गरीब लड़की रोज होटल का बचा खाना माँगती थी… एक दिन मालिक ने जो किया, इंसानियत रो पड़ी

गरीब लड़की रीमा और होटल मालिक अजय वर्मा की पूरी कहानी 

लखनऊ शहर के एक व्यस्त बाजार में एक छोटा सा होटल था। होटल बड़ा नहीं था, लेकिन उसकी सफाई और सुकून देने वाली माहौल के कारण वहां रोज़ दर्जनों लोग खाना खाने आते थे। होटल का मालिक था अजय वर्मा – एक साधारण, मेहनती और नेकदिल इंसान। उसका मानना था कि असली खाना वही है जो किसी भूखे के पेट तक पहुंचे और उसे तृप्ति दे। इसी सोच ने उसे बाकी होटल मालिकों से अलग बना दिया था।

हर शाम, जब होटल के ग्राहक चले जाते और रसोई में बचा हुआ खाना इकट्ठा होता, एक गरीब सी लड़की – रीमा – चुपचाप होटल में आ जाती। उसकी उम्र करीब 18 साल थी। उसकी आंखों में मासूमियत और चेहरे पर झिझक साफ झलकती थी। वह बिना कुछ कहे इंतजार करती और जब बचा खाना अलग रखा जाता, अपनी पुरानी थैली आगे कर देती। अजय ने पहली बार देखा तो हैरान हुआ, लेकिन बिना सवाल पूछे रोटियां, सब्जी और चावल उसकी थैली में डलवा दिए।

धीरे-धीरे यह रोज़ की दिनचर्या बन गई। अजय को अब रीमा का इंतजार रहता था। उसने अपने कर्मचारियों को भी साफ आदेश दिए – “अगर मैं होटल में न रहूं तो भी इस बच्ची को कभी खाली हाथ मत लौटाना।” रीमा रोज़ आती, खाना लेकर चुपचाप चली जाती। दोनों के बीच एक अनकहा रिश्ता बन गया था।

एक दिन होटल में इतना भीड़ हुआ कि खाना बचा ही नहीं। रीमा आई, लेकिन उसके लिए कुछ नहीं था। वह चुपचाप लौट गई। अजय के दिल में कसक रह गई। उसी शाम, पास के सब्जी वाले ने रीमा को सब्जी चोरी के आरोप में पकड़ लिया। उसकी कमीज फटी थी, चेहरे पर आंसू थे, और भीड़ तमाशा देख रही थी। अजय ने आगे बढ़कर उसे छुड़ाया, पैसे दिए और सबको शांत किया। उस रात अजय सो नहीं सका। उसे एहसास हुआ कि उसने सिर्फ रीमा की भूख बुझाई, उसकी असली तकलीफ कभी नहीं जानी।

फिर कोरोना और लॉकडाउन का समय आया। होटल बंद हो गया, ग्राहक गायब, चूल्हा ठंडा। अजय की चिंता थी – अपने स्टाफ की तनख्वाह और रीमा की भूख। अगले ही दिन रीमा फिर आ गई, लेकिन होटल में कुछ नहीं बना था। अजय ने दुखी होकर कहा – “बेटा, आज मेरे पास कुछ नहीं है।” रीमा ने कोई शिकायत नहीं की, बस दर्द भरी आंखों से देखा और लौट गई।

अजय ने अपने स्टाफ को पैसे बांट दिए, होटल बंद कर दिया और भगवान से प्रार्थना की – “हे प्रभु, यह कठिन समय जल्दी बीत जाए।” उसी शाम, फिर से सब्जी वाले ने रीमा को पकड़ लिया। अजय ने फिर उसकी मदद की, पैसे दिए और सब्जी वाले को शांत किया। इस बार अजय ने ठान लिया – अब वह सिर्फ खाना नहीं देगा, रीमा की असली जिंदगी जानेगा।

अगली शाम, अजय ने रीमा का पीछा किया। वह झुग्गी बस्ती में एक छोटी सी झोपड़ी में गई। अजय ने अंदर झांका – वहां एक बूढ़ा आदमी बीमार पड़ा था, रीमा सब्जी काट रही थी। अजय ने अंदर जाकर बात की। रीमा ने बताया – “यह मेरे बाबा हैं। पहले नौकरी करते थे, लेकिन एक्सीडेंट में कमर टूट गई। अब सब जिम्मेदारी मेरी है।”

अजय ने पूछा – “तुम रोज़ इतना खाना क्यों बनाती हो?” रीमा ने मासूमियत से जवाब दिया – “साहब, आस-पड़ोस के बच्चे कई दिनों से भूखे रहते हैं। अगर मैं अकेले खा लूं और वे भूखे रह जाएं तो भगवान को क्या जवाब दूंगी?” अजय हैरान रह गया। उसने पैसे दिए, रीमा की मदद की और महसूस किया कि इंसानियत का असली मतलब यही है – दूसरों के दुख को अपना समझना।

अगली सुबह, अजय ने होटल दोबारा खोलने का फैसला लिया – अब होटल पैसे कमाने के लिए नहीं, बल्कि भूख मिटाने के लिए खुलेगा। दाम बहुत कम रखे, जरूरतमंदों के लिए मुफ्त खाना। धीरे-धीरे इलाके में चर्चा फैल गई – “जहां सब राशन बचा रहे हैं, अजय गरीबों का पेट भर रहा है।” कुछ आलोचना भी करते, लेकिन अजय को फर्क नहीं पड़ता था। उसे बस गरीबों की दुआओं का सहारा था।

एक दिन एक अनजान व्यक्ति आया और ₹1 लाख का चेक दे गया – “आप नेक काम कर रहे हैं, यह सेवा कभी रुके नहीं।” कई NGO और दानदाता मदद के लिए आगे आए। दो महीने तक अजय और उसकी टीम ने लगातार लोगों को खाना खिलाया। लॉकडाउन हटने के बाद होटल फिर से ग्राहकों से भर गया। लेकिन अब माहौल बदल चुका था। लोग कहते – “यह वही होटल है जिसने लॉकडाउन में हमें भूखा नहीं रहने दिया।”

अजय ने अपनी कमाई का हिस्सा गरीब बच्चों की शिक्षा और भोजन में लगाना शुरू किया। रीमा को भी हर महीने मदद देने लगा ताकि वह अपने इलाके के भूखे बच्चों को खाना बांट सके। अजय को रीमा की वह बात याद आई – “अगर मेरा पड़ोसी भूखा सोए और मैं पेट भरकर खा लूं तो भगवान को क्या जवाब दूंगी?” यह बात उसके दिल में अमिट बन गई।

चार साल बाद, जब अजय ने अपने खाते देखे – जिस दिन होटल बंद हुआ था, बैंक में सिर्फ ₹862 थे। आज ₹88 लाख थे। लेकिन अजय गर्व से कहता – “यह दौलत मेरी नहीं है, भगवान की कृपा है और गरीबों का हक है। जब मैं इसे बांट दूंगा, भगवान मुझे इससे भी 10 गुना ज्यादा देंगे।”

अब अजय का होटल सिर्फ होटल नहीं, इंसानियत का प्रतीक बन चुका था। लोग कहते – “यहां खाना नहीं, दुआएं परोसी जाती हैं।” कहानी से सीख मिलती है कि नियत साफ रखो, भगवान खुद रास्ता आसान कर देता है। बांटने से कभी कमी नहीं होती, बल्कि बरकत बढ़ती है। जरूरतमंदों का ख्याल रखना सबसे बड़ा धर्म है। संघर्ष हमें गिराने नहीं, मजबूत बनाने आते हैं। बदलाव की शुरुआत हमेशा खुद से करनी चाहिए।

अगर आप अजय वर्मा की जगह होते तो क्या इतना बड़ा कदम उठाते? सोचिए, और इंसानियत निभाइए।

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