मजबूरी का रिश्ता

कभी-कभी ज़िंदगी हमें ऐसे मोड़ पर खड़ा कर देती है, जहाँ इंसान के पास चुनने के लिए रास्ते नहीं होते। मजबूरी ही उसका रास्ता बन जाती है और वही मजबूरी आगे चलकर उसकी सबसे बड़ी सच्चाई।

दिल्ली का मशहूर उद्योगपति आरव कपूर, जिसके पास शोहरत और दौलत दोनों की कोई कमी नहीं थी। लेकिन जिस दिन उसकी माँ, सुनीता देवी, कैंसर से जूझते हुए अस्पताल के बिस्तर पर थीं, उसने महसूस किया कि उसकी असली दौलत सिर्फ उसकी माँ है। डॉक्टरों ने कह दिया था—अब कुछ ही दिन बचे हैं।

माँ ने काँपते हाथों से बेटे का हाथ पकड़कर कहा—
“बेटा, मेरी आखिरी ख्वाहिश है कि मैं तुझे दूल्हे के रूप में देखूँ। अगर तू अगले दस दिनों में शादी कर ले, तो मेरी आँखें चैन से बंद होंगी।”

आरव पत्थर-सा हो गया। शादी… वो भी दस दिन में? लेकिन माँ के आँसुओं और अंतिम इच्छा के आगे उसके पास इंकार का कोई रास्ता नहीं था।


टूटा रिश्ता और मजबूरी का फैसला

सबसे पहले आरव को अपनी पुरानी मंगेतर साक्षी मल्होत्रा याद आई। उसने फोन किया और पूरी बात बताई। पर साक्षी ने साफ़ इंकार कर दिया—
“मैं इतनी जल्दी शादी के लिए तैयार नहीं हूँ। ये कोई मज़ाक नहीं है।”

फोन कटते ही आरव टूट गया। एक तरफ माँ की अंतिम ख्वाहिश, दूसरी तरफ साक्षी का इंकार। आखिर उसने ठान लिया—किसी भी हाल में शादी करनी ही होगी।

उसने अपने वकील को बुलाकर कहा—
“मुझे कॉन्ट्रैक्ट मैरिज करनी है, सिर्फ दस दिन के लिए। लड़की को कोई नुकसान नहीं होगा, मैं पूरा खर्च उठाऊँगा।”

वकील हैरान तो था, पर आरव की मजबूरी समझ गया। उसी शाम एक संस्था से खबर मिली कि एक लड़की, अनन्या शर्मा, अपनी बीमार माँ के इलाज के लिए पैसों की सख़्त ज़रूरत में है।


समझौते की शादी

अगली सुबह अनन्या से मुलाकात हुई। सादगी भरा चेहरा, थकी आँखें, लेकिन भीतर से मजबूत। आरव ने साफ़ कहा—
“ये शादी सिर्फ दस दिन की होगी, सिर्फ कागज़ों पर। बदले में मैं तुम्हारी माँ का इलाज करवाऊँगा।”

अनन्या की आँखों में आँसू आ गए, पर उसने धीमे स्वर में कहा—
“अगर इससे मेरी माँ की जान बच सकती है, तो मैं तैयार हूँ।”

उसी दिन दोनों ने कोर्ट में शादी कर ली। ना बारात, ना रस्में—बस मजबूरी का एक कागज़ी रिश्ता।


खामोशी से शुरू हुआ जुड़ाव

शादी के बाद अनन्या को आरव ने अपने घर के गेस्ट रूम में ठहराया। आरव ने साफ कहा—
“ये रिश्ता सिर्फ नाम का है। दस दिन बाद सब खत्म हो जाएगा।”

अनन्या चुप रही। लेकिन भीतर से उसने भगवान को गवाह मान लिया था। शुरुआती दिन खामोशी में बीते। दोनों के बीच बस ज़रूरत भर की बातें होतीं।

पर उसी खामोशी में कहीं एक अनकहा जुड़ाव पनपने लगा।

कभी अनन्या पूजा में घंटों बैठी रहती, कभी अपनी माँ की सेवा में लगी रहती। उसकी चुप्पी, उसकी सादगी, आरव को भीतर से छूने लगी। एक दिन उसे एक चिट्ठी मिली—
“हमारी शादी सिर्फ कागज़ों की बात नहीं रही। अब ये रिश्ता मेरे भगवान के सामने भी है।”

ये पढ़कर आरव ठहर गया। उसके दिल में पहली बार सुकून उतरा।


साक्षी की वापसी

पाँचवे दिन अचानक घर का दरवाज़ा खुला। साक्षी आ गई। गुस्से से बोली—
“आरव, तुमने मुझे बताए बिना शादी कर ली? ये लड़की कौन है?”

आरव ने शांत स्वर में कहा—
“साक्षी, ये शादी मजबूरी थी। माँ की आखिरी इच्छा… सिर्फ दस दिन के लिए।”

साक्षी तिलमिला उठी। जाते-जाते बोली—
“ये कहानी यहीं खत्म नहीं होगी, आरव।”

उसके जाने के बाद अनन्या ने कुछ नहीं पूछा। बस खाने की ट्रे में एक छोटा-सा कागज़ रखा था—
“क्या आपके मेहमान खुश थे?”

आरव ने नोट को जला दिया, पर उस जलते कागज़ की महक उसके दिल में उतर गई।


बदलते एहसास

धीरे-धीरे अनन्या आरव की माँ के साथ घुलने लगी। वो खाना बनाती, घर संभालती और हर काम सादगी से करती। माँ मुस्कुराकर बोलीं—
“बेटा, तुम्हारी पत्नी बहुत प्यारी है।”

आरव कुछ नहीं बोला, पर भीतर कहीं गहरी हलचल थी।

एक रात बारिश हो रही थी। अनन्या भीगे बालों के साथ दरवाज़े पर आई। बोली—
“नींद नहीं आ रही थी।”

दोनों कुछ देर चुप बैठे रहे। फिर अनन्या ने पूछा—
“क्या आपको लगता है कि साक्षी वापस आ सकती है?”

आरव ने कहा—
“नहीं। रिश्ते वक्त से बनते और बिगड़ते हैं। अब वो मेरे दिल में नहीं है।”

अनन्या ने हल्की मुस्कान दी, पर उस मुस्कान में दर्द छुपा था। धीरे से बोली—
“तो फिर मुझे यहाँ सिर्फ दस दिन रहना है…”

आरव के दिल में पहली बार चुभन हुई।


जब खामोशी बोल उठी

एक दिन अनन्या का हाथ कट गया। खून बहता देख आरव घबरा गया। खुद पट्टी बाँधी। जब उसकी उंगलियाँ अनन्या की हथेली से टकराईं, तो दोनों के बीच अजीब-सी सनसनी दौड़ गई।

अनन्या बोली—
“कभी किसी और का हिस्सा छीन लो, तो ऊपर वाला हिसाब बराबर कर देता है।”

आरव ने उसकी आँखों में देखते हुए कहा—
“कभी-कभी जो चीज़ हमें लगती है कि हमने छीनी है, असल में वही हमें दी जाती है।”

उस रात दोनों के बीच की दूरी जैसे मिटने लगी।


दसवां दिन

आख़िर वो दिन आ गया, जब समझौते की घड़ी पूरी होनी थी। अनन्या बैग लेकर माँ के पैर छूकर दरवाज़े तक पहुँची। चेहरे पर शांति थी, आँखों में कोई शिकायत नहीं।

आरव चाहता था कि चिल्लाकर कहे—
“रुको, अनन्या मत जाओ।”
पर शब्द गले में अटक गए।

माँ ने धीरे से कहा—
“बेटा, अगर उसने दिल में जगह बना ली है, तो क्यों नहीं कह देते? सच और प्यार को रोका नहीं जाता।”

पर अनन्या चली गई।


दिल का रिश्ता

अनन्या के जाने के बाद आरव बेचैन हो गया। हर कमरे में उसकी खुशबू महसूस होती। आखिर वो दौड़ पड़ा—स्टेशन, बस अड्डा, हर जगह उसे ढूँढने लगा।

आखिरकार स्टेशन पर उसने उसे देख लिया। नीली साड़ी, कंधे पर बैग। आरव उसके सामने जाकर बोला—
“अन्या, रुको। ये देखो—वो कागज़ जिस पर लिखा था दस दिन बाद रिश्ता खत्म हो जाएगा। मैंने आज इसे फाड़ दिया। अब ये रिश्ता कागज़ पर नहीं, मेरे दिल पर लिखा है।”

अनन्या की आँखें भर आईं। बोली—
“लेकिन हम तो सिर्फ एक समझौते में बँधे थे…”

आरव ने उसका हाथ थामा—
“समझौते भी कभी-कभी सच्चे रिश्तों का रास्ता बन जाते हैं।”

अनन्या फूट पड़ी, पर उसके आँसुओं में अब विश्वास था।


नई शुरुआत

दोनों घर लौटे। माँ ने भगवान के सामने हाथ जोड़कर कहा—
“भगवान के घर देर होती है, अंधेर नहीं। जोड़ी वही बनाता है।”

उस शाम आरव ने सब रिश्तेदारों के सामने घोषणा की—
“अनन्या मेरी पत्नी है। सिर्फ नाम से नहीं, दिल से, आत्मा से।”

तालियाँ गूँज उठीं। कोई मंडप, कोई बारात नहीं थी—फिर भी वो शादी पूरी थी।

अनन्या की मुस्कान अब हर कोने में बस चुकी थी। माँ की तबियत भी इलाज से सुधरने लगी।

आरव अक्सर उससे कहता—
“तुम आई तो मजबूरी में थी, लेकिन रहोगी हमेशा के लिए… मेरी जिंदगी का सबसे खूबसूरत हिस्सा बनकर।”

अनन्या मुस्कुरा देती, और उसकी आँखें सब कह जातीं।


संदेश

दोस्तों, ये कहानी हमें सिखाती है कि कुछ रिश्ते मजबूरी में शुरू होते हैं, लेकिन सच्चाई और भरोसा उन्हें हमेशा के लिए जोड़ देता है। प्यार कभी दिखावे से नहीं बल्कि छोटे-छोटे एहसासों से बड़ा होता है।

जो रिश्ता दिल से जुड़ जाए, वो दस दिन क्या, दस जन्मों तक साथ निभाता है।