एक लावारिस बूढ़ा कौमा में था,नर्स ने रात दिन उसकी सेवा की, कुछ माह बाद जब वो ठीक हुआ तो उसने उसके
पूरी कहानी: निस्वार्थ सेवा और विरासत की अद्भुत मिसाल
क्या होता है जब एक इंसान की जिंदगी एक अनजानी सांस की डोर से बंध जाती है? क्या सेवा का कोई मोल होता है या यह एक ऐसी इबादत है, जिसका सिला खुद ऊपर वाला अपनी सबसे नायाब नेमत से देता है?
यह कहानी एक ऐसी लावारिस बेजान जिस्म की है, जिसे दुनिया ने एक गुमनाम मरीज समझकर छोड़ दिया था। और एक ऐसी नर्स की है, जिसके लिए उसकी सफेद वर्दी सिर्फ एक नौकरी नहीं, बल्कि इंसानियत का सबसे पाक फर्ज थी।
जब उस नर्स ने उस कोमा में पड़े बूढ़े शख्स की महीनों तक एक बेटी की तरह बिना किसी उम्मीद के दिन-रात सेवा की, तो उसे कहां पता था कि जिस बेजान शरीर को वो सहला रही है, उसके अंदर एक बहुत बड़े साम्राज्य का बादशाह सो रहा है।
और जब वह बादशाह अपनी नींद से जागेगा और उसे अपनी इस गुमनाम बेटी की निस्वार्थ सेवा का पता चलेगा, तो वह उसे इनाम में सिर्फ दौलत नहीं, बल्कि एक ऐसा रुतबा, एक ऐसा हक देगा, जिसे देखकर ना सिर्फ उस नर्स के बल्कि हर उस इंसान के होश उड़ जाएंगे, जो यह मानता है कि दुनिया में चमत्कार नहीं होते।
यह कहानी उस खामोश सेवा और उस अविश्वसनीय विरासत की है, जो आपकी आत्मा को भिगो देगी।
जयपुर का गुलाबी शहर, शाही विरासत और आधुनिकता का संगम।
इसी शहर के सबसे पॉश इलाके सिविल लाइंस में एक विशाल, खूबसूरत और किसी राजमहल जैसे बंगले में रहते थे श्री जगमोहन डालमिया।
70 साल के एक ऐसे शख्स, जिनका नाम देश के सबसे बड़े हीरा व्यापारियों में शुमार था। डालमिया जेम्स का साम्राज्य उन्होंने अपने पिता से विरासत में पाया था और अपनी मेहनत और तेज दिमाग से उसे दुनिया के कोने-कोने तक फैला दिया था।
उनके पास दौलत, शोहरत, इज्जत सब कुछ था।
लेकिन उस आलीशान बंगले की दीवारों के पीछे जगमोहन डालमिया एक बहुत ही अकेली और खामोश जिंदगी जीते थे।
उनकी पत्नी की मौत 10 साल पहले हो चुकी थी। उनके दो बेटे थे—बड़ा बेटा रोहन और छोटा बेटा साहिल।
दोनों ही होनहार थे। विदेश की सबसे अच्छी यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की थी और अब वह दोनों कनाडा में रहकर अपने पिता के इंटरनेशनल बिजनेस को संभालते थे।
वो अपनी-अपनी जिंदगी में इतने व्यस्त थे कि उन्हें अपने बूढ़े, अकेले पिता से बात करने की भी फुर्सत नहीं मिलती थी।
महीनों गुजर जाते थे और उनका एक फोन तक नहीं आता था।
जगमोहन जी ने अपनी इस तन्हाई से समझौता कर लिया था। उनकी दुनिया अब सिर्फ उनकी सुबह की सैर, अखबार और अपने पुराने कर्मचारियों से जुड़ी यादों तक ही सीमित थी।
वह रोज सुबह सूरज निकलने से पहले बिना किसी को बताए एक साधारण ट्रैक सूट और स्पोर्ट शूज पहनकर अपने बंगले से निकलते और पास के सेंट्रल पार्क में लंबी सैर पर जाते।
वो इस दौरान अपने साथ ना कोई फोन रखते, ना कोई बटवा।
वह चाहते थे कि कम से कम एक घंटा वह जगमोहन डालमिया के भारीभरकम नाम के बोझ से आजाद होकर एक आम इंसान की तरह जी सके।
एक सुबह की दुर्घटना
अक्टूबर की ऐसी ही सुहानी सुबह थी। जगमोहन जी अपनी रोज की आदत के मुताबिक पार्क में टहल रहे थे।
अचानक उनके सीने में तेज दर्द उठा। आंखों के सामने अंधेरा छा गया और वह चक्कर खाकर वहीं पार्क के ट्रैक पर गिर पड़े।
सिर के पिछले हिस्से में एक नुकीले पत्थर से गहरी चोट लगी।
पार्क में टहल रहे दूसरे लोगों ने उन्हें इस तरह गिरते देखा तो भीड़ जमा हो गई।
किसी ने एंबुलेंस को फोन किया।
जगमोहन जी ने साधारण कपड़े पहने हुए थे और उनके पास कोई पहचान पत्र या फोन नहीं था, इसलिए किसी ने भी उन्हें नहीं पहचाना।
सब ने यही सोचा कि कोई मामूली बुजुर्ग इंसान होगा, जिसे हार्ट अटैक आ गया है।
एंबुलेंस आई और उन्हें शहर के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल सवाई मानसिंह हॉस्पिटल के इमरजेंसी वार्ड में ले गई।
अस्पताल में डॉक्टरों ने तुरंत इलाज शुरू कर दिया।
जांच में पता चला कि उन्हें हार्ट अटैक नहीं, बल्कि सिर में लगी गहरी चोट की वजह से सेरेब्रल हेमरेज हुआ है।
उनकी हालत बहुत ही नाजुक थी और वह गहरे कोमा में जा चुके थे।
पुलिस ने उनकी पहचान करने की बहुत कोशिश की, लेकिन कोई सुराग नहीं मिला।
उन्हें एक लावारिस मरीज घोषित कर दिया गया।
जयपुर के सरकारी अस्पताल में मरीजों का बोझ इतना ज्यादा था कि एक लावारिस कोमा में पड़े मरीज पर कोई खास ध्यान देना मुश्किल था।
उसकी हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही थी।
आखिरकार अस्पताल के बड़े डॉक्टरों ने फैसला किया कि केस बहुत ही जटिल है और यहां इसका सही इलाज संभव नहीं है।
उन्होंने मरीज को बेहतर सुविधाओं के लिए दिल्ली के ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेस (एम्स) में रेफर करने का फैसला किया।
और इस तरह जगमोहन डालमिया, जो कभी अपने प्राइवेट जेट में सफर करते थे, आज एक सरकारी एंबुलेंस में एक बेनाम लावारिस मरीज के तौर पर दिल्ली की तरफ जा रहे थे।
दिल्ली एम्स में नई शुरुआत
दिल्ली एम्स—वो अस्पताल जो सिर्फ एक अस्पताल नहीं, बल्कि पूरे देश के लाखों गरीब और लाचार मरीजों के लिए उम्मीद का आखिरी दरवाजा है।
यहीं के न्यूरोलॉजी डिपार्टमेंट के जनरल वार्ड में उस बेनाम बुजुर्ग को एक बिस्तर मिला।
और यहीं उसकी मुलाकात हुई उस गुमनाम बेटी से, जिसे किस्मत ने खुद उसकी सेवा के लिए चुना था।
उसका नाम था स्नेहा। करीब 28 साल की एक ऐसी नर्स, जिसके लिए उसकी सफेद वर्दी दुनिया की सबसे पाक चीज थी।
स्नेहा केरल के एक छोटे से गांव की रहने वाली थी।
वो एक बहुत ही गरीब परिवार से थी, लेकिन अपनी मेहनत और लगन से उसने नर्सिंग की पढ़ाई पूरी की थी।
आज वो देश के सबसे बड़े अस्पताल में काम कर रही थी।
वह दिल्ली में एक छोटे से किराए के कमरे में अकेले रहती थी और अपनी तनख्वाह का ज्यादातर हिस्सा अपने गांव में अपने माता-पिता को भेज देती थी।
स्नेहा की शख्सियत में एक अजीब सी शांति और एक गहरी करुणा थी।
वो मरीजों को सिर्फ मरीज नहीं, बल्कि अपना परिवार समझती थी।
खासकर उन लाचार और बेसहारा मरीजों के लिए, जिनका इस दुनिया में कोई नहीं था।
उनके लिए तो वह किसी देवी से कम नहीं थी।
स्नेहा की सेवा
जिस दिन उस लावारिस बुजुर्ग को उनके वार्ड में शिफ्ट किया गया, उस दिन स्नेहा की ही ड्यूटी थी।
उसने जब उस बुजुर्ग के बेजान लेकिन किसी जमाने में बहुत रबदार रहे चेहरे को देखा, तो उसका दिल भर आया।
उसे उनमें अपने पिता का अक्स दिखाई दिया, जो उसी उम्र में गुजर गए थे।
उसने मन ही मन फैसला कर लिया—जब तक यह बाबा यहां हैं, मैं इनकी बेटी बनकर इनकी सेवा करूंगी।
उस दिन से स्नेहा की जिंदगी का एक नया और बहुत ही निस्वार्थ अध्याय शुरू हो गया।
वह सिर्फ एक नर्स का फर्ज नहीं निभा रही थी, वो एक बेटी का धर्म निभा रही थी।
वो अपनी ड्यूटी के घंटों के बाद भी घंटों तक उनके बिस्तर के पास बैठी रहती।
अपने हाथों से रोज उनके पूरे शरीर को स्पंज करती, कपड़े बदलती, चादरें साफ करती।
अपने पैसों से उनके लिए पौष्टिक फलों का जूस लाती और ट्यूब के जरिए पिलाती।
वो उनसे बातें करती, अपने गांव की कहानियां सुनाती, बचपन के किस्से बताती, भजन गाकर सुनाती।
उसे यकीन था कि उसकी आवाज, उसकी बातें कहीं ना कहीं उस गहरी नींद में सोई हुई आत्मा तक पहुंच रही होंगी।
अस्पताल का बाकी स्टाफ उसे देखकर हैरान होता।
कुछ लोग उसका मजाक उड़ाते, “अरे चलिए मदर टेरेसा बनने। यह कभी ठीक नहीं होगा, क्यों अपनी ऊर्जा बर्बाद कर रही हो?”
लेकिन स्नेहा पर इन बातों का कोई असर नहीं होता।
वो खामोशी से अपनी सेवा में लगी रहती।
महीने गुजरने लगे।
1 महीना, 2 महीने, 6 महीने।
जगमोहन डालमिया उसी बेसुध हालत में पड़े रहे।
उनके दोनों बेटे जो कनाडा में अपनी ऐशो-आराम की जिंदगी में मशरूफ थे, उन्हें यह खबर तक नहीं थी कि उनका पिता दिल्ली के सरकारी अस्पताल में एक लावारिस की तरह जिंदगी और मौत के बीच झूल रहा है।
उन्होंने कभी अपने पिता को फोन करके यह जानने की भी कोशिश नहीं की कि वह कहां है, किस हाल में है।
अस्पताल का प्रशासन भी अब स्नेहा पर दबाव बनाने लगा था।
“सिस्टर, यह बिस्तर हम किसी और जरूरतमंद मरीज को दे सकते हैं। इस केस में अब कोई उम्मीद नहीं बची है। इसे लावारिस मरीजों वाले वार्ड में शिफ्ट कर देते हैं।”
लेकिन स्नेहा हर बार उनके हाथ-पैर जोड़कर कुछ और दिनों की मोहलत मांग लेती।
“सर, प्लीज मुझे पूरा यकीन है यह एक दिन जरूर ठीक होंगे।”
चमत्कार का पल
और फिर 7 महीने की लंबी अंधेरी रात के बाद एक दिन एक चमत्कार हुआ।
स्नेहा रोज की तरह सुबह-सुबह जगमोहन जी के बिस्तर के पास बैठी उन्हें अखबार पढ़कर सुना रही थी।
अचानक उसने महसूस किया कि उनकी उंगलियों में एक हल्की सी हरकत हुई।
एक पल के लिए उसे लगा यह उसका वहम है।
लेकिन फिर उसने देखा कि उनकी पलकें धीरे-धीरे कांप रही हैं।
उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा।
वो दौड़कर डॉक्टर को बुलाने भागी।
डॉक्टरों की पूरी टीम वहां जमा हो गई और कुछ ही देर में सालों के अनुभव वाले उन डॉक्टरों की आंखों के सामने वो हुआ, जिसे वह एक मेडिकल मिरेकल कह रहे थे।
जगमोहन डालमिया ने धीरे-धीरे अपनी आंखें खोली।
उनकी नजरें धुंधली थी, दिमाग सुन्न था।
उन्हें कुछ भी याद नहीं था कि वह कौन है, कहां है।
उनकी जुबान भी लड़खड़ा रही थी।
लेकिन उनकी धुंधली आंखों ने सबसे पहला जो चेहरा देखा, वह स्नेहा का था—एक फरिश्ते जैसा, आंसुओं से भीगा हुआ चेहरा।
नई शुरुआत, नई पहचान
अगले कुछ हफ्ते जगमोहन जी की रिकवरी में लगे।
उनकी याददाश्त धीरे-धीरे वापस आ रही थी।
स्नेहा एक पल के लिए भी उनके पास से नहीं हटी।
वो उन्हें एक बच्चे की तरह चम्मच से खाना खिलाती, सहारा देकर चलना सिखाती, भूली बातें याद दिलाने में मदद करती।
एक दिन जब जगमोहन जी की याददाश्त पूरी तरह से वापस आ गई तो उन्होंने स्नेहा से पूछा,
“बेटी, मैं यहां कब से हूं और मेरे बेटे रोहन और साहिल कहां हैं?”
स्नेहा ने उन्हें पूरी सच्चाई बता दी।
कैसे वह 7 महीनों से यहां एक लावारिस मरीज के तौर पर पड़े थे।
यह सुनकर जगमोहन जी की आंखों में आंसू आ गए।
उन्हें अपनी दौलत पर नहीं, बल्कि अपने उन बेटों पर अफसोस हो रहा था जिन्हें 7 महीनों में एक बार भी अपने बाप की याद नहीं आई।
फिर उन्होंने स्नेहा से पूछा,
“और तुम, तुम कौन हो बेटी? तुमने मेरी इतनी सेवा क्यों की? तुम तो मुझे जानती भी नहीं थी।”
स्नेहा ने मुस्कुराकर कहा,
“मैं आपको नहीं जानती थी बाबा, लेकिन इंसानियत को तो जानती हूं। मुझे आप में अपने पिता नजर आए। मैंने सिर्फ अपना फर्ज निभाया।”
जगमोहन जी के पास कहने के लिए कोई शब्द नहीं थे।
उन्होंने उस साधारण सी नर्स में एक देवी का रूप देखा।
उन्होंने मन ही मन एक फैसला कर लिया था—यह लड़की सिर्फ एक नर्स नहीं, यह इस घर की खोई हुई लक्ष्मी है। यही मेरे टूटे हुए परिवार को फिर से जोड़ सकती है।
विरासत का फैसला
अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद जगमोहन जी ने अपने सबसे पुराने और वफादार मैनेजर मेहता जी को फोन किया।
मेहता जी जो पिछले 7 महीनों से अपने मालिक को पागलों की तरह ढूंढ रहे थे, उनकी आवाज सुनकर रो पड़े।
अगले ही घंटे एम्स के उस साधारण जनरल वार्ड के बाहर महंगी विदेशी गाड़ियों का काफिला आकर रुका।
जब जगमोहन डालमिया के जिंदा होने की खबर मीडिया में फैली, तो पूरे देश में भूचाल आ गया।
जगमोहन जी को अस्पताल से छुट्टी मिल गई।
उन्होंने स्नेहा से कहा,
“बेटी, तुमने मुझे एक नया जीवन दिया है। अब मैं तुम्हें ऐसे अकेले नहीं छोड़ सकता। तुम मेरे साथ मेरे घर चलोगी।”
स्नेहा ने बहुत मना किया, लेकिन जगमोहन जी की जिद के आगे उसकी एक ना चली।
वह उसे अपने साथ अपने जयपुर वाले बंगले ले आए।
परिवार की नई शुरुआत
जब जगमोहन जी पूरी तरह से स्वस्थ हो गए, तो उन्होंने अपने दोनों बेटों को कनाडा से तुरंत भारत बुलाया।
जब रोहन और साहिल अपने मरे हुए पिता को अपने सामने जिंदा खड़ा देखकर हैरान और शर्मिंदा थे।
बड़ा बेटा रोहन हमेशा की तरह अपनी अकड़ में था।
लेकिन छोटे बेटे साहिल की आंखों में एक सच्ची शर्मिंदगी और पश्चाताप था।
जगमोहन जी ने अपने बेटों को कुछ नहीं कहा।
एक शाम जब सब लोग ड्राइंग रूम में बैठे थे, तो जगमोहन जी ने साहिल से पूछा,
“बेटा, मैं 7 महीने तक जिंदगी और मौत के बीच झूलता रहा। तुम लोगों ने एक बार भी पता करने की कोशिश नहीं की कि तुम्हारा बाप जिंदा है या मर गया?”
रोहन ने लापरवाही से कहा,
“पापा, हम बिजी थे। हमें लगा आप किसी ट्रिप पर होंगे।”
लेकिन साहिल की आंखें भर आई।
वो अपने पिता के पैरों में गिर पड़ा,
“मुझे माफ कर दीजिए पापा। मैं आपको रोज फोन करना चाहता था, लेकिन भैया हमेशा रोक देते थे। वह कहते थे कि आप हमें डिस्टर्ब नहीं करना चाहते होंगे। मैं बहुत कमजोर पड़ गया जो आपकी खबर नहीं ले सका।”
जगमोहन जी ने अपने छोटे बेटे की आंखों में सच्चाई देख ली।
वह जानते थे कि साहिल दिल का बुरा नहीं है, बस संगत का असर है।
उन्होंने उसे उठाकर गले से लगा लिया।
फिर उन्होंने स्नेहा को अपने पास बुलाया, जो एक कोने में चुपचाप खड़ी थी।
उन्होंने कहा,
“आज मैं अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा फैसला करने जा रहा हूं।”
उन्होंने साहिल का हाथ पकड़ा और स्नेहा का हाथ पकड़ा।
“स्नेहा, तुमने एक लावारिस मरीज की सेवा नहीं की। तुमने इस घर के होने वाले ससुर की सेवा की है। तुमने मुझे एक नया जीवन दिया है और मैं तुम्हें इस घर की नई जिंदगी, इस घर की बहू बनाना चाहता हूं।”
उन्होंने साहिल की तरफ मुड़कर कहा,
“बेटा, अगर तुम अपने गुनाहों का प्रायश्चित करना चाहते हो, तो तुम्हें इस देवी जैसी लड़की को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करना होगा। यह सिर्फ तुम्हारी पत्नी नहीं, बल्कि तुम्हारी गुरु भी बनेगी, जो तुम्हें इंसानियत और फर्ज का सही मतलब सिखाएगी। बोलो, क्या तुम्हें यह रिश्ता मंजूर है?”
साहिल की आंखों में आंसू थे।
उसने स्नेहा की तरफ देखा, जिसने निस्वार्थ भाव से उसके पिता की जान बचाई थी।
उसने हाथ जोड़कर कहा,
“पापा, मैं इतना भाग्यशाली कहां कि स्नेहा जी मुझे मिले। मैं तो इनका गुनहगार हूं। अगर यह मुझे माफ करके अपना लें, तो यह मेरी खुशकिस्मती होगी।”
स्नेहा आवाक खड़ी थी। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था।
जगमोहन जी ने स्नेहा के सिर पर हाथ रखा,
“बेटी, मैंने अपनी जिंदगी में हीरे बहुत परखे हैं, लेकिन तुम जैसा कोहिनूर नहीं देखा है। मैं जानता हूं कि यह लड़का तुम्हारे काबिल नहीं है, लेकिन क्या तुम इसे एक मौका दोगी? क्या तुम इस घर की बहू बनकर इस टूटे हुए परिवार को फिर से जोड़ोगी?”
स्नेहा ने जगमोहन जी की आंखों में एक पिता की इल्तजा देखी।
वो मना नहीं कर पाई। उसने धीरे से अपना सिर झुका दिया।
उस दिन उस बंगले में सालों बाद शहनाई बजी।
जगमोहन डालमिया ने उस लड़की की शादी, जिसने उन्हें जीवन दिया था, अपने ही सगे बेटे से कर दी।
शादी के बाद उन्होंने घर की सारी चाबियों का गुच्छा स्नेहा के हाथ में थमाते हुए कहा,
“आज से इस घर की, इस परिवार की और इस पूरे कारोबार की मालकिन तुम हो बहू। आज से कोई भी फैसला तुम्हारी मर्जी के बिना नहीं होगा।”
रोहन यह सब देखकर गुस्से में घर छोड़कर चला गया।
लेकिन साहिल और स्नेहा ने मिलकर एक नई जिंदगी की शुरुआत की।
स्नेहा ने अपनी ममता और संस्कारों से ना सिर्फ उस घर को, बल्कि साहिल को भी पूरी तरह से बदल दिया।
और उन दोनों ने मिलकर डालमिया जेम्स को सिर्फ दौलत की ही नहीं, बल्कि इंसानियत और सेवा की एक नई विरासत बनाकर आगे बढ़ाया।
कहानी का संदेश
यह कहानी हमें सिखाती है कि निस्वार्थ सेवा का फल शायद देर से मिले, लेकिन मिलता जरूर है और इतना मिलता है कि आपकी झोली छोटी पड़ जाए।
स्नेहा ने सिर्फ एक मरीज की नहीं, बल्कि इंसानियत की सेवा की और किस्मत ने उसे वह रुतबा दिया जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी।
यह कहानी उन औलादों को भी एक सबक सिखाती है, जो अपने मां-बाप को बोझ समझने की गलती कर बैठते हैं।
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