक श्री अविनाश अग्निहोत्री अक्सर कहते थे कि रोहन जैसी प्रतिभा सालों में एक बार देखने को मिलती है। अग्निहोत्री जी के लिए पढ़ाना सिर्फ एक नौकरी नहीं, बल्कि तपस्या थी। वह बच्चों को सिर्फ किताबी ज्ञान नहीं, बल्कि जीवन के मूल्य भी सिखाते थे, और रोहन उनकी आंखों का तारा था। उन्हें यकीन था कि यह बच्चा एक दिन बहुत बड़ा आदमी बनेगा और पूरे बिसवान का नाम रोशन करेगा।
गरीबी की दीवार
रोहन का परिवार बहुत छोटा और गरीब था। पिता दीनदयाल दिहाड़ी मजदूर थे। वह कस्बे में बन रही नई इमारतों पर दिन भर पत्थर और सीमेंट ढोते थे। उनकी कमाई इतनी ही थी कि परिवार की दो वक्त की रोटी और रोहन की स्कूल की मामूली सी फीस निकल जाती थी। गरीबी जरूर थी, पर उस छोटे से घर में प्यार और संतोष की कोई कमी नहीं थी। दीनदयाल का बस एक ही सपना था—उनका बेटा पढ़ लिखकर साहब बने। वह नहीं चाहते थे कि रोहन भी उनकी तरह दिन भर धूप और धूल में अपनी जिंदगी खपाए। और रोहन इस सपने को पूरा करने के लिए अपनी पूरी जान लगा रहा था।
हादसा और अंधेरा
एक दिन कस्बे में सुबह से ही मूसलाधार बारिश हो रही थी। दीनदयाल काम पर गए, क्योंकि एक दिन की छुट्टी का मतलब था घर के चूल्हे का ठंडा पड़ जाना। वह एक निर्माणाधीन इमारत की चौथी मंजिल पर काम कर रहे थे। बारिश की वजह से जमीन पर फिसलन बहुत ज्यादा थी। अचानक उनका पैर फिसला और वे लोहे के सरियों और ईंटों के ढेर पर गिर पड़े। उनकी एक टांग बुरी तरह से टूट गई थी और सिर पर भी गहरी चोट आई थी। डॉक्टरों ने बताया कि ऑपरेशन करना पड़ेगा और कम से कम छह महीने तक वे बिस्तर से नहीं उठ पाएंगे।
घर का एकमात्र कमाने वाला अब बिस्तर पर था। जो थोड़ी बहुत जमा पूंजी थी, वो दीनदयाल के इलाज और दवाइयों में खर्च होने लगी। अरुणा ने दिन-रात एक करके सिलाई का काम बढ़ा दिया, पर उसकी अकेले की कमाई से घर का खर्च और दवाइयों का बोझ उठाना नामुमकिन सा था। घर में अक्सर फाकों की नौबत आने लगी। रोहन अब वह पहले जैसा हंसता खेलता बच्चा नहीं रहा था। उसने अपने पिता का दर्द और मां की लाचारी देखी थी। वह रातों को चुपके-चुपके अपनी मां को रोते हुए देखता और उसका छोटा सा दिल भारी हो जाता।
स्कूल की फीस और बेबसी
इसी बीच स्कूल में तिमाही फीस जमा करने की तारीख आ गई। फीस सिर्फ ₹500 थी, पर इस वक्त उस परिवार के लिए ₹500 भी लाख के बराबर थे। अरुणा ने हर दरवाजा खटखटाया, हर रिश्तेदार से उधार मांगा, पर गरीबी में कोई किसी का साथ नहीं देता। स्कूल से फीस जमा करने का नोटिस आया। रोहन ने वह नोटिस देखा और चुपचाप अपनी किताब में छिपा लिया। वह अपनी मां को और परेशान नहीं करना चाहता था। दिन बीतते गए, रोहन के दिल पर बोझ बढ़ता गया। उसका ध्यान अब पढ़ाई में नहीं लगता था। जो लड़का कभी हर सवाल का जवाब सबसे पहले देता था, वह अब चुपचाप सबसे पीछे की बेंच पर सिर झुकाए बैठा रहता।
गुरु की चिंता
अग्निहोत्री जी ने रोहन में आए इस बदलाव को तुरंत भांप लिया। उन्होंने देखा कि रोहन अब दोपहर में खाना भी नहीं खाता था, चुपचाप अपनी क्लास में बैठा रहता था। उसकी आंखों की चमक कहीं खो गई थी। एक दिन उन्होंने उसे अपने पास बुलाया। प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा, “क्या बात है, रोहन? आजकल तुम बहुत चुपचाप रहते हो। पढ़ाई में भी तुम्हारा ध्यान नहीं है। घर पर सब ठीक तो है?” रोहन की आंखें भर आईं, पर वह कुछ बोल नहीं पाया।
अपमान का दिन
फीस जमा करने की आखिरी तारीख आ गई। स्कूल के प्रिंसिपल श्री ज्ञानचंद कुर्मी बहुत सख्त और अनुशासनप्रिय व्यक्ति थे। उनके लिए नियम ही सब कुछ थे। उन्होंने क्लर्क मुंशीराम को निर्देश दिया कि जिन बच्चों की फीस जमा नहीं हुई है, उन्हें क्लास में ना बैठने दिया जाए। मुंशीराम ने जब चौथी कक्षा में रोहन का नाम पुकारा, पूरी क्लास में खामोशी छा गई। रोहन का चेहरा शर्म से लाल हो गया। उसे क्लास से बाहर निकाल दिया गया। अग्निहोत्री जी के लिए यह असहनीय था।
गुरु का धर्म
अग्निहोत्री जी ने प्रिंसिपल से विनती की कि रोहन की फीस माफ कर दी जाए, पर कुर्मी जी ने साफ मना कर दिया। अग्निहोत्री जी निराश और हताश होकर घर लौटे। पत्नी सुधा ने उन्हें समझाया, “जो आपका दिल कहता है वही कीजिए। हम अमीर नहीं हैं, लेकिन भगवान ने इतना तो दिया है कि किसी जरूरतमंद की मदद कर सकें।” अग्निहोत्री जी ने अपनी बेटी मीना की शादी के लिए जोड़ी गई जमा पूंजी में से ₹5000 निकाल लिए—रोहन की पूरे साल की फीस से भी ज्यादा।
गुमनाम दानदाता
अग्निहोत्री जी ने स्कूल जाकर मुंशीराम को फीस जमा कर दी और कहा कि किसी को पता न चले, खासकर प्रिंसिपल साहब और रोहन को। अगर कोई पूछे तो कह देना कि स्कूल की तरफ से किसी गुमनाम दानदाता ने मदद की है। अग्निहोत्री जी खुद रोहन के घर गए, उसे फीस की रसीद दी और स्कॉलरशिप की कहानी सुनाई। रोहन की आंखों से खुशी के आंसू बह निकले। उसके माता-पिता हाथ जोड़कर धन्यवाद करने लगे। अग्निहोत्री जी ने कहा, “यह मेरा फर्ज था, बस रोहन को पढ़ने से मत रोकना। यह लड़का एक दिन आपका नाम जरूर रोशन करेगा।”
सच का उजागर होना
कुछ महीने बाद, मुंशीराम के रिटायरमेंट की पार्टी में जब स्कूल के गिरते हुए आर्थिक स्तर की बात चली, मुंशीराम ने सबके सामने सच बता दिया कि वह गुमनाम दानदाता कोई और नहीं, अग्निहोत्री जी ही थे। उन्होंने अपनी बेटी की शादी के लिए जोड़े पैसे से रोहन की फीस भरी थी। यह सुनकर पूरा स्टाफ रूम सन्न रह गया। प्रिंसिपल कुर्मी जी को सबसे बड़ा झटका लगा। उन्हें अपनी संवेदनहीनता का एहसास हुआ। उन्होंने अग्निहोत्री जी से माफी मांगी।
इंसानियत की जीत
अगले दिन स्कूल की प्रार्थना सभा में प्रिंसिपल कुर्मी जी ने हजारों बच्चों और शिक्षकों के सामने अग्निहोत्री जी के त्याग की कहानी सुनाई। उन्होंने सार्वजनिक रूप से माफी मांगी और ऐलान किया कि आज से स्कूल में श्री अविनाश अग्निहोत्री मेधावी छात्र सहायता कोष की स्थापना की जाती है। अब पैसों की कमी की वजह से कोई भी रोहन अपनी पढ़ाई नहीं छोड़ेगा। पूरा मैदान तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।
संदेश
यह कहानी हमें सिखाती है कि एक शिक्षक का काम सिर्फ किताबें पढ़ाना नहीं होता, बल्कि जिंदगी बनाना होता है। यह हमें याद दिलाती है कि दुनिया में सबसे बड़ा धर्म इंसानियत है और सबसे बड़ी पूजा है किसी के सपनों को मरने से बचा लेना। हमारे समाज को आज श्री ज्ञानचंद कुर्मी जैसे प्रिंसिपलों की नहीं, बल्कि श्री अविनाश अग्निहोत्री जैसे गुरुओं की जरूरत है, जो अपनी तिजोरी नहीं, बल्कि अपना दिल खोलकर शिक्षा का दान करते हैं।
अगर इस कहानी ने आपके दिल के किसी कोने को छुआ है, तो इसे जरूर साझा करें। अपने उस शिक्षक का नाम बताएं जिन्होंने आपकी जिंदगी पर गहरी छाप छोड़ी हो। गुरु के सम्मान और निस्वार्थ सेवा का यह संदेश हर घर तक पहुंचे—यही इस कहानी का असली मकसद है।
धन्यवाद।
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