कहानी: “इंसानियत का स्टेशन”

दिल्ली मेट्रो स्टेशन की एक आम सुबह थी। हर तरफ भीड़, अनाउंसमेंट्स की गूंज, भागदौड़, और जल्दी में भागते लोग – जैसे किसी को अगला स्टेशन ही असली मंज़िल लग रहा हो। गेट के पास टोकन मशीनों की लंबी लाइन थी। इसी भीड़ में एक बुजुर्ग दाखिल हुए—करीब 75 साल के, साधारण धोती-कुर्ता, हल्के सफेद बाल, टूटी चप्पलें और कंधे पर एक पुराना सा झोला। चाल धीमी थी, पर आंखों में गहरी शांति और आत्मविश्वास।

उन्होंने सिक्योरिटी डेस्क पर जाकर विनम्रता से कहा, “बेटा, मेरी टोकन में मदद कर दो। मशीन समझ में नहीं आ रही।” डेस्क पर खड़ा युवा गार्ड मोबाइल में मगन था, कान में इयरफोन। उसने बुजुर्ग को देखा और हंस पड़ा—”ओ भैया, ये मेट्रो है, भिखारी केन्द्र नहीं। बाहर निकलो, झोला लेकर बहुत जगह पड़ी हैं।”

पास खड़े कुछ यात्रियों ने यह देखकर बस मुस्कुराने तक खुद को सीमित रखा। कोई आगे नहीं बढ़ा। बुजुर्ग ने चुपचाप अपना झोला पकड़ लिया और प्लेटफॉर्म की ओर बढ़ गए। ट्रेन चढ़ने ही वाले थे कि दूसरा गार्ड आया और तेजी से उन्हें धक्का दे दिया—”ये मेट्रो है, तेरी झगराते वाली बस नहीं, बाहर निकल!”

बुजुर्ग गिरे, शायद चोट बड़ी नहीं लगी, मगर अपमान की गहरी चोट थी। वे अकेले ही उठे, झोला संभाला और स्टेशन से बाहर चले गए।

स्टेशन के बाहर बैठकर उन्होंने अपने पुराने की-पैड फोन से नंबर मिलाया। सिर्फ एक लाइन बोली—”ऑपरेशन स्टॉप।” अभी 15 मिनट भी नहीं बीते थे कि पूरे दिल्ली मेट्रो नेटवर्क में रुकावट की खबरें छा गईं। ट्रेनें थम गई, एलईडी बोर्ड्स पर ‘टेम्परेरी सर्विस हल्टेड’, न्यूज चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज़—”दिल्ली मेट्रो ठप”।

स्टाफ रूम में हड़कंप मच गया। अफसर परेशान—कैसे, क्यों हुआ? इसी वक्त, वही बुजुर्ग फिर सीढ़ियों पर दिखे। अब इस बार कोई गार्ड नहीं, बल्कि खुद मेट्रो के जोनल डायरेक्टर दौड़ते हुए आए—”सर, हमें माफ कीजिए, हमें पता नहीं था कि आप…!”

माहौल बदल चुका था। थोड़ी देर पहले जिन सीढ़ियों पर बुजुर्ग गिराए गए थे, अब वहां मेट्रो स्टाफ सिर झुकाए खड़े थे—आंखों में डर, माथे पर पसीना। बस एक आवाज—”सर, हम पहचान नहीं पाए…”

बुजुर्ग चुपचाप चलकर उसी सिक्योरिटी डेस्क पर पहुंचे, जहां से धक्का मिला था। वही गार्ड अब तो कांप रहा था, चेहरा पीला पड़ा, “सर…माफ कर दीजिए…मुझे नहीं पता था…”

बुजुर्ग ने आंखों में आंखें डालकर बहुत देर तक देखा और बोले— “समस्या ये नहीं कि तुमने मुझे नहीं पहचाना, समस्या ये है कि तुमने मुझे इंसान भी नहीं समझा।”

भीड़ में एक वरिष्ठ अधिकारी बाहर आया, उसने पूरे स्टेशन पर सुनाया— “यह हैं श्रीमान शरदनाथन, देश के प्रमुख मेट्रो इंफ्रास्ट्रक्चर सलाहकार, जिन्होंने दिल्ली मेट्रो प्रोजेक्ट का मूल खाका तैयार किया था। अभी अंडरकवर ऑडिट के लिए आए थे।”

अब माहौल में सन्नाटा था। एक पत्रकार लाइव हो गया—”जिनकी वजह से मेट्रो चली, आज उन्हीं को कपड़ों समेत पहचान से बाहर कर दिया गया।” सोशल मीडिया पर “#शरद_सर”, “डॉक्टर_मेट्रोशेम” जैसे हैशटैग वायरल होने लगे।

प्लेटफार्म पर खड़े शरदनाथन जी बोले— “यह स्टेशन ईंटों से नहीं, सपनों से बनाया था। आज समझ आया, वह सपने बस ढांचे थे, आत्मा नहीं थी। मैंने सिस्टम बनाया, संस्कार देना भूल गया।”

सबके सिर झुके। एक यात्री आगे बढ़ा—”सर, हम भी दोषी हैं, हमने कुछ नहीं कहा। केवल देखा। क्या हमारे चुप रहना भी गुनाह नहीं?” शरद जी मुस्कुराए— “बिल्कुल, खामोशी अन्याय की सबसे बड़ी ताकत है।”

उन्होंने फोन निकाला, सिर्फ एक मैसेज—”सर्विस ऑन।” कुछ ही सेकंड में बोर्ड्स पर लिखा आया—”सर्विस रिज्यूम्ड”, ट्रेनें चलने लगीं। पर आज की रुकावट तकनीकी नहीं, चेतावनी थी—इंसानियत की कमी की।

शरद जी बोले— “ट्रेन जितनी तेज चले, उतना अच्छा। पर इंसानियत में थोड़ा रुकना सीखेंगे तो सफर सुंदर होगा। इंफ्रास्ट्रक्चर मजबूत हो यह जरूरी है, लेकिन चरित्र जिंदा हो, यह सबसे जरूरी।”

अगले दिन अखबारों में था— “जिसे भिखारी समझा, वह निकला मेट्रो सिस्टम का असली निर्माता।”

मेट्रोक्वार्टर में आपात मीटिंग हुई। CEO बोले— “हमने इमारतें तो बनाई, लेकिन इंसान बनाना भूल गए। अब वक्त है सबक लेने का।” नया अवसर पास हुआ—हर मेट्रो कर्मचारी को संवेदना प्रशिक्षण जरूरी। हर महीने ग्राहकों संग इज्जत संवाद। हर स्टेशन पर बोर्ड लगेगा— “हर मुसाफिर की इज्जत, हमारी असली सेवा है।”

उधर, वह गार्ड जिसने धक्का दिया था, उसने खुद चिट्ठी लिखी— “मैंने सिर्फ एक बुजुर्ग को नहीं, पूरी पीढ़ी की इज्जत गिराई। अगर कभी सेवा में लौटूं तो इंसान को इंसान समझकर ही सेवा करूंगा।”

कुछ दिन बाद शरदनाथन जी से एक टी.वी रिपोर्टर ने पूछा—“सर, आपने सिस्टम क्यों ठप किया?” शरदनाथन जी हंस पड़े— “कुछ बातें शोर से नहीं, रुकावट से समझाई जाती हैं। कभी-कभी यही रुकना असली सफर होता है।”

अब हर मेट्रो स्टेशन पर एक बड़ा बोर्ड लगा— “कभी किसी की सादगी से उसकी अहमियत मत मापो। वरना सिस्टम तो चल जाएगा लेकिन इंसानियत रुक जाएगी।”

अब, जब भी कोई बुजुर्ग स्टेशन आता है, गार्ड मुस्कुराता है, हाथ जोड़कर कहता है—”नमस्ते सर, कैसे मदद करूं?”