ढाबे वाले ने फौजियों से नहीं लिए खाने के पैसे, कुछ महीने बाद जब सेना का ट्रक दुबारा आया तो फिर जो
शहीद के पिता और फौजियों का ढाबा: एक छोटी नेकी, एक बड़ी सौगात
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क्या देशभक्ति सिर्फ सरहद पर बंदूक उठाने का नाम है? या वह उस गरीब के दिल में भी जलती है, जो अपनी एक वक्त की रोटी वर्दी वाले को खिलाकर खुद को धन्य समझता है?
यह कहानी है बलवंत सिंह की, पठानकोट-जम्मू हाईवे पर एक छोटे से ढाबे के मालिक। 70 साल के बलवंत सिंह के लिए फौजी की वर्दी भगवान का रूप थी। उनकी जिंदगी संघर्षों से भरी थी। जवानी में वे खुद फौज में जाना चाहते थे, मगर जिम्मेदारियों ने रोक लिया। उनका बेटा विक्रम सिंह भारतीय सेना में कैप्टन था, लेकिन चार साल पहले कश्मीर में आतंकियों से लड़ते हुए शहीद हो गया। विक्रम की पत्नी भी चल बसी और पीछे रह गई पांच साल की बेटी प्रिया, जो अब बलवंत सिंह की पूरी दुनिया थी।
ढाबे से जो कमाई होती, उससे दो वक्त की रोटी और प्रिया की पढ़ाई चलती। प्रिया डॉक्टर बनना चाहती थी। बलवंत सिंह उसकी पढ़ाई के लिए जी-जान से मेहनत करते, लेकिन हालात मुश्किल थे।
अगस्त की उमस भरी दोपहर में, सेना के तीन ट्रक ढाबे पर रुके। करीब 20-25 फौजी उतरे, थकान से चूर मगर अनुशासन में बंधे। बलवंत सिंह ने उन्हें बड़े प्यार से खाना खिलाया—गरमा गरम रोटियां, दाल, आलू गोभी, सलाद। प्रिया भी दौड़-दौड़कर पानी पिलाती रही। खाना खाने के बाद फौजियों ने पैसे देने चाहे, मगर बलवंत सिंह ने हाथ जोड़कर मना कर दिया।
“पुत्तर, तुम देश की रक्षा के लिए जान दे रहे हो। मैं तुमसे पैसे कैसे ले सकता हूं? आज तुम सब मेरे बेटे विक्रम हो। कोई बाप अपने बच्चों से खाने के पैसे नहीं लेता।”
सूबेदार मेजर गुरमीत सिंह ने बलवंत सिंह को गले लगा लिया। जाते-जाते उन्होंने सेना का प्रतीक चिन्ह दिया और वादा किया—”जब भी इस रास्ते से गुजरेंगे, आपके हाथ की रोटी खाने जरूर आएंगे।”
फौजियों के जाने के बाद बलवंत सिंह की जिंदगी फिर उसी रफ्तार में लौट आई। लेकिन कुछ ही हफ्तों में बारिश ने ढाबे को बर्बाद कर दिया। छत टपकने लगी, राशन खराब हो गया, ग्राहक आने बंद हो गए। प्रिया की फीस भरने के लिए बलवंत सिंह को गांव के सूदखोर महाजन श्यामलाल से कर्ज लेना पड़ा। श्यामलाल ने ढाबे के कागज गिरवी रख लिए। अब बलवंत सिंह पर भारी कर्ज था। महाजन रोज धमकाता, “पैसे नहीं लौटाए तो ढाबा खाली कर दे!”
बलवंत सिंह टूट चुके थे। एक रात वे अपनी बेबसी पर फूट-फूटकर रोए। तभी एक दिन सड़क पर सेना के कई ट्रक और जीपें आकर रुकीं। सूबेदार मेजर गुरमीत सिंह और कर्नल साहब उतरे। श्यामलाल भी अपने लठैतों के साथ पहुंच गया। कर्नल ने पूछा, “कितना कर्ज है?”
श्यामलाल बोला, “₹50,000।”
कर्नल ने जवान को इशारा किया। जवान ने नोटों की गड्डी दी और कहा, “यह लो, अब यहां से चले जाओ!”
श्यामलाल भाग गया। कर्नल साहब ने बलवंत सिंह से कहा, “बाऊजी, यह तो हमारे ऊपर आपके उस एक दिन के खाने का कर्ज था। हम फौजी किसी का कर्ज अपने ऊपर नहीं रखते।”
फिर उन्होंने एक फोल्डर खोला, जिसमें नए ढाबे का नक्शा था। “भारतीय सेना आपके ढाबे को गोद लेगी। यहां एक नया, बड़ा और आधुनिक ढाबा बनेगा। इसका नाम होगा ‘शहीद कैप्टन विक्रम सिंह मेमोरियल ढाबा’। आपकी पोती प्रिया की पढ़ाई की पूरी जिम्मेदारी सेना उठाएगी। उसका एडमिशन पुणे के आर्म्ड फोर्सेस मेडिकल कॉलेज में होगा।”
बलवंत सिंह और प्रिया की आंखों से खुशी के आंसू बह निकले। कुछ ही महीनों में पुराने ढाबे की जगह शानदार नया ढाबा बन गया। उद्घाटन पर सेना के अफसर आए। दीवार पर विक्रम सिंह की तस्वीर लगी थी।
बलवंत सिंह अब मजबूर बूढ़े नहीं, बल्कि सम्मानित उद्यमी थे। प्रिया डॉक्टर बनने की राह पर थी।
यह कहानी सिखाती है कि नेकी कभी व्यर्थ नहीं जाती। बलवंत सिंह ने भूखे फौजियों को खाना खिलाया, बदले में सेना ने उन्हें और उनकी पोती को जिंदगी भर का सम्मान दे दिया। भारतीय सेना सिर्फ सरहदों की ही नहीं, देश के सच्चे देशभक्तों के सम्मान की भी रक्षा करती है।
जय हिंद!
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