मायके के घमंड में नई बहू ने सास को पावं की जूती समझा… फिर जो हुआ, सबक बन गया
“सम्मान का रिश्ता”
श्यामा देवी एक सीधी-सादी, आत्मसम्मान से भरी मां थीं, जिनकी दुनिया बस उनके बेटे राजीव में ही सिमटी थी। पति को गुजरे बीस साल हो चुके थे, और तब राजीव सिर्फ चार साल का था। श्यामा देवी ने अपने सारे सपने छोड़कर एक ही सपना देखा—बेटा पढ़-लिखकर अच्छा इंसान बने। उन्होंने उसे हर मुश्किल में संभाला, उसकी पढ़ाई-लिखाई के लिए हर त्याग किया। वक्त बीता, राजीव नौकरी पर लग गया, शादी हुई और सरिता बहू बनकर घर आई। श्यामा देवी ने उसे हमेशा बेटी ही माना, हर बात में साथ दिया, हर जरूरत में मदद की, लेकिन बदले में उन्हें रोज सास होने का एहसास ही मिला।
एक दिन, सरिता अपने मायके में भाई की शादी के लिए पैकिंग कर रही थी। उसने श्यामा देवी से कहा, “मां, शादी के दिन आप जरूर आइएगा, लेकिन प्लीज अपनी पुरानी साड़ी मत पहनिएगा। बहुत लोग होंगे, मेरी भाभी अमीर घर से आ रही है, कहीं मेरी इज्जत पर बात न आ जाए।” रसोई में चूल्हे की आंच ठंडी पड़ गई, श्यामा देवी का हाथ थम गया, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं कहा। चेहरे पर मुस्कान थी, लेकिन वह दर्द छुपाने का दिखावा था।
अगले दिन सरिता मायके चली गई। जाते-जाते फिर वही बात दोहराई—”मां, बारात वाले दिन टाइम से आ जाइएगा और साड़ी ठीक-ठाक पहनिएगा।” श्यामा देवी ने वही पुराना जवाब दिया—”ठीक है बेटा, आ जाऊंगी।” दरवाजा बंद हुआ, तो वह अपने लकड़ी के बक्से में गईं, जिसमें उनकी शादी की एक साड़ी और दो पुराने कंगन रखे थे। कंगनों को रुमाल में लपेटते हुए बोलीं, “अभी इन्हें बेटी मान रही हूं, पर शायद यह रिश्ता मेरे लिए ही मायने रखता है।”
शादी वाले दिन, शहर के सबसे बड़े होटल के बाहर गाड़ियों की कतार थी, बैंड बज रहा था, रिश्तेदारों की भीड़ थी। उसी भीड़ में सफेद बालों वाली श्यामा देवी बस से उतरकर धीरे-धीरे सीढ़ियां चढ़ रही थीं। हाथ में पुराना पर्स, पैरों में थकावट, आंखों में सिर्फ एक सवाल—क्या आज मेरी बहू मुझे गले लगाएगी? लेकिन सामने से सरिता की तेज आवाज आई—”देखो मेरी सासू मां आ गई है, वो भी बस में बैठकर। मैं तो सोच भी नहीं सकती बस में सफर करने की। मांजी को तो आदत है ना!” आसपास लोग हंसी दबा रहे थे, श्यामा देवी ने सिर्फ आंखें झुका लीं।
राजीव पास खड़ा था, उसने मां के पसीने से भीगे चेहरे को देखा, पर कुछ नहीं बोला। मां ने उसका हाथ थाम लिया—”कोई बात नहीं बेटा, शादी वाला घर है, काम तो होंगे ही। मैं आ गई हूं ना, यही बहुत है।” कमरे में जाकर श्यामा देवी ने वह रुमाल निकाला जिसमें कंगन थे, और सरिता को दिए—”बेटा, शादी में पहन लेना, मैंने अपनी शादी के वक्त यह अपने लिए बनवाए थे, अब यह तुम्हारे हैं।” सरिता ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, “अरे मांजी, आप इसे कंगन कह रही हैं?” और अपनी भाभी के गहनों की तस्वीरें दिखाईं—”देखिए असली कंगन ये हैं।”
कमरे में खड़े रिश्तेदारों ने भी सुन लिया। श्यामा देवी के हाथ कांपने लगे, आंखें भर आईं—”अगर पसंद नहीं तो कोई बात नहीं।” तभी राजीव कमरे में आया, उसने कंगन मां के हाथ से लिए, और बस कहा, “मां चलिए, अब हम घर चलते हैं।” सरिता चौकी—”अभी शादी शुरू भी नहीं हुई है, कहां जा रहे हो?” राजीव का चेहरा सख्त था—”जहां मेरी मां की इज्जत नहीं, वहां मैं दूल्हे का बहनोई बनकर नहीं खड़ा हो सकता।”
श्यामा देवी ने बेटे को रोका—”शादी का घर है, क्या जरूरत?” राजीव ने मां की आंखों में देखा—”नहीं मां, अब बहुत हो गया। मैं तुम्हारा अपमान और नहीं देख सकता।” श्यामा देवी की आंखों से आंसू बहने लगे, लेकिन इस बार वह आंसू कमजोरी के नहीं, बेटे के आत्मसम्मान की गवाही थे। राजीव ने मां का हाथ पकड़ा और होटल से बाहर निकल गया। पीछे कोई उन्हें रोकने नहीं आया, बस सरिता चुप खड़ी थी।
शादी का मंडप रोशनी से जगमगा रहा था, लेकिन दूल्हे के कमरे में अफरातफरी थी—जेवर चोरी हो गए थे। सरिता के मां-पापा परेशान थे, इज्जत मिट्टी में मिलती दिख रही थी। सरिता कांपते हाथों से राजीव को फोन करती है—”बहुत बड़ी मुसीबत आ गई है, जेवर चोरी हो गए, पापा के पास दोबारा बनवाने के पैसे नहीं हैं, बारात का वक्त हो गया है। प्लीज कुछ करो।” राजीव ने ठंडी आवाज में कहा—”तुम्हें क्या करूं सरिता? जब मेरी मां को सस्ती कहा, उनकी साड़ी का मजाक उड़ाया, तब क्या तुम्हें इज्जत का ख्याल था?”
सरिता फूट-फूट कर रो पड़ी—”मां जी, आपने तो हमेशा मुझे बेटी माना, और मैंने आपको सिर्फ नीचा दिखाया। आज मुझे महसूस हो रहा है कि मैंने अपने ही संस्कार बेच दिए।” श्यामा देवी ने फोन लिया—”रो मत बेटा, तू अब भी मेरी बहू नहीं, मेरी बेटी है। राजीव और मैं आ रहे हैं, तेरे पापा की इज्जत हमारी भी इज्जत है।”
राजीव अलमारी खोलता है, मां के पुराने गहने निकालता है—”मां, यह आपकी अमानत है। क्या आप अपने हिस्से की इज्जत मेरी पत्नी के मायके को देंगी?” श्यामा देवी मुस्कुरा देती है—”मां वही होती है बेटा, जो अपने गहनों से नहीं, अपने संस्कारों से घर बचाती है।”
होटल के पीछे वाले गेट से राजीव और श्यामा देवी पहुंचे, उनके हाथ में वह जेवर थे जिन्हें श्यामा देवी ने सालों से अपनी बहू के लिए बचाकर रखा था। राजीव ने सरिता के पापा को जेवर दिए—”बाबूजी, यह जेवर अब आपके हैं, ताकि इस शादी में कोई कमी न रह जाए।” बाबूजी ने राजीव को गले लगा लिया—”बेटा, तू तो सच में अपना निकला। भगवान तुम्हारी जोड़ी सलामत रखे।”
सरिता अकेली कमरे में बैठी थी, आंखों में ग्लानी, हाथ में वही कंगन जो उसने ठुकराए थे। तभी श्यामा देवी आईं, उसके पास बैठीं, कंगन उसकी कलाई में पहनाते हुए बोलीं—”बेटा, अब यह सिर्फ गहने नहीं है, यह रिश्ता है जो मैंने बेटी से निभाने की कोशिश की थी। अब तू चाहे तो इसे सच में अपना बना ले।” सरिता सिसक पड़ी, घुटनों पर गिरकर श्यामा देवी के पैर पकड़ लिए—”मां जी, नहीं अब से आप मेरी मां है। मुझे माफ कर दीजिए, मैंने बहुत देर कर दी।”
श्यामा देवी ने उसे गले से लगा लिया—”मैं तो बस इसी दिन का इंतजार कर रही थी पगली। अब और कुछ नहीं सुनूंगी। चलो जल्दी से तैयार हो जाओ, तुम्हारे पापा इंतजार कर रहे हैं।” शादी पूरे रिवाज और सम्मान के साथ हुई। वहां खड़ी एक सास अब सिर्फ सास नहीं थी, एक मां बन चुकी थी और एक बहू अब बेटी बन चुकी थी।
कुछ दिन बाद जब सरिता, राजीव और श्यामा देवी घर लौटे, तो सरिता ने सबसे पहले मां का सामान खुद उठाया और घर की दहलीज पर खड़ी होकर कहा—”मां, अब मैं इस घर में बहू बनकर नहीं, आपकी बेटी बनकर जीना चाहती हूं। अब कभी आपको किसी बात की तकलीफ नहीं दूंगी, क्योंकि अब मैं जान चुकी हूं कि मां बनने के लिए खून का रिश्ता नहीं, दिल का रिश्ता चाहिए और वह आपने मुझसे कभी नहीं छीना।”
श्यामा देवी की आंखें भर आईं, राजीव मुस्कुरा रहा था, क्योंकि आज पहली बार उसने मां और पत्नी के बीच वह रिश्ता देखा जिसे वह सालों से निभाते हुए देखता था।
कहानी का संदेश
अगर बहू सास को मां की तरह देखे और सास बहू को बेटी की तरह अपनाए, तो हर घर खुशियों से भरा मंदिर बन सकता है। इज्जत जुबान से नहीं, बर्ताव से मिलती है। सम्मान समय पर मिले या देर से, उसकी कीमत हमेशा बनी रहती है।
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रिश्तों की कीमत समझें, अपनों के साथ रहें।
जय हिंद!
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