Dharmendra Death: Hema Malini की इन तस्वीरों से मची खलबली, किया ऐसा पोस्ट की Sunny-Bobby के उड़े होश
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बॉलीवुड की चमक-धमक भरी दुनिया हमेशा इतनी सपनों जैसी नहीं होती, और यह बात हमें दिखाती है खुद ड्रीम गर्ल हेमा मालिनी की जिंदगी। हाल ही में, बॉलीवुड के दिग्गज अभिनेता धर्मेंद्र का निधन हुआ, जिससे न केवल उनके परिवार बल्कि उनके प्रशंसकों में भी गहरा सदमा लगा। धर्मेंद्र के निधन के बाद, उनकी पत्नी हेमा मालिनी द्वारा सोशल मीडिया पर साझा की गई तस्वीरों ने हलचल मचा दी है, जिससे उनके परिवार में तनाव और जटिलताओं के संकेत मिलते हैं।
धर्मेंद्र का अचानक निधन
धर्मेंद्र, जिन्होंने भारतीय सिनेमा में कई यादगार भूमिकाएँ निभाई हैं, का निधन 24 नवंबर को हुआ। उनका निधन अचानक हुआ, और इस पर कोई स्पष्ट जानकारी नहीं दी गई। उनके स्वास्थ्य की स्थिति के बारे में पहले से ही अटकलें थीं, लेकिन जब वे अस्पताल में भर्ती हुए, तब उनके परिवार ने इसे छिपाने की कोशिश की। इस स्थिति ने उनके प्रशंसकों और मीडिया में कई सवाल उठाए।
हेमा मालिनी ने अपने पति के निधन पर शोक व्यक्त करते हुए सोशल मीडिया पर कई भावुक पोस्ट साझा किए। इन पोस्टों में उनके जीवन की कुछ अनमोल यादें और उनके साथ बिताए गए पलों की तस्वीरें शामिल थीं। इन तस्वीरों ने न केवल उनके प्रेम को दर्शाया, बल्कि यह भी दिखाया कि कैसे परिवार में तनाव और जटिलताएँ थीं।

हेमा मालिनी का भावुक पोस्ट
हेमा मालिनी ने अपने फेसबुक और ट्विटर पर कई तस्वीरें साझा कीं, जिनमें से एक में उन्होंने धर्मेंद्र के साथ विवाह के समय की तस्वीर साझा की। उन्होंने लिखा, “धर्म जी मेरे लिए बहुत चीजें थे, एक प्रेमी पति, हमारी दो बेटियों का प्यारा पिता।” इस पोस्ट ने दर्शाया कि वे अपने पति के प्रति कितनी गहरी भावनाएँ रखती थीं, लेकिन साथ ही उन्होंने अपनी बेटियों का भी उल्लेख किया, जो उनके पहले विवाह से थीं।
यहां यह ध्यान देने योग्य है कि धर्मेंद्र के छह बच्चे थे, लेकिन हेमा ने विशेष रूप से अपनी दो बेटियों, ईशा और अहाना का उल्लेख किया। यह एक संकेत था कि उनके परिवार में दो अलग-अलग हिस्से थे। यह स्थिति और भी जटिल हो जाती है जब हम देखते हैं कि धर्मेंद्र की पहली पत्नी प्रकाश कौर ने कभी भी हेमा को अपने घर में आने की अनुमति नहीं दी।
परिवार के बीच तनाव
धर्मेंद्र और हेमा मालिनी की शादी के बाद से ही उनके रिश्ते में विवाद और तनाव का इतिहास रहा है। हेमा ने कई बार बताया है कि उन्हें कभी भी धर्मेंद्र की संपत्ति या पैसे की आवश्यकता नहीं थी। उनका मानना था कि जो सम्मान और प्यार उन्हें मिला है, वही उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण है। लेकिन यह भी सच है कि प्रकाश कौर के चार बच्चे थे और वे अपने परिवार को एकजुट रखना चाहती थीं।
हेमा का यह कहना कि “मुझे धर्मेंद्र की संपत्ति नहीं चाहिए” उनके चरित्र और उनकी इंटेग्रिटी को दर्शाता है। उन्होंने यह भी कहा कि वे कभी भी प्रकाश कौर के परिवार में कोई तनाव नहीं चाहती थीं। लेकिन इस स्थिति में, उनके पति के निधन के बाद, यह स्पष्ट हो गया है कि उनके परिवार में अभी भी कुछ unresolved issues हैं।
अंतिम विदाई का अधिकार
जब धर्मेंद्र का निधन हुआ, तो हेमा मालिनी को अंतिम संस्कार में जाने की अनुमति नहीं दी गई। यह एक पत्नी के लिए बेहद दुखद है कि वह अपने पति को अंतिम बार देखने का मौका नहीं पा सकी। यह सवाल उठता है कि क्या हेमा को अपने पति के अंतिम क्षणों में उनके पास जाने का अधिकार नहीं था? चाहे वह दूसरी पत्नी हो, लेकिन एक पत्नी का अधिकार तो होता है।
धर्मेंद्र का अंतिम संस्कार बहुत जल्दी और बिना किसी सार्वजनिक विदाई के किया गया। हेमा मालिनी सीधे श्मशान घाट पहुंचीं, लेकिन उनके पति के घर तक नहीं गईं। यह स्थिति दर्शाती है कि परिवार में अभी भी बहुत सी बातें अनकही और अधूरी हैं।
सोशल मीडिया पर हलचल
हेमा मालिनी की तस्वीरों और पोस्ट ने सोशल मीडिया पर हलचल मचा दी। उनकी तस्वीरों में धर्मेंद्र के साथ बिताए गए पलों की झलक मिलती है, लेकिन साथ ही यह भी दर्शाता है कि उनके दिल में एक गहरी पीड़ा है। उनकी तस्वीरें और पोस्ट इस बात को उजागर करती हैं कि वे अपने पति को अंतिम विदाई देना चाहती थीं, लेकिन परिस्थितियों ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया।
हेमा के पोस्ट में यह भी साफ है कि वे अपने पति के प्रति कितनी भावुक थीं। उन्होंने अपने पति की याद में कई तस्वीरें साझा कीं, जो उनके जीवन की खूबसूरत यादों को ताजा करती हैं। यह पोस्ट न केवल उनके प्यार को दर्शाती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि वे अपने पति के बिना कितनी अकेली महसूस कर रही हैं।
धर्मेंद्र का प्यार
धर्मेंद्र और हेमा मालिनी का प्यार किसी से छिपा नहीं है। उनकी प्रेम कहानी ने फिल्म उद्योग में कई चर्चाएँ पैदा कीं। धर्मेंद्र ने अपने नाम को बदलकर दिलावर खान रखा था ताकि वह हेमा से शादी कर सकें। यह दर्शाता है कि उन्होंने अपने प्यार के लिए कितनी बलिदान दी।
हालांकि, धर्मेंद्र की पहली पत्नी प्रकाश कौर ने इस रिश्ते को स्वीकार नहीं किया, लेकिन हेमा ने हमेशा धर्मेंद्र के प्रति अपनी वफादारी दिखाई। उनका यह कहना कि “मैंने कभी धर्मेंद्र की संपत्ति नहीं चाही” उनके चरित्र को दर्शाता है।
अंतिम विचार
धर्मेंद्र का निधन एक ऐसा क्षण है जिसने न केवल उनके परिवार को प्रभावित किया है, बल्कि उनके प्रशंसकों को भी गहरा सदमा दिया है। हेमा मालिनी की तस्वीरें और पोस्ट इस बात को दर्शाते हैं कि वे अपने पति के प्रति कितनी भावुक थीं और उनके बिना कितनी अकेली महसूस कर रही हैं।
धर्मेंद्र की मृत्यु के बाद, यह स्पष्ट है कि उनके परिवार में कई जटिलताएँ हैं। हेमा मालिनी का दुख और उनकी भावनाएँ इस बात को दर्शाती हैं कि एक पत्नी के लिए अपने पति को अंतिम विदाई देना कितना महत्वपूर्ण होता है।
इस स्थिति में, यह सवाल उठता है कि क्या हेमा को अपने पति के अंतिम क्षणों में उनके पास जाने का अधिकार नहीं था? चाहे वह दूसरी पत्नी हों, लेकिन एक पत्नी का अधिकार तो होता है। यह एक ऐसा मुद्दा है जिसे समझा जाना चाहिए और इस पर विचार किया जाना चाहिए।
धर्मेंद्र के निधन के बाद, यह निश्चित रूप से एक कठिन समय है, लेकिन उनके परिवार को एकजुट होकर इस कठिनाई का सामना करना होगा। उनके जीवन की यादें हमेशा उनके प्रशंसकों और परिवार के दिलों में जीवित रहेंगी।
एक रोटी – देशभक्ति और नेकी का अमर प्रतिफल
क्या देशभक्ति सिर्फ सरहदों पर बंदूक उठाने का नाम है? या वह उस गरीब के दिल में भी जलती है, जो अपनी एक वक्त की रोटी उस वर्दी वाले को खिलाकर खुद को धन्य समझता है? क्या नेकी का कोई मोल होता है? और अगर होता है, तो क्या किस्मत उसका कर्ज चुकाने के लिए खुद चलकर आती है?
यह कहानी है बलवंत सिंह की – एक बूढ़े ढाबे वाले की, जिसके लिए फौजी की वर्दी भगवान का रूप थी। जिसने अपनी जमा पूंजी, अपनी बेटी के भविष्य की चिंता को एक तरफ रखकर सरहद जा रहे भूखे-प्यासे फौजियों को अपने हाथों से खाना खिलाया, और बदले में एक पैसा तक नहीं लिया। उसने तो बस अपना फर्ज निभाया था। लेकिन कुछ महीने बाद जब सेना का वही काफिला दोबारा उसके ढाबे पर रुका, वे अपने साथ सिर्फ यादें नहीं, बल्कि एक ऐसी सौगात लेकर आए थे जिसने बलवंत सिंह की सात पुश्तों की तकदीर बदल दी।
पठानकोट से जम्मू – ढाबे की कहानी
नेशनल हाईवे पर पहाड़ों की तलहटी में एक छोटा सा ढाबा – शेर ए पंजाब फौजी ढाबा। बांस के खंभों पर टिकी टीन की छत, लकड़ी की पुरानी बेंचें, और एक कोने में धुएं से काली रसोई। यहां के खाने में घर जैसी मोहब्बत थी। मालिक और रसोइया – 70 साल के सरदार बलवंत सिंह। सिर पर नीली पगड़ी, सफेद दाढ़ी, चेहरे पर तजुर्बों की लकीरें, लेकिन आंखों में फौजी जैसी चमक।
बलवंत सिंह खुद फौज में भर्ती होना चाहते थे, लेकिन जिम्मेदारियों ने रोक लिया। उनका सपना उनके बेटे विक्रम ने पूरा किया – भारतीय सेना में कैप्टन। चार साल पहले विक्रम कश्मीर में आतंकियों से लड़ते हुए शहीद हो गया। उसकी पत्नी भी चल बसी, पीछे रह गई पांच साल की बेटी प्रिया। अब बलवंत सिंह की दुनिया सिर्फ प्रिया थी – उसका सपना, उसका हौसला, उसका मकसद।
प्रिया पढ़ने में होशियार थी, डॉक्टर बनना चाहती थी। बलवंत सिंह दिन-रात ढाबे में मेहनत करते, लेकिन कमाई बस इतनी थी कि दो वक्त की रोटी और थोड़ी बचत हो पाती। प्रिया की आगे की पढ़ाई का खर्चा किसी पहाड़ जैसा था।
फौजियों का काफिला – एक रोटी का जादू
अगस्त की उमस भरी दोपहर। बलवंत सिंह रसोई में रोटियां सेक रहे थे, प्रिया बाहर होमवर्क कर रही थी। तभी सेना के तीन बड़े ट्रक ढाबे के सामने रुके। करीब 25 फौजी उतरे – थके हुए, धूल से सनी वर्दियों में। बलवंत सिंह का दिल उमड़ पड़ा – बेटे की याद, फौजी वर्दी का सम्मान, इन जवानों के लिए ममता।
“आओ पुत्तर, आओ जी आया!”
फौजी बेंचों पर बैठे। उनके लीडर, सूबेदार मेजर गुरमीत सिंह ने पूछा, “बाऊजी, खाना मिलेगा? जवान बहुत भूखे हैं, सरहद पर जा रहे हैं।”
बलवंत सिंह का सीना गर्व से चौड़ा हो गया। “आज तो मेरे ढाबे की किस्मत खुल गई! देश के रक्षक खुद मेहमान बनकर आए हैं। तुम सब हाथ-मुंह धो लो, मैं गरमा-गरम खाना लगाता हूं।”
एक घंटे तक बलवंत सिंह ने ताजी रोटियां सेकी, दाल में मक्खन का तड़का, आलू-गोभी की सब्जी, प्याज-मिर्च का सलाद। प्रिया दौड़-दौड़ कर सबको पानी पिला रही थी। फौजियों ने कई दिनों बाद ऐसा स्वादिष्ट खाना खाया। खाना खाने के बाद गुरमीत सिंह बिल चुकाने आए।
“बाऊजी, कितना पैसा हुआ?”
बलवंत सिंह की आंखें नम हो गईं। “नहीं पुत्तर, पैसे नहीं। तुम लोग देश की रखवाली के लिए जान देने जा रहे हो। और मैं तुमसे पैसे लूं? मुझसे यह पाप नहीं होगा।”
गुरमीत सिंह और जवान निशब्द हो गए। बहुत जोर दिया, पर बलवंत सिंह ने एक भी रुपया लेने से इंकार कर दिया।
गुरमीत सिंह ने एक आर्मी प्रतीक चिन्ह उनके हाथ में रख दिया – “बाऊजी, इसे अपने पास रखिए, यह हमारी तरफ से सलामी है। जब भी हम इस रास्ते से गुजरेंगे, आपके हाथ की बनी रोटी खाने जरूर आएंगे।”
फौजी चले गए, लेकिन बलवंत सिंह की आंखों में तृप्ति और शांति छोड़ गए। उस दिन उन्हें लगा – यही उनकी सबसे बड़ी कमाई है।
मुसीबतें – ढाबा उजड़ने की कगार पर
कुछ ही हफ्तों में मानसून आया। बारिश ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। ढाबे की छत में छेद, पानी टपकने लगा, राशन खराब, बेंचें भीग गईं। कमाई ठप हो गई। प्रिया की स्कूल फीस का वक्त नजदीक, घर में फाके।
बलवंत सिंह ने सूदखोर महाजन श्यामलाल से ढाबे के कागज गिरवी रखकर कर्ज लिया। फीस तो भर गई, लेकिन मरम्मत का काम अधूरा।
श्यामलाल रोज पैसे मांगने आता, जलील करता। “बुड्ढे, मेरे पैसे कब लौटाएगा? वरना यह ढाबा खाली कर दे!”
बलवंत सिंह गिड़गिड़ाए, “मोहलत दे दीजिए।”
श्यामलाल गुर्राया, “10 दिन की मोहलत! वरना 11वें दिन तू और तेरी पोती सड़क पर!”
बलवंत सिंह टूट चुके थे। एक रात फूट-फूट कर रोए – पोती का सपना, बेटे की आखिरी निशानी, सब कुछ खत्म होने वाला था।
किस्मत का करिश्मा – सेना का वादा
10 दिन बाद, श्यामलाल लठैतों के साथ सामान बाहर फेंकने लगा। तभी सड़क पर कई गाड़ियों के हॉर्न बजे। सेना के ट्रक और जीपों का काफिला ढाबे पर रुका।
सूबेदार मेजर गुरमीत सिंह, कंधे पर कर्नल के सितारे वाले अफसर के साथ उतरे।
गुरमीत सिंह ने बलवंत सिंह के पैर छुए, “बाऊजी, हम आ गए अपना वादा निभाने।”
श्यामलाल चिल्लाया, “बुड्ढे, मोहलत खत्म, खाली करो मेरा ढाबा!”
गुरमीत सिंह बोले, “यह तुम्हारा ढाबा कब से हो गया?”
श्यामलाल बोला, “कर्ज लिया है, अब मेरा है।”
कर्नल साहब आगे बढ़े, “कितना कर्ज?”
“50000…”
कर्नल ने जवान को इशारा किया, ब्रीफकेस से नोटों की गड्डियां निकालकर श्यामलाल के मुंह पर दे मारी।
“यह लो, अब दफा हो जाओ! वरना कर्ज की कानूनी जांच भी होगी।”
श्यामलाल चुपचाप पैसे उठाकर भाग गया।
बलवंत सिंह और प्रिया हैरान थे।
सम्मान और सौगात – नेकी का प्रतिफल
कर्नल साहब बोले, “बाऊजी, हमें माफ कीजिए, देर हो गई।
यह एहसान नहीं, कर्ज है जो आपके उस दिन के खाने का है।
हम फौजी किसी का कर्ज नहीं रखते।”
गुरमीत सिंह ने फोल्डर थमाया – “बाऊजी, आपने उस दिन 20 जवानों को खाना खिलाया था। आज हम 200 जवान आए हैं, और हम सब आज यही खाना खाएंगे।
पर इस टूटे ढाबे में नहीं – हम इसे दोबारा बनाएंगे।
भारतीय सेना ने फैसला किया है – आपके ढाबे को गोद लेगी।
यहां नया, बड़ा और आधुनिक ढाबा बनेगा।
यह हाईवे पर सेना का आधिकारिक विश्राम स्थल होगा।
पूरा ठेका आपका रहेगा, हर महीने आमदनी मिलेगी।”
बलवंत सिंह को विश्वास नहीं हुआ।
“और बाऊजी, अब इसका नाम होगा – शहीद कैप्टन विक्रम सिंह मेमोरियल ढाबा।
यह आपके बेटे को सेना की तरफ से श्रद्धांजलि होगी।”
बलवंत सिंह जमीन पर बैठ गए, आंसुओं का सैलाब फूट पड़ा।
कर्नल साहब प्रिया के पास गए, “बेटी, तुम डॉक्टर बनना चाहती हो ना?
तुम्हारी पढ़ाई की पूरी जिम्मेदारी आज से भारतीय सेना की है।
पुणे के आर्म्ड फोर्सेस मेडिकल कॉलेज में एडमिशन, रहना, खाना, फीस – सब सेना उठाएगी।
तुम बस मन लगाकर पढ़ना और देश की सेवा करना।”
नई शुरुआत – सम्मान और सुकून
कुछ महीनों में उस पुराने ढाबे की जगह शहीद कैप्टन विक्रम सिंह मेमोरियल ढाबा खड़ा हो गया। उद्घाटन के लिए सेना के अफसर आए, बलवंत सिंह ने फीता काटा।
ढाबे की दीवार पर विक्रम सिंह की तस्वीर लगी थी।
अब बलवंत सिंह मजबूर बूढ़े ढाबे वाले नहीं, सम्मानित उद्यमी थे।
वह हर फौजी को उसी प्यार से खाना खिलाते, आंखों में गर्व और संतोष की चमक थी।
प्रिया पुणे में डॉक्टरी की पढ़ाई करने लगी। छुट्टियों में दादा का हाथ बंटाने ढाबे पर आ जाती।
सीख और संदेश
यह कहानी सिखाती है – देशभक्ति और नेकी का कोई भी काम, चाहे कितना भी छोटा क्यों न लगे, कभी व्यर्थ नहीं जाता।
बलवंत सिंह ने बस कुछ भूखे फौजियों को एक रोटी खिलाई थी।
बदले में भारतीय सेना ने उन्हें और उनकी पोती को जिंदगी भर का सम्मान और सुरक्षा दे दी।
यह साबित करता है – भारतीय सेना सिर्फ सरहदों की ही नहीं, सच्चे देशभक्तों के सम्मान की भी रक्षा करती है।
अगर बलवंत सिंह की इस देशभक्ति और भारतीय सेना के विशाल हृदय ने आपके दिल में गर्व की लहर पैदा की है, तो इस कहानी को लाइक और शेयर करें।
कमेंट्स में “जय हिंद” लिखकर वीर जवानों और बलवंत सिंह जैसे नागरिकों को सलामी दें।
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जय हिंद!
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