शाहिद की कहानी: संघर्ष और सफलता
परिचय
क्या होता है जब ज्ञान का सूरज गरीबी के बादलों में छिपने पर मजबूर हो जाता है? क्या होता है जब एक हीरे को कोयले की खान में मजदूरी करनी पड़ती है? क्या किसी इंसान के फटे हुए कपड़ों और धूल से सने हाथों के पीछे छिपी उसकी असली काबिलियत को दुनिया कभी देख पाती है? यह कहानी एक ऐसे हिंदुस्तानी नौजवान इंजीनियर की है, जिसके सपनों को उसकी गरीबी ने बेड़ियों में जकड़ दिया था और उसे एक मजदूर बनकर दुबई की तपती रेत पर काम करने के लिए भेज दिया था।
शाहिद का बचपन
उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में गंगा नदी के किनारे बसे एक छोटे से गुमनाम गांव का नाम था हस्तिनापुर। यह नाम भले ही ऐतिहासिक था, लेकिन गांव की किस्मत में इतिहास की धूल के सिवा कुछ नहीं था। इसी गांव के एक छोर पर एक पुराना कच्ची ईंटों का मकान था, जिसकी छत बरसात में टपकती थी और दीवारें गरीबी की कहानी कहती थीं। इसी घर में शाहिद का जन्म हुआ था। उसके पिता रहमत अली एक गरीब किसान थे, जिनके हिस्से में जमीन का एक छोटा सा टुकड़ा था, जो पूरे परिवार का पेट भरने के लिए नाकाफी था। उसकी मां सकीना एक बेहद ममतामई और ईश्वर से डरने वाली महिला थी, जो दूसरों के खेतों में मजदूरी करके घर के खर्च में हाथ बटाती थी।
शाहिद की एक छोटी बहन जोया भी थी, जिसकी आंखों में एक बेहतर भविष्य के सपने थे। इस घोर गरीबी के बावजूद रहमत अली और सकीना की एक ही जिद थी कि उनका बेटा पढ़ेगा। वे खुद अनपढ़ थे लेकिन जानते थे कि उनकी गरीबी का ताला सिर्फ तालीम की चाबी से ही खुल सकता है।
शिक्षा का सफर
शाहिद बचपन से ही पढ़ाई में असाधारण रूप से तेज था। गणित के मुश्किल से मुश्किल सवाल वह चुटकियों में हल कर देता था और विज्ञान के सिद्धांतों में उसकी गहरी रुचि थी। गांव के सरकारी स्कूल के मास्टर जी अक्सर रहमत अली से कहते थे कि तुम्हारा लड़का एक दिन बहुत बड़ा आदमी बनेगा। पिता ने अपनी हर जरूरत को मारा, पेट काटा और गांव के साहूकार से ऊंचे ब्याज पर कर्ज लेकर शाहिद को शहर के एक साधारण से कॉलेज में सिविल इंजीनियरिंग में दाखिला दिलवा दिया।
वो चार साल शाहिद की जिंदगी के सबसे कठिन साल थे। वह दिन में कॉलेज जाता और रात भर एक ढाबे पर बर्तन माजने का काम करता ताकि अपने रहने और खाने का खर्च निकाल सके। उसने अक्सर पुरानी सेकंड हैंड किताबें खरीद कर या लाइब्रेरी में बैठकर अपनी पढ़ाई पूरी की। उसके साथी छात्र जब वीकेंड पर घूमने फिरने जाते, तब भी शाहिद किसी छोटी-मोटी कंस्ट्रक्शन साइट पर दिहाड़ी मजदूरी करता ताकि वह इंजीनियरिंग को सिर्फ किताबों में नहीं बल्कि असल में सीमेंट और सरियों के बीच महसूस कर सके।
इन सारी मुश्किलों के बावजूद जब फाइनल ईयर का नतीजा आया तो शाहिद ने पूरे कॉलेज में टॉप किया। उसके हाथ में सिविल इंजीनियरिंग की डिग्री थी जिस पर सुनहरे अक्षरों में “फर्स्ट क्लास विद डिस्टिंशन” लिखा हुआ था। उस दिन जब वह डिग्री लेकर गांव पहुंचा तो उसके मां-बाप की आंखों में खुशी के आंसू थे। उन्हें लगा कि अब उनके दुख के दिन खत्म हो गए। अब उनका बेटा एक साहब बन गया है।
बेरोजगारी का सामना
लेकिन असल दुनिया कॉलेज के सपनों से बहुत अलग और कठोर थी। शाहिद ने कई महीनों तक नौकरी के लिए शहर-शहर की खाक छानी। वह हर इंटरव्यू में अपनी योग्यता साबित करता। लेकिन हर जगह उससे या तो किसी बड़े कॉलेज की डिग्री मांगी जाती या फिर अनुभव। उसके पास ना तो कोई बड़ी सिफारिश थी और ना ही अनुभव। धीरे-धीरे उसकी उम्मीदें टूटने लगीं। घर पर पिता का कर्ज बढ़ रहा था और बहन जोया की शादी की उम्र हो रही थी।
एक टॉपर इंजीनियर होने का गुमान अब एक बोझ लगने लगा था। एक दिन गांव के एक लड़के ने उसे दुबई के बारे में बताया। उसने कहा कि वहां कंस्ट्रक्शन का बहुत काम है और मजदूरों की बहुत जरूरत है। एक एजेंट है जो वीजा और टिकट का इंतजाम करवा सकता है। बस कुछ पैसे लगेंगे। शाहिद के दिल में एक पीस उठी। एक इंजीनियर, एक कॉलेज टॉपर अब मजदूर बनकर जाएगा। लेकिन फिर उसने अपने मां-बाप के झुके हुए कंधे, अपनी बहन की उदास आंखें और घर की टपकती हुई छत को देखा।
दुबई की यात्रा
उसका स्वाभिमान उसकी मजबूरियों के आगे घुटने टेक गया। उसने फैसला कर लिया। रहमत अली ने अपनी बची खुची जमीन का आखिरी टुकड़ा भी गिरवी रख दिया और एजेंट को पैसे दिए। जिस दिन शाहिद दुबई के लिए निकल रहा था, उसकी मां ने रोते-रोते उसके सर पर हाथ फेरा और कहा, “बेटा, अपना ख्याल रखना। तू साहब बनने गया था, मजदूर बनकर जा रहा है। लेकिन अपनी इंसानियत और ईमानदारी कभी मत छोड़ना।” पिता ने उसे गले लगाया और बस इतना कहा, “हमें तुम पर भरोसा है।”
दुबई में पहली सुबह
दुबई, सपनों का शहर। आसमान को छूती इमारतें, शीशे की तरह चमकती सड़कें और रात में भी तिन का घुमान पैदा करने वाली रोशनी। लेकिन शाहिद के लिए यह सपना नहीं, एक हकीकत थी और हकीकत बहुत चुभने वाली थी। एयरपोर्ट से उसे सीधा शहर के बाहरी इलाके सोनापुर में बने एक लेबर कैंप में ले जाया गया। वो कैंप एक अलग ही दुनिया थी। हजारों मजदूर भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और फिलीपींस से आए हुए छोटी-छोटी तंग कमरों में भेड़े बकरियों की तरह रहते थे।
शाहिद का बिस्तर एक तीन मंजिला बंकर बेड की सबसे ऊपरी बर्थ पर था। उसके साथ उस छोटे से कमरे में 15 और लोग रहते थे। अगले दिन से उसका काम शुरू हुआ। उसे अरेबियन नाइट्स टावर नाम की एक विशाल निर्माणाधीन गगनचुंबी इमारत की साइट पर भेजा गया। यह 120 मंजिला इमारत बननी थी जो दुबई के स्काईलाइन का एक नया नगीना होने वाली थी।
काम की कठिनाइयां
शाहिद का काम था सीमेंट की बोरियां उठाना, सरयों के बंडल ढोना और तपती धूप में कंक्रीट मिलाना। जून की वो जानलेवा गर्मी, 50° सेल्सियस का तापमान और सिर पर एक पीला हेलमेट। उसकी इंजीनियरिंग की डिग्री उसके टूटे फूटे सूटकेस में किसी कोने में धूल खा रही थी और उसका ज्ञान उसके दिमाग के अंदर कैद था। पहले कुछ हफ्ते उसके लिए नर्क की तरह थे।
उसका शरीर जो किताबों और कलम का आदि था, इस कठोर शारीरिक श्रम से टूट जाता था। रात को जब वह अपने बिस्तर पर लेटता तो उसके शरीर का हर हिस्सा दर्द से कराह उठता था। लेकिन उससे भी ज्यादा दर्द उसे अपने दिल में होता था। जब वह उस इमारत के विशाल नीले प्रिंट्स को देखता, जिन्हें साइट के इंजीनियर पढ़ा करते थे, तो उसके अंदर का इंजीनियर तड़प उठता था।
साहसिक निर्णय
वह जानता था कि वो नक्शों को सिर्फ पढ़ ही नहीं सकता बल्कि उन्हें बेहतर भी बना सकता है। लेकिन उसकी औकात सिर्फ एक मजदूर की थी, जिसका काम सिर्फ हुकुम मानना था। उसके साथ काम करने वाले ज्यादातर मजदूर अनपढ़ या कम पढ़े लिखे थे। वह सब अपनी-अपनी कहानियों का बोझ उठाए हुए थे। कोई अपनी बेटी की शादी के लिए पैसे जोड़ रहा था तो कोई अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देने के लिए अपने परिवार से हजारों मील दूर यह गुलामी कर रहा था।
शाहिद उन सबकी इज्जत करता था लेकिन वह उनसे घुलमिल नहीं पाता था। वो अक्सर खाली समय में चुपचाप बैठा उस इमारत के स्ट्रक्चर को देखता रहता। अपने मन ही मन कैल्कुलेशन करता रहता। इस प्रोजेक्ट के चीफ साइट इंजीनियर थे मिस्टर उमर अल मुबैदिला। एक 45 वर्षीय लंबे चौड़े रबदार अरब। मिस्टर उमर एक बेहद काबिल और अनुभवी इंजीनियर थे।
गलती की पहचान
लेकिन साथ ही बहुत गुस्सैल और सख्त भी थे। उनके लिए काम की क्वालिटी और समय सीमा ही सब कुछ थी। वह दिन में कई बार साइट का चक्कर लगाते थे और अगर उन्हें जरा सी भी गलती दिख जाती तो वह सुपरवाइजर से लेकर मजदूर तक किसी को भी नहीं बख्शते थे। उनकी गरजती हुई आवाज से पूरी साइट कांप उठती थी। हर कोई उनसे डरता था।
शाहिद ने भी उन्हें कई बार दूर से देखा था। वो उनकी प्रोफेशनलिज्म की इज्जत करता था, लेकिन उनके गुस्से से डरता भी था। काम करते हुए लगभग 3 महीने बीत चुके थे। शाहिद अब इस माहौल का आदि हो चुका था। एक दिन उसे और कुछ दूसरे मजदूरों को इमारत की 35वीं मंजिल पर कॉनक्रिट की ढलाई के लिए लगाए गए स्टील के शटरिंग को सहारा देने वाले जैक लगाने का काम दिया गया।
खतरे की घंटी
जब शाहिद जैक लगा रहा था तो उसकी नजर शटरिंग के नीचे बिछाए गए सरों के जाल पर पड़ी। कुछ ऐसा था जो उसे ठीक नहीं लग रहा था। उसने अपनी इंजीनियरिंग के दिनों को याद किया। यह एक कैंटलीवर स्लैब था। बालकनी का एक हिस्सा जो बिना किसी सहारे के बाहर की तरफ निकला हुआ था। शाहिद को याद था कि ऐसे स्ट्रक्चर में टेंशन को संभालने के लिए मुख्य सरयों को ऊपर की तरफ रखा जाता है।
लेकिन यहां मजदूरों ने गलती से या सुपरवाइजर की लापरवाही से मुख्य सरयों को नीचे की तरफ बिछा दिया था। यह एक बहुत बड़ी और खतरनाक गलती थी। ढलाई के कुछ दिनों बाद जब शटरिंग हटाई जाती तो यह स्लैब अपने ही वजन से या थोड़े से अतिरिक्त भार से टूट कर नीचे गिर सकता था। शाहिद का खून सूख गया।
साहस की परीक्षा
उसने तुरंत अपने साथ काम कर रहे एक सीनियर भारतीय मजदूर करीम चाचा को यह बात बताई। करीम चाचा ने एक नजर देखा और कहा, “अरे छोड़ ना बेटा, अपने को क्या लेना देना? सुपरवाइजर जैसा बोलेगा, अपन वैसा करेगा। ज्यादा होशियारी दिखाई तो नौकरी से निकाल देगा। तू भूल गया है कि तू यहां इंजीनियर नहीं लेबर है।”
करीम चाचा की बात तो सही थी। लेकिन शाहिद का जमीर उसे कचोट रहा था। यह सिर्फ एक गलती नहीं थी। यह आने वाले समय में कई बेगुनाह लोगों की जान ले सकती थी। वो पूरी रात सो नहीं पाया। उसके दिमाग में वही सरयों का गलत जाल घूमता रहा। उसे अपनी मां की बात याद आई। “बेटा, अपनी ईमानदारी कभी मत छोड़ना।”
निर्णय का समय
अगले दिन उसने हिम्मत करके अपने सुपरवाइजर रिको को यह बात बताने की कोशिश की। रिको ने उसकी बात सुनने के बजाय उसे डांट दिया। “तुम मुझे सिखाएगा इंजीनियरिंग? अपना काम करो और मुंह बंद रखो। अगर दोबारा मुझे लेक्चर देने की कोशिश की तो मैं तुम्हें कंपनी से निकलवा दूंगा।” शाहिद चुप हो गया। लेकिन उसके अंदर का तूफान और तेज हो गया।
उसे पता था कि आज शाम तक उस स्लैब की ढलाई हो जाएगी और फिर इस गलती को सुधारना लगभग नामुमकिन हो जाएगा। उसने अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा और सबसे खतरनाक फैसला लिया। उसने तय किया कि वह सीधे मिस्टर उमर से बात करेगा। यह करना अपनी मौत को दावत देने जैसा था।
मिस्टर उमर से मुलाकात
एक मामूली मजदूर का सीधे चीफ इंजीनियर के पास जाना और वह भी एक गलती की शिकायत लेकर, यह एक ऐसा गुनाह था जिसकी सजा नौकरी से निकाला जाना और शायद दुबई से हमेशा के लिए भेज दिया जाना भी हो सकती थी। उसके ज़हन में एक पल के लिए अपने मां-बाप का चेहरा आया। अपनी बहन की शादी का सपना आया। उसके पैर कांपने लगे। लेकिन फिर उसे उन अनजाने लोगों का चेहरा याद आया जो भविष्य में उस बालकनी पर खड़े होते और उसे लगा कि उसकी परेशानियां उन बेगुनाह जिंदगियों से बड़ी नहीं हैं।
शाम को जब मिस्टर उमर साइट से अपने शानदार ऑफिस की तरफ जा रहे थे, शाहिद ने अपनी सारी हिम्मत बटोरी और दौड़कर उनके रास्ते में आ खड़ा हुआ। उसके कपड़े सीमेंट से सने हुए थे। चेहरे पर पसीना और धूल थी और आंखों में एक अजीब सी जिद। मिस्टर उमर के सुरक्षा गार्डों ने उसे हटाने की कोशिश की। लेकिन मिस्टर उमर ने हाथ के इशारे से उन्हें रोक दिया।
साहसिक वार्ता
उन्होंने अपनी तीखी नजरों से शाहिद को ऊपर से नीचे तक देखा और अपनी गहरी रमदार आवाज में पूछा, “क्या है?” शाहिद का गला सूख रहा था। उसने टूटी फूटी अरबी और इंग्लिश मिलाकर कांपती हुई आवाज में कहा, “सर, मैं शाहिद हूं। 35वीं मंजिल पर काम करता हूं। वहां-वहां बालकनी के स्लैब में मेन सरियों का जाल गलत तरीके से बिछाया गया है।”
मिस्टर उमर का धैर्य जवाब दे रहा था। उन्होंने गुस्से में कहा, “जल्दी बोलो, मेरे पास फालतू वक्त नहीं है।” शाहिद ने एक गहरी सांस ली और एक ही बार में बोल दिया, “सर, वहां कैंटीवर स्लैब में मेन रिइंफोर्समेंट बार्स गलत तरीके से नीचे की तरफ बिछाई गई हैं। स्ट्रक्चरल ड्राइंग के हिसाब से उन्हें ऊपर होना चाहिए, टॉप टेंशन ज़ोन में। अगर आज इसकी ढलाई हो गई तो यह एक बहुत बड़ा हादसा बन सकता है।”
सन्नाटा और निर्णय
एक पल के लिए वहां सन्नाटा छा गया। मिस्टर उमर का चेहरा भावहीन था लेकिन उनकी आंखों में एक खतरनाक चमक थी। एक मामूली मजदूर उन्हें स्ट्रक्चरल इंजीनियरिंग का पाठ पढ़ा रहा था। यह उनकी काबिलियत पर, उनकी टीम पर और उनके अनुभव पर एक सीधा हमला था। उन्होंने ठंडी आवाज में पूछा, “तुम कौन हो?” शाहिद ने कहा, “सर, मैं मजदूर हूं।”
मिस्टर उमर ने पूछा, “क्या पढ़ाई की है?” शाहिद की आवाज में एक दर्द भरी सच्चाई थी, “सर, सिविल इंजीनियरिंग।” मिस्टर उमर की एक भौं ऊपर चढ़ गई। उन्होंने अपने जूनियर इंजीनियर जो उनके साथ था, उसे अरबी में कुछ कहा। जूनियर इंजीनियर ने तुरंत अपने सुपरवाइजर रिको को वॉकी टॉकी पर बुलाया।
जांच के लिए साइट पर
कुछ ही मिनटों में रिको वहां भागा-भागा आया। वो शाहिद को मिस्टर उमर के सामने खड़ा देखकर डर से पीला पड़ गया था। मिस्टर उमर ने रिको से पूछा, “35वीं मंजिल के स्लैब का क्या स्टेटस है?” रिको ने घबराते हुए कहा, “सर, बस ढलाई शुरू होने ही वाली है। सब कुछ ड्राइंग के हिसाब से है सर।” फिर मिस्टर उमर ने शाहिद की तरफ देखा और कहा, “चलो, मुझे दिखाओ।”
यह सुनना था कि रिको के होश उड़ गए। मिस्टर उमर खुद साइट पर, वह भी एक मजदूर की शिकायत पर जांच करने जा रहे थे। वे सब कंस्ट्रक्शन लिफ्ट से 35वीं मंजिल पर पहुंचे। मिस्टर उमर बिना एक शब्द कहे सीधे उस स्लैब के पास गए।
सही जानकारी का खुलासा
उन्होंने अपनी अनुभवी नजरों से सरियों के जाल को देखा। फिर उन्होंने अपने जूनियर इंजीनियर से स्ट्रक्चरल ड्राइंग मंगवाई। उन्होंने ड्राइंग को देखा। फिर सरियों को देखा। उनके चेहरे के भाव बदलने शुरू हो गए थे। उनका माथा सिकुड़ गया। उन्होंने एक सरिया उठाने वाले हुक से खुद सरियों की जांच की।
और फिर उन्होंने जो देखा उससे उनकी आंखें गुस्से और हैरानी से चौड़ी हो गईं। शाहिद सही था। एकदम सही। मेन रीइंफोर्समेंट बार्स जो उस पूरे स्लैब का भार उठाने वाली थी, लापरवाही से नीचे की तरफ बिछी हुई थी। मिस्टर उमर का चेहरा गुस्से से लाल हो गया। लेकिन उनका गुस्सा शाहिद पर नहीं था। वह अपने सुपरवाइजर रिको की तरफ एक खूंखार शेर की तरह घूमे।
गुस्से का सामना
उन्होंने अरबी में इतनी जोर से दहाड़ लगाई कि पूरी मंजिल कांप उठी। उन्होंने रिको को उसकी लापरवाही के लिए इतनी बुरी तरह से डांटा कि वह लगभग रोने लगा था। उन्होंने तुरंत ढलाई रोकने का आदेश दिया और उस पूरे स्लैब को तोड़कर दोबारा सही तरीके से बनाने का हुक्म सुनाया। सब लोग सांस रोके खड़े थे।
मिस्टर उमर ने रिको और बाकी सबको वहां से जाने का इशारा किया। अब उस विशाल अदब बनी मंजिल पर सिर्फ दो लोग खड़े थे। मिस्टर उमर अल मुबेदला और धूल मिट्टी में सना हुआ हिंदुस्तानी मजदूर शाहिद। मिस्टर उमर कुछ देर खामोशी से दूर दुबई के नजारे को देखते रहे।
सम्मान और पहचान
फिर वह धीरे से शाहिद की तरफ मुड़े। उनके चेहरे पर अब गुस्सा नहीं था बल्कि एक अजीब सी गंभीरता थी। एक ऐसी भावना जिसे पढ़ना मुश्किल था। उन्होंने शाहिद से पूछा, “तुम्हारा पूरा नाम क्या है?” शाहिद ने धीरे से कहा, “शाहिद रहमत अली।” मिस्टर उमर ने पूछा, “इंडिया में कहां से हो? कौन सा कॉलेज?” शाहिद ने अपने गांव और कॉलेज का नाम बताया।
मिस्टर उमर ने एक लंबी सांस ली। वह शाहिद के पास आए और उन्होंने एक ऐसा काम किया जिसकी किसी ने यहां तक कि कुछ शाहिद ने भी सपने में भी कल्पना नहीं की थी। उन्होंने अपना हाथ आगे बढ़ाया और शाहिद का धूल भरा हाथ अपने हाथ में लेकर उसे जोर से हिलाया।
नई शुरुआत
उन्होंने अपनी गहरी साफ आवाज में कहा, “शुक्रिया शाहिद। आज तुमने सिर्फ इस इमारत को एक बड़े हादसे से नहीं बचाया है। तुमने कई बेगुनाह लोगों की जान बचाई है और तुमने मेरी इज्जत भी बचा ली है।” शाहिद की आंखों में आंसू आ गए। सालों बाद किसी ने उसके ज्ञान का उसकी डिग्री का सम्मान किया था।
मिस्टर उमर ने आगे कहा, “एक इंजीनियर की जगह सीमेंट की बोरियां उठाने में नहीं होती। कल सुबह तुम साइट पर नहीं आओगे। तुम सीधे मेरे ऑफिस में आकर मुझसे मिलोगे। और हां, अपने साथ अपनी डिग्री और सारे कागजात लेकर आना।”
नया जीवन
अगली सुबह जब शाहिद नहा धोकर अपने सबसे अच्छे लेकिन पुराने कपड़ों में अपनी फाइल लेकर उस शीशे की शानदार इमारत में बने मिस्टर उमर के ऑफिस में दाखिल हुआ तो वह एक अलग ही दुनिया थी। मिस्टर उमर ने उसे बिठाया और उसके सारे सर्टिफिकेट्स देखे।
उन्होंने उसकी कॉलेज की मार्कशीट देखी जिस पर हर सेमेस्टर में 90% से ऊपर अंक थे। उन्होंने शाहिद से इंजीनियरिंग के कुछ मुश्किल सवाल पूछे और शाहिद के विस्तृत और सटीक जवाबों ने उन्हें और भी ज्यादा प्रभावित कर दिया। मिस्टर उमर ने अपनी कुर्सी पर पीछे झुकते हुए कहा, “शाहिद, मैं तुम्हारी काबिलियत और तुम्हारी ईमानदारी दोनों से बहुत प्रभावित हूं। मैंने तुम्हारी पृष्ठभूमि के बारे में पता करवाया। मैं जानता हूं कि तुम किन हालात से गुजर कर यहां तक पहुंचे हो। आज से तुम एक मजदूर नहीं हो।”
नई जिम्मेदारी
उन्होंने अपने इंटरकॉम पर एचआर डिपार्टमेंट को बुलाया और कहा, “एक नया अपॉइंटमेंट लेटर तैयार करो। मिस्टर शाहिद रहमत अली, पद असिस्टेंट साइट इंजीनियर। वह सीधे मुझे रिपोर्ट करेंगे। तनख्वाह मेरे जूनियर इंजीनियर के बराबर और उन्हें कंपनी की तरफ से एक फर्निश्ड फैमिली अपार्टमेंट और गाड़ी भी दी जाएगी।”
शाहिद को अपने कानों पर यकीन नहीं हो रहा था। उसके हाथ पैर सून पड़ गए थे। असिस्टेंट साइट इंजीनियर, अपार्टमेंट, गाड़ी यह सब एक सपने जैसा लग रहा था। मिस्टर उमर मुस्कुराए। यह उनकी बहुत दुर्लभ मुस्कानों में से एक थी। उन्होंने कहा, “यह कोई एहसान नहीं है शाहिद। यह तुम्हारी काबिलियत का हक है। इस कंपनी को तुम जैसे होनहार और ईमानदार इंजीनियरों की जरूरत है। जाओ, पहले एचआर से मिलो और फिर तुम्हें जो सबसे पहला काम करना है, वह है अपने घर पर फोन करना। मुझे यकीन है वे तुम्हारी आवाज सुनने का इंतजार कर रहे होंगे।”
परिवार की खुशी
उस दिन जब शाहिद ने कांपते हुए हाथों से अपने गांव में फोन किया और अपनी मां को बताया कि वह अब मजदूर नहीं बल्कि दुबई में एक साहब, एक इंजीनियर बन गया है, तो दूसरी तरफ से जो खुशी की सिसकियां और दुआएं उसे मिलीं, वे उसकी जिंदगी की सबसे बड़ी कमाई थी। शाहिद की किस्मत एक ही दिन में पलट गई थी।
अगले दिन वह पीले हेलमेट और खटे हुए कपड़ों में नहीं बल्कि सफेद हेलमेट और एक प्रोफेशनल इंजीनियर की नीली यूनिफार्म में साइट पर पहुंचा। जिन सुपरवाइजरों और मजदूरों के साथ वह कल तक काम करता था, आज वह उसे “सर” कहकर बुला रहे थे। मिस्टर उमर ने उसे अपने पंखों के नीचे ले लिया। वह उसके लिए सिर्फ एक बॉस नहीं बल्कि एक गुरु और एक बड़े भाई की तरह बन गए।
नई जिम्मेदारी और सफलता
उन्होंने शाहिद को दुबई की आधुनिकतम कंस्ट्रक्शन टेक्नोलॉजी की हर बारीकी सिखाई और शाहिद ने भी अपनी मेहनत, लगन और असाधारण दिमाग से यह साबित कर दिया कि मिस्टर उमर का फैसला गलत नहीं था। उसने उस प्रोजेक्ट में कई और सुधार सुझाए जिनसे कंपनी का लाखों का फायदा हुआ। कुछ ही महीनों में उसने अपनी कमाई से अपने पिता का सारा कर्ज चुका दिया और अपनी बहन जोया की शादी बहुत धूमधाम से की।
वह अपने मां-बाप को भी दुबई घुमाने के लिए ले आया। जिस बेटे को उन्होंने एक मजदूर बनकर भेजा था, उसे एक बड़े इंजीनियर के रूप में देखकर उनकी छाती गर्व से चौड़ी हो गई। शाहिद अब अरेबियन नाइट्स टावर की कामयाबी की कहानी का एक अहम हिस्सा बन चुका था।
निष्कर्ष
एक ऐसी कहानी जो हमेशा यह याद दिलाएगी कि ज्ञान और ईमानदारी की चमक को कोई भी गरीबी या परिस्थिति ज्यादा देर तक छिपा नहीं सकती। यह कहानी हमें सिखाती है कि आपकी असली पहचान, आपके पद या आपके कपड़ों से नहीं बल्कि आपके ज्ञान, आपकी हिम्मत और आपकी ईमानदारी से होती है। काबिलियत अगर सच्ची हो, तो उसे अपना रास्ता मिल ही जाता है। बस जरूरत है सही समय पर सही कदम उठाने की हिम्मत की।
यह कहानी हमें यह भी सिखाती है कि एक सच्चा लीडर वही होता है जो अपने पद के अहंकार से ऊपर उठकर अपने से छोटे इंसान की सही बात को सुनने और उसकी काबिलियत को पहचानने का बड़प्पन रखता हो।
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