करोड़पति माँ VIP कार में बैठकर जा रही थी; उन्हीं का बेटा फुटपाथ पर उनसे भीख माँगने आ गया और फिर…

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दिल्ली की भीड़-भाड़ वाली सड़कें, ट्रैफिक का शोर, रेड लाइट पर खड़े गाड़ियों का समुद्र और उन गाड़ियों के शीशों से चिपके मासूम चेहरे… यह दृश्य किसी के भी दिल को हिला सकता है। अक्सर लोग इस दृश्य को देखकर खिड़की का शीशा ऊपर कर लेते हैं, कुछ रुपये देकर मन को तसल्ली दे देते हैं, और कुछ लोग तो ऐसे बच्चों को अनदेखा कर आगे बढ़ जाते हैं। लेकिन हर भीख माँगते या गुब्बारे बेचते बच्चे की अपनी कहानी होती है—कभी भूख की, कभी मजबूरी की और कभी किसी अधूरी माँ की।

आंचल—एक खूबसूरत और संभ्रांत महिला, अपने पति पवन के साथ रोज़ाना बदरपुर से नेहरू प्लेस अपनी कार में जाती थी। चमचमाती गाड़ी, एसी की ठंडी हवा और काँच के पीछे से झलकती उसकी सजी-संवरी ज़िंदगी… बाहर खड़े बच्चों से बिल्कुल अलग।

हर दिन जब उनकी कार ट्रैफिक सिग्नल पर रुकती, तो छोटे-छोटे हाथ शीशे से चिपक जाते। कोई गुलाब बेच रहा था, कोई टॉफी, कोई पान, तो कोई गुब्बारे। उन्हीं में एक बच्चा था—दस-ग्यारह साल का, दुबला-पतला, मैले कपड़े पहने लेकिन आँखों में मासूम चमक लिए। उसका नाम था दीपू

वह कभी गुब्बारे बेचता, कभी पेन, कभी फूल। उसकी बातों में एक अलग ही भोलेपन की मिठास थी। बाकी बच्चों की तरह वह जबरदस्ती कुछ थमाता नहीं था, बल्कि मीठे लहज़े में कहता—
“आंटी, गुब्बारा ले लीजिए, आपके बच्चे के लिए…”

पहली बार जब आंचल ने उसकी बातें सुनीं, तो अनायास ही मुस्कुरा दी। उसे यह बच्चा बाकी बच्चों से अलग लगा। उसकी आँखों में एक सच्चाई थी, एक अपनापन, जो सीधे दिल को छू जाता था।

धीरे-धीरे जब भी कार उस सिग्नल पर रुकती, आंचल को जैसे उसी बच्चे का इंतज़ार रहने लगा। कभी गुब्बारे ले लेती, कभी पेन खरीद लेती, और बदले में चुपके से उसे सौ-दो सौ रुपये थमा देती। दोनों के बीच एक अजीब-सी दोस्ती हो गई थी।

लेकिन एक दिन…


मासूमियत पर कहर

उस दिन आंचल की नज़र चारों तरफ घूमी, लेकिन दीपू कहीं दिखाई नहीं दिया। उसका दिल घबराने लगा। तभी कुछ बच्चे दौड़ते हुए आए और बोले—
“मैडम, आप दीपू को ढूंढ रही हो न? उसका एक्सीडेंट हो गया है। गाड़ी ने टक्कर मार दी। हालत बहुत खराब है।”

यह सुनते ही आंचल का दिल बैठ गया। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। उसने तुरंत कहा—
“मुझे उसके घर ले चलो, प्लीज़।”

बच्चे उसे संगम विहार की झुग्गियों में ले गए। वहाँ पहुँचते ही उसकी नज़र एक बुज़ुर्ग महिला पर पड़ी। आंचल जैसे पत्थर की मूर्ति बन गई। वह चेहरा उसके अतीत से जुड़ा था—वह कोई और नहीं, बल्कि दीपू की दादी थी।

उन्हें देखते ही दादी जोर-जोर से रोने लगीं—
“बहू… मैं तेरे बेटे को नहीं बचा सकी!”

आंचल के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। उसने काँपती आवाज़ में पूछा—
“क…क्या? वो…मेरा बेटा है?”

दादी ने हाँ में सिर हिलाया। यह सुनते ही आंचल बेसुध होकर ज़मीन पर गिर पड़ी। सीने से चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगी—
“हे भगवान! मैंने अपने ही बेटे को नहीं पहचाना… मेरे कलेजे का टुकड़ा… भीख माँगता रहा, सड़क पर भटकता रहा, और मैं उसे अनजाने में पैसे देकर खुश होती रही…”


अतीत की परतें

आंचल की आँखों के सामने अतीत घूम गया। वह लखनऊ की रहने वाली थी। महज़ 18-19 साल की उम्र में वह दीपक नाम के एक लड़के से प्यार कर बैठी थी। परिवार के विरोध के बावजूद उसने शादी कर ली। जल्द ही एक बच्चा हुआ—दीपक जूनियर।

लेकिन दीपक का असली चेहरा धीरे-धीरे सामने आया। वह एक हिस्ट्री-शीटर निकला, गैंगस्टरों से जुड़ा। आंचल लाख समझाती रही, लेकिन उसका रास्ता नहीं बदला। एक दिन गैंगवार में उसकी हत्या कर दी गई।

आंचल टूटी, लेकिन उसने बेटे को संभालने का फैसला किया। तभी उसके माता-पिता आए और बोले—
“बेटी, तुम्हारी उम्र ही क्या है? हम तुम्हारी दूसरी शादी कर देंगे। लेकिन शर्त यह है कि यह बच्चा तुम्हें छोड़ना होगा।”

आंचल ने मना किया, लेकिन सास-ससुर ने भी दबाव डाला। अंततः, भारी मन से, आंचल ने बेटे को दादी के हवाले कर दिया और मायके चली गई।

कुछ साल बाद उसकी शादी पवन से कर दी गई। पवन ने कभी उसके अतीत के बारे में नहीं जाना। दिल्ली में दोनों की ज़िंदगी खुशहाल चल रही थी। लेकिन माँ का दिल कभी अपने छोड़े हुए बेटे को भूल नहीं पाया।


अस्पताल का दर्द

आंचल बदहवास हालत में दीपू को देखने सफदरजंग अस्पताल पहुँची। आईसीयू के बाहर बैठकर दुआएँ करने लगी। तीन दिन तक वह वहीं डटी रही। पवन को फोन करके सिर्फ इतना बोला—
“वो बच्चा बच नहीं पाएगा… मैं यहीं हूँ।”

पवन चौंक गया। उसने डांटा—
“तुम पागल हो क्या? दिल्ली में रोज़ ऐसे हादसे होते हैं। किसी पर इतना इमोशनल नहीं हुआ जाता। घर लौट आओ।”

लेकिन आंचल कुछ नहीं बोली। वह कैसे बताती कि वह बच्चा उसका अपना खून है।

तीसरे दिन डॉक्टर बाहर आए और बोले—
“बच्चे को होश आ गया है।”

आंचल दौड़कर अंदर गई। दीपू ने आँखें खोलीं और धीमी आवाज़ में कहा—
“आंटी… आप आईं?”

आंचल की आँखों से आँसू बह निकले। उसने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा—
“नहीं बेटा… मैं आंटी नहीं हूँ। मैं तुम्हारी माँ हूँ।”

यह सुनते ही पूरा वार्ड सन्न रह गया।


सच का तूफ़ान

आंचल ने तीन दिन तक पवन से संपर्क नहीं किया। लेकिन सच्चाई छुपी नहीं रह सकती थी। पवन खुद संगम विहार पहुँचा और पूरी कहानी जान गया।

उसका दिल टूट गया। उसने आंचल से कहा—
“तुमने मुझसे इतनी बड़ी बात छुपाई। आज से हमारा रिश्ता खत्म।”

आंचल चुप रही। उसके लिए बेटे की ज़िंदगी सबसे बड़ी थी।

लेकिन किस्मत को कुछ और मंजूर था। पवन की माँ और बहन जब वहाँ आए, तो उन्होंने आंचल को सीने से लगाकर कहा—
“बेटी, रो मत। माँ और बेटे को अलग करना सबसे बड़ा पाप है। चलो, सब लोग घर चलते हैं।”

पवन भी पिघल गया। उसने आंचल से कहा—
“मैं भी तुम्हारे बिना नहीं रह सकता।”


नई सुबह

आंचल, पवन, दीपू और उसकी दादी सब मिलकर बदरपुर वाले घर लौट आए। कुछ ही महीनों बाद आंचल ने एक और बेटे को जन्म दिया, फिर एक बेटी हुई। दीपू को अब माँ, पिता और भाई-बहनों का प्यार मिला। उसकी ज़िंदगी बदल गई।

वह गुब्बारे बेचने वाला बच्चा, जो कभी ट्रैफिक सिग्नल पर भीख माँगता था, अब एक संभ्रांत परिवार का हिस्सा था।


संदेश

इस पूरी कहानी ने एक बात साबित कर दी—किसी भी बच्चे को उसकी माँ से अलग करना सबसे बड़ा अन्याय है। चाहे हालात कितने भी कठिन क्यों न हों, माँ का प्यार उसके लिए सबसे बड़ी ताकत होता है।

आज भी जब आंचल अपने बेटे को देखती है, तो आँखों से आँसू छलक जाते हैं। लेकिन अब वे आँसू दुख के नहीं, बल्कि कृतज्ञता और खुशी के होते हैं।