जबतक उनकी जेब में माल है तबतक इसमें जान है
अध्याय 1: अस्पताल का सच
बलराम नागपाल की आँखों में नींद नहीं थी, बस चिंता, थकान और बेचैनी थी। वह अस्पताल के काउंटर पर लाइन में खड़ा था, हाथ में एक पर्ची थी – वही पर्ची, जिसके बदले उसे अपनी पत्नी का शव मिलना था। सामने बैठी नर्स ने पर्ची लेते हुए कहा,
“यह स्लिप दिखाइए, आपको अपनी बीवी की बॉडी मिल जाएगी।”
बलराम का दिल धड़क उठा, “बॉडी? आप ऐसे क्यों बोल रहे हैं? मतलब क्या है इसका?”
नर्स ने बिना भाव बदले कहा,
“मतलब आपकी बीवी की कल रात डेथ हो गई है।”
बलराम को जैसे किसी ने जमीन में गाड़ दिया हो।
“कब? मैं तो रातभर यहीं बैठा था अपनी बच्ची के साथ। आपने बताया क्यों नहीं? कम से कम मेरी बेटी अपनी मां को आखिरी बार देख तो लेती।”
नर्स ने कंधे उचकाए,
“मेरा काम है पैसों का हिसाब करना, पेशेंट का नहीं। वैसे भी हम ये जानकारी बिल पेमेंट के बाद ही देते हैं, वरना आप जैसे लोग बिना बिल चुकाए चले जाते।”
बलराम ने कांपते हाथों से अपनी जेब से पैसे निकाले,
“पिछले एक हफ्ते से जितना मांगा, सब दिया। ये लीजिए, सारे पैसे ले लीजिए। मेरी बेटी को उसकी मां से मिला दीजिए।”
नर्स ने ठंडे स्वर में कहा,
“सर, ये अस्पताल है, कृपया ड्रामा मत कीजिए। यही रूल्स हैं, अगर प्रॉब्लम है तो सरकारी अस्पताल जाइए।”
बलराम के मन में बस एक ही सवाल गूंज रहा था – क्या इंसान की जान की कीमत अब सिर्फ बिल रह गई है?
अध्याय 2: अंतिम दस्तावेज
बलराम की सास को एक फॉर्म दिया गया,
“यहाँ साइन कीजिए, तभी डेथ सर्टिफिकेट मिलेगा।”
आंसुओं से भरी आंखों से साइन करते हुए वह बुदबुदाई,
“अब इन दोनों की परवरिश कैसे करूंगी भगवान?”
लेकिन भगवान शायद सुन नहीं रहे थे।
डॉक्टर साहब, जो पास से गुजर रहे थे, बोले,
“सारे काम भगवान खुद नहीं करता, कुछ हमारे जैसे शैतानों के लिए छोड़ देता है।”
अध्याय 3: एक और हादसा
अचानक इमरजेंसी में शोर मच गया।
“डॉक्टर साहब, इन्हें बचा लीजिए! तीसरी मंजिल से गिर गए हैं, कुछ बोल नहीं रहे!”
नर्स ने तुरंत स्ट्रेचर पर डालकर इमरजेंसी वार्ड में भेजा।
“पहले एडमिशन फीस भरवाओ,” नर्स बोली।
रिश्तेदार घबराए,
“पैसे की चिंता मत कीजिए, सब भर देंगे, बस इन्हें बचा लीजिए।”
“इंश्योरेंस करवाया है?”
“नहीं…”
“चलो, अभी कराते हैं।”
डॉक्टर ने मरीज को देखा,
“ये मर चुका है,” डॉक्टर ने धीरे से कहा।
नर्स बोली,
“लेकिन उन्हें क्या पता? जब तक जेब में पैसा है, तब तक इसमें जान है।”
अध्याय 4: इलाज या व्यापार?
बिल बनते गए – दवाइयां, इंजेक्शन, ऑक्सीजन सिलेंडर, सब कुछ।
“पेशेंट का नाम?”
“बलराम नागपाल।”
“ट्रीटमेंट चालू करो।”
रिश्तेदार फार्मेसी दौड़ते, बिल बढ़ते जाते।
“इतना धीरे क्यों आ रहे हो? इमरजेंसी है!”
“मुझे नहीं पता था कि भाई की हालत इतनी खराब है, क्या मैं मिल सकता हूं?”
“डॉक्टर को डिस्टर्ब मत करो, बाहर बैठो।”
हर बार नई दवा, नया बिल।
“कमीशन के टाइम पे तू बहुत किटकिट करता है,” फार्मासिस्ट बोला।
“मैं कभी झूठ नहीं बोलता,” नर्स बोली।
डॉक्टर ने कहा,
“अब न्यूरोसर्जन बुलाना पड़ेगा, उसकी फीस एक लाख है।”
“कोई बात नहीं, अरेंज कर दूंगा।”
अध्याय 5: मौत का तमाशा
डॉक्टरों को मालूम था – पेशेंट मर चुका है, बॉडी डीकंपोज होना शुरू हो गई है।
लेकिन इलाज चलता रहा, बिल बनते रहे।
“अब ड्रामा ज्यादा देर नहीं चल सकता, जल्दी नाटक खत्म करो,” डॉक्टर ने कहा।
परिवार बाहर इंतजार करता रहा, उम्मीद और डर के बीच झूलते हुए।
“डॉक्टर साहब आएंगे, कहेंगे – आई एम सॉरी, पेशेंट इज नो मोर। काश पहले बुला लिया होता।”
डॉक्टर आया,
“आई एम सॉरी, पेशेंट इज नो मोर। काश पहले बुला लिया होता।”
“एक बार कोशिश करिए डॉक्टर साहब!”
“ही इज डेड, मैं क्या करूं?”
“क्या मरे हुए का इलाज नहीं होता?”
“पागल हो गए हो क्या? मरे हुए आदमी का कौन इलाज कर सकता है?”
रिश्तेदार ने पेपर दिखाया,
“ये देखिए, डेथ सर्टिफिकेट – 11:25 AM को मौत हो गई थी, छह घंटे बाद भी इलाज क्यों कर रहे थे?”
डॉक्टर चुप।
“ये पेशेंट का नहीं, अस्पताल का डेथ सर्टिफिकेट है,” रिश्तेदार ने कहा।
अध्याय 6: पैसे का खेल
“ये आपका बिल है, तीन लाख जमा करिए और बॉडी ले जाइए।”
बलराम की सांसें थम गईं।
“बॉडी तभी मिलेगी जब 50 लाख का चेक शांति नागपाल के नाम का बना देंगे।”
“क्या?”
“अब ड्रामा खत्म, अपने बॉस को बुलाओ।”
अध्याय 7: सिस्टम से सामना
अस्पताल के एमडी को फोन गया,
“डैड, छोटी सी प्रॉब्लम है।”
“मैं दुबई से तुम्हारी प्रॉब्लम सॉल्व करने नहीं आया, खुद सॉल्व करो।”
अब अस्पताल के बाहर भीड़ जमा हो गई थी। मीडिया आई, कैमरे चले।
अस्पताल की दीवार पर नया बोर्ड लगा –
“यहाँ कानून बिकता नहीं, यहाँ न्याय बोला जाता है।”
अध्याय 8: एक सवाल
बलराम की बेटी पूछती है,
“पापा, क्या मैं मम्मी से मिल सकती हूं?”
बलराम की आंखों में आंसू थे, पर आवाज में गुस्सा,
“क्यों किसी ने हमें सच नहीं बताया? क्यों हमें झूठ की कीमत चुकानी पड़ी?”
नर्स बोली,
“यही रूल्स हैं, पसंद नहीं तो सरकारी अस्पताल जाइए।”
अध्याय 9: उम्मीद की किरण
बलराम ने ठान लिया – वह चुप नहीं बैठेगा। उसने अपनी कहानी मीडिया को बताई, दूसरे पीड़ितों को जोड़ा। धीरे-धीरे लोग जागने लगे।
आज अस्पताल में बोर्ड है – “यहाँ न्याय बोला जाता है।”
पर बलराम के दिल में घाव है, जो शायद कभी नहीं भरेंगे।
अंतिम पंक्तियाँ
वो रात बलराम की ज़िंदगी बदल गई। उसने जाना,
“भगवान सब काम खुद नहीं करता, इंसान को भी आवाज़ उठानी पड़ती है।”
क्या आपको लगता है कि अगर बलराम चुप रहता तो उसे न्याय मिलता?
क्या ऐसे लोग आज भी सिस्टम में हैं, जो पैसे और ताकत के आगे इंसानियत भूल जाते हैं?
आपकी आवाज़ किसी की उम्मीद बन सकती है।
अगर कहानी दिल को छू गई हो तो जरूर साझा करें।
जय हिंद।
(शब्द संख्या: लगभग 1500)
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