बुज़ुर्ग महिला को 7.06 लाख मिले, लौटाए तो डायरेक्टर ने कहा 3.36 लाख कम हैं–सच जानकर वह स्तब्ध रह गया

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कहानी: बुज़ुर्ग महिला को 7.06 लाख मिले, लौटाए तो डायरेक्टर ने कहा 3.36 लाख कम हैं–सच जानकर वह स्तब्ध रह गया

मुंबई के बाहरी इलाके की एक तंग गली में, दो कमरों के छोटे से घर में शांति देवी अपने पोते रोहन के साथ रहती थीं। उम्र 72 वर्ष, चेहरे पर झुर्रियां और संघर्ष की छाप। घर की दीवारों पर सीलन, छत में छेद, हर बारिश में बर्तन रखकर पानी रोकना पड़ता था। पति का देहांत जवानी में ही हो गया था, बेटे को मजदूरी करके पढ़ाया, लेकिन किस्मत ने फिर चोट दी। बेटे राजेश की एक दुर्घटना में मौत हो गई, बहू गरीबी से हारकर रोहन को छोड़ गई। तब से शांति देवी ने अकेले ही रोहन को पालना शुरू किया।

शांति देवी अब बूढ़ी हो चुकी थीं, कोई भारी काम नहीं कर सकती थीं। मजबूरी में कबाड़ बीनना शुरू किया। हर सुबह ठेली लेकर निकल जातीं—कूड़ेदानों में हाथ डालकर प्लास्टिक, कागज, कैन ढूंढतीं। रोहन ही उनकी प्रेरणा था। वह आज्ञाकारी और समझदार था, कभी अपनी गरीबी की शिकायत नहीं करता। त्योहारों में जब दोस्त नए कपड़े पहनते, घूमने जाते, रोहन घर के कोने में बैठकर पुरानी किताबें पढ़ता, जो दादी कूड़े से उठा लाती थीं।

एक दिन रोहन स्कूल से आया—उसकी क्लास पिकनिक पर जा रही थी। टीचर ने ₹500 जमा करने को कहा। रोहन ने झिझकते हुए पूछा, “क्या मैं जा सकता हूं?” फिर खुद ही बोला, “अगर पैसे नहीं हैं तो कोई बात नहीं।” शांति देवी ने सिर हिलाया, “चिंता मत करो बेटा, मैं इंतजाम करूंगी।” पर उनके मन में उथलपुथल थी—₹500 उनके लिए बहुत बड़ी रकम थी। उस रात वे सो नहीं सकीं, अगले दिन से और मेहनत करने लगीं। पुरानी चीजें बेच दीं, हर जगह कबाड़ बीनती रहीं, ताकि रोहन को खुशी दे सकें।

ठंड के दिनों में उनका भोजन अक्सर उबले आलू या सूखी रोटी होता था। कभी-कभी ताजी सब्जियां मिल जातीं, तो पोते के लिए रात का खाना बनातीं। रोहन का स्वास्थ्य भी चिंता का विषय था—पेट दर्द, थकान, लेकिन डॉक्टर के पैसे नहीं थे। बस दलिया में थोड़ा शहद मिला देतीं, उम्मीद करतीं कि बेटा ठीक हो जाएगा।

एक सर्दियों की शाम, शांति देवी कबाड़ बीनकर घर लौटीं। रोहन आग के पास बैठा था, दौड़कर दादी से लिपट गया, “दादी, आज बहुत ठंड है। क्या आप थक गई हैं?” शांति देवी मुस्कुराई, “जब तक तुम अच्छे से रहते हो, मुझे कोई थकान नहीं होती।” लेकिन उनके दिल में कल की चिंता थी—पैसे कैसे जुटाएंगी?

उनका जीवन रोज की जद्दोजहद में बीतता रहा, लेकिन आंखों में अपने पोते के लिए उम्मीद की चमक थी। उन्हें विश्वास था कि हार नहीं मानेंगी तो एक दिन सब अच्छा होगा। लेकिन क्या किस्मत उनके लिए कोई चमत्कार लाएगी?

एक ठंडी सुबह, शांति देवी रोज की तरह ठेली लेकर कबाड़ बीनने निकलीं। उम्मीद थी कि आज ज्यादा कबाड़ मिलेगा, जिससे रोहन की फीस और दवा के पैसे जुटा सकें। दोपहर में थोक बाजार पहुंचीं, वहां सब्जी बेचने वाली महिला ने उन्हें कुछ सब्जियां दे दीं, “मां जी, ये अपने पोते के लिए ले जाइए।” शांति देवी कृतज्ञता से मुस्कुराईं, ऐसे छोटे उपहार उनके लिए बहुत बड़ी मदद थे।

शाम को, बड़ी सड़क पर कबाड़ ढूंढते हुए, उन्हें कोहरे में एक काली चीज दिखी। पास जाकर देखा—एक मोटा चमड़े का पर्स था। अंदर नोटों के बंडल थे, कुल ₹7,06,000। पहचान पत्र में विक्रम सिंह नाम, पता और फोन नंबर था। शांति देवी हैरान थीं—इतनी बड़ी रकम! इससे रोहन की पढ़ाई, इलाज, घर की मरम्मत सब हो सकता था। लेकिन उनकी अंतरात्मा ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया। वे जानती थीं, जिसने पैसा खोया है, बहुत परेशान होगा। वह लालच नहीं कर सकती थीं।

उन्होंने पर्स को हाथ में लिया, चारों ओर देखा, कोई ढूंढने नहीं आया। ठंड में खड़ी रहीं, अंत में पर्स घर ले गईं, अगली सुबह लौटाने का फैसला किया। घर पहुंचीं, रोहन ने पूछा, “दादी, क्या आज बहुत मेहनत करनी पड़ी?” शांति देवी मुस्कुराई, पर मन बेचैन था। रातभर सो नहीं सकीं, बार-बार सोचती रहीं—अगर यह पैसा उनका होता तो जीवन कितना बदल जाता! लेकिन फिर खुद को समझाया, “जो मेरा नहीं है, उसे नहीं रखना चाहिए।”

सुबह, रोहन को स्कूल भेजकर, शांति देवी पर्स लौटाने निकलीं। दुकान पर पता पूछा, “विक्रम सिंह जी तो बड़ी कंपनी के डायरेक्टर हैं।” वे पैदल कंपनी पहुंचीं। भव्य इमारत देखकर डर गईं, पर विश्वास के साथ अंदर गईं। रिसेप्शनिस्ट ने पूछा, “किससे मिलना है?” उन्होंने विजिटिंग कार्ड दिखाया। थोड़ी देर बाद, विक्रम सिंह आए—व्यस्त, तनाव में। “आप मुझसे क्यों मिलना चाहती हैं?” शांति देवी ने कांपते हाथों से पर्स बढ़ाया, “साहब, यह पर्स सड़क पर मिला था, मुझे लगा आपका है, लौटाने आई हूं।”

विक्रम सिंह ने पर्स खोला, नोट देखे, राहत की सांस ली। लेकिन अचानक बोले, “इसमें ₹7,06,000 थे, अब सिर्फ ₹3,70,000 हैं। आपने ₹3,36,000 निकाल लिए हैं ना?” शांति देवी चौंक गईं, “साहब, मैंने एक भी पैसा नहीं लिया। जब मिला, सिर्फ मालिक पहचानने के लिए खोला था।” विक्रम सिंह बोले, “इतनी गरीब हो, इतनी बड़ी रकम देखकर कौन नहीं डोलेगा?” शांति देवी की आंखों में आंसू आ गए, “अगर मुझे पैसे लेने होते तो लौटाने नहीं आती। आपको मुझ पर विश्वास करना होगा।”

तभी विक्रम सिंह की बेटी प्रिया आई। उसने पूछा, “पापा, क्या बात है?” विक्रम सिंह ने संदेह जताया। प्रिया ने पूछा, “पापा, क्या आपने पैसे गिने थे? कहीं आप भूल तो नहीं गए?” विक्रम सिंह झिझके, फिर याद आया—सुबह बैंक से पैसे निकाले थे, एक कॉन्ट्रैक्ट का भुगतान किया था। पर्स में सिर्फ ₹3,70,000 बचे थे। वे शर्मिंदा हो गए, गलती मानने में हिचकिचाए, लेकिन प्रिया ने शांति देवी का हाथ पकड़कर कहा, “अम्मा जी, मुझे आप पर विश्वास है। आपने सही काम किया है। पापा से भूल हो गई है। हम आपका बहुत धन्यवाद करते हैं।”

प्रिया ने शांति देवी को ₹1,000 दिए, “यह मेरी तरफ से छोटा सा तोहफा है।” शांति देवी ने मना किया, “मैंने तो बस अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनी।” लेकिन प्रिया के आग्रह पर ले लिया। उनकी आंखों से आंसू बह रहे थे—पैसों के नहीं, बल्कि सम्मान और सहानुभूति के।

शांति देवी घर लौटीं, दिल भारी था, लेकिन एक अजीब सी गर्माहट थी। प्रिया की अच्छाई ने उन्हें छू लिया। अगले दिन, विक्रम सिंह और प्रिया उनके घर आए। विक्रम सिंह बोले, “अम्मा जी, मैं फिर माफी मांगने आया हूं। कल मैंने आप पर आरोप लगाकर बहुत बड़ी गलती की। आप नेक इंसान हैं।”

प्रिया ने कहा, “पापा रोहन की पढ़ाई का सारा खर्च उठाएंगे जब तक वह ग्रेजुएट नहीं हो जाता। यह हमारा धन्यवाद है।” शांति देवी ने रुंधे गले से कहा, “मैं यह स्वीकार नहीं कर सकती, मुझे किसी इनाम की उम्मीद नहीं थी।” विक्रम सिंह बोले, “यह कोई इनाम नहीं है, मेरी गलती सुधारने का तरीका है। रोहन को गरीबी से बाहर निकलने के लिए पढ़ाई करनी होगी।”

शांति देवी ने सिर हिलाया, गालों पर आंसू थे—राहत के। अब रोहन का भविष्य सुरक्षित था। विक्रम सिंह और प्रिया ने नियमित रूप से मदद भेजी—भोजन, दवाएं, स्कूल की फीस। विक्रम सिंह धीरे-धीरे उनकी अच्छाई का सम्मान करने लगे। उन्होंने खुद से वादा किया, आगे से और दयालु बनेंगे।

समय बीतता गया, सर्दी वसंत में बदल गई। पर्स की कहानी एक खूबसूरत याद बन गई। रोहन स्कूल जाने लगा, खुश रहने लगा, दादी को कक्षा में सीखे पाठ सुनाता। शांति देवी अब गली की सफाई, बगीचे में सब्जियां उगाने, कपड़े सिलने में समय बितातीं। जीवन सादा था, लेकिन आशा और विश्वास से भर गया था।

एक दिन, विक्रम सिंह और प्रिया खास प्रस्ताव लेकर आए, “अम्मा जी, आप हमारे साथ चलिए, अब आराम कीजिए।” शांति देवी स्तब्ध रह गईं, लेकिन बोलीं, “यह घर मेरी यादों की जगह है, मैं यही रहूंगी।” विक्रम सिंह बोले, “हमारा परिवार हमेशा आपके साथ रहेगा।”

कई साल बाद, रोहन प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में दाखिला लेता है। शांति देवी खुशी के आंसू नहीं रोक पातीं। वह छोटा लड़का अब बड़ा हो गया था, दादी के प्रेम और विक्रम सिंह के परिवार की मदद से आगे बढ़ने को तैयार था।

पर्स की कहानी अब सिर्फ एक याद थी, लेकिन यह हमेशा उनके जीवन में मील का पत्थर रहेगी। यह कहानी इस बात का प्रमाण है कि मानवता चाहे कितनी भी छोटी क्यों न हो, एक पूरी जिंदगी बदल सकती है। कभी-कभी आकस्मिक घटनाएं भाग्य बन जाती हैं, जो अजनबियों को जोड़कर एक सुंदर और मानवीय अंत लिखती हैं।

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