74 साल के बुजुर्ग को बेटे ने अस्पताल के बाहर छोड़ दिया अकेला लेकिन फिर बुजुर्ग ने जो

शाम का वक्त था। पटना के एक सरकारी अस्पताल के बाहर हल्की-हल्की ठंडी हवा चल रही थी। मरीजों की आवाजाही, गाड़ियों की चिल्लपों और एंबुलेंस के सायरन के बीच अस्पताल की सीढ़ियों पर एक बुजुर्ग आदमी चुपचाप बैठा था। उनका नाम विष्णु प्रसाद था। उम्र लगभग 74 साल। सफेद पतलून और हल्की नीली कमीज पहने हुए, जो जगह-जगह से घिस चुकी थी। पैरों में पुराने घिसे हुए जूते थे और चेहरे पर वो सवाल, जो शायद हर बूढ़े बाप की आंखों में होता है, जब बेटा पीछे छोड़कर चला जाता है।

क्या वो लौटेगा?

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विष्णु बाबू के हाथ में एक छोटा सा झोला था, जिसमें कुछ दवाइयां, पानी की एक बोतल और बेटे की लिखी हुई एक पर्ची थी। उस पर लिखा था, “पापा, यहीं बैठिए। मैं डॉक्टर से मिलकर आता हूं।” यह बात दोपहर 2:30 बजे की थी। अब शाम के 7 बज चुके थे। हर बीतते घंटे के साथ विष्णु बाबू की आंखें उसी दरवाजे की तरफ टिक जातीं, जहां से उनका बेटा विक्रम अंदर गया था।

लेकिन अब ना तो विक्रम दिख रहा था, और ना ही उसकी कोई खबर।

भीड़ में कई बार वो चेहरों को गौर से देखते, उम्मीद के साथ कि शायद विक्रम उनमें हो। लेकिन हर बार उन्हें मायूसी ही मिलती। पास से गुजरते लोग उन्हें घूरते, कुछ सहानुभूति से, तो कुछ तिरस्कार से।

“लगता है किसी ने छोड़ दिया है। कहीं पागल तो नहीं? बूढ़ा आदमी है, लेकिन कुछ बोल भी नहीं रहा।”

पर विष्णु बाबू ने किसी से कुछ नहीं कहा। वो बस अपने मन में यही दोहराते रहे, “विक्रम आएगा। जरूर आएगा। उसने कहा था, डॉक्टर से मिलकर आता हूं।”

शाम ढलने लगी थी। आसपास की दुकानें बंद होने लगीं। एक चाय वाला, जिसका ठेला वहीं कोने पर था, उनके पास आया और बोला, “बाबा, कुछ खाया नहीं आपने? दिन भर से देख रहा हूं, आप यहीं बैठे हैं।”

विष्णु बाबू ने मुस्कुराने की कोशिश की। “बेटा गया है डॉक्टर से मिलने। अभी आता होगा। मैं बस उसका इंतजार कर रहा हूं।”

चाय वाले ने सिर झुकाया। वो सब समझ चुका था, लेकिन कुछ कह नहीं पाया।

उसी वक्त, एक औरत अस्पताल से निकलते हुए रुकी। उसने पूछा, “बाबा, आपका कोई साथ नहीं है? अकेले क्यों बैठे हैं?”

विष्णु बाबू ने वही जवाब दोहराया। “बेटा गया है डॉक्टर से मिलने।”

औरत थोड़ी देर रुकी, फिर एक केले का छोटा सा झोला उनके पास रखकर चली गई।

रात हो चुकी थी। अस्पताल की सीढ़ियों पर अब सन्नाटा था। विष्णु बाबू अब भी वहीं बैठे थे, थोड़ा सहमे हुए, लेकिन विश्वास में डूबे। “शायद विक्रम का फोन बंद हो गया होगा। शायद उसे अंदर ही किसी ने रोक लिया होगा।”

लेकिन भीतर ही भीतर सच्चाई उन्हें कचोटने लगी थी। मन में एक आवाज बार-बार कहती, “क्या वह कभी लौटेगा?” लेकिन दिल कहता, “बेटा है। कैसे नहीं आएगा?”

अस्पताल की सीढ़ियों पर अब चहल-पहल खत्म हो चुकी थी। स्ट्रेचर और व्हीलचेयर की आवाजें बंद हो गई थीं। सिर्फ इमरजेंसी वार्ड से आती चीखें और एंबुलेंस की दूर की सायरन उस रात की चुप्पी को तोड़ रही थीं।

विष्णु बाबू वहीं बैठे थे, उसी मुद्रा में। जैसे अभी भी किसी का इंतजार कर रहे हों। लेकिन उनकी पीठ अब झुकने लगी थी। आंखें थक चुकी थीं और शरीर कांप रहा था। पास के ठेले वाले ने अपनी दुकान समेट ली थी। लेकिन जाने से पहले उसने एक गिलास चाय उनके पास रख दिया।

“बाबा, ठंड बढ़ रही है। कुछ गर्म पी लीजिए।”

विष्णु बाबू ने झिझकते हुए कप उठाया। होठों तक ले गए, लेकिन पी नहीं पाए। उनकी आंखों में नमी थी और मन में एक ही सवाल। “इतना वक्त हो गया। अब तक क्यों नहीं आया विक्रम?”

धीरे-धीरे उन्होंने वह चाय नीचे रख दी और झोले से बेटे की दी हुई पर्ची निकाली। उस पर अब भी वही लिखा था, “पापा, यहीं बैठिए। मैं डॉक्टर से मिलकर आता हूं।”

वो उसे बार-बार पढ़ते रहे। जैसे हर बार पढ़ने से उनका यकीन और मजबूत होगा।

रात के करीब 2 बजे का वक्त था। एक सिक्योरिटी गार्ड जो राउंड पर निकला था, उसने विष्णु बाबू को देखा।

“बाबा, आप अब भी यहीं बैठे हैं? घरवाले नहीं आए?”

विष्णु बाबू ने सिर हिलाया। “बेटा गया है डॉक्टर से मिलने।”

गार्ड ने थोड़ी देर तक उन्हें देखा। फिर खामोश हो गया। उसने अपनी जैकेट की जेब से बिस्किट का एक पैकेट निकाला और उनके पास रख दिया।

“रख लीजिए। भूख लग जाए तो खा लीजिए।”

विष्णु बाबू ने वह पैकेट देखा, लेकिन उठाया नहीं। उनकी आंखें अब अस्पताल के दरवाजे को देखना भी बंद कर चुकी थीं। वो नीचे जमीन की ओर देखने लगे, जैसे अब उम्मीद भी थक चुकी हो।

सुबह की हल्की रोशनी फैलने लगी थी। पक्षियों की चहचहाहट और सफाई कर्मचारियों की आवाजें गूंजने लगी थीं। अस्पताल फिर से धीरे-धीरे जाग रहा था।

और फिर वही हुआ, जिसने सबको स्तब्ध कर दिया।

एक चमचमाती कार अस्पताल के गेट के पास आकर रुकी। उसमें से एक शानदार सूट पहने नौजवान बाहर निकला। उसके पीछे कैमरा लिए एक मीडिया टीम भी थी।

वो आदमी सीढ़ियों की ओर बढ़ा। उसके हाथ में माइक था। उसने पास खड़े गार्ड से कुछ पूछा और गार्ड ने सीढ़ियों की ओर इशारा किया।

फिर वह आदमी विष्णु बाबू के पास आया। थोड़ी देर तक खामोश खड़ा रहा।

विष्णु बाबू की आंखें खुलीं। थकी और सूजी हुई। उन्होंने ऊपर देखा।

“विक्रम… बेटा?”

वो आदमी चौंक गया। लेकिन फिर झुककर विष्णु बाबू के पैर छुए और कहा, “नहीं बाबा, मैं विक्रम नहीं। लेकिन आज मैं आपकी सच्चाई सबको दिखाने आया हूं।”

(कहानी आगे बढ़ती है, जहां पत्रकार आशुतोष रॉय उनकी कहानी को सार्वजनिक करता है। विक्रम की सच्चाई सामने आती है, और विष्णु बाबू को वृद्धाश्रम में सम्मान मिलता है। अंत में, विष्णु बाबू की कहानी देशभर में प्रेरणा बन जाती है।)

यह कहानी रिश्तों की गहराई और समाज के बदलते मूल्यों की एक मार्मिक झलक पेश करती है।