राघव नारायण: इंसानियत की असली पहचान

सुबह के 10 बजे थे। शहर के सबसे बड़े और नामी प्राइवेट अस्पताल ‘आरोग्यम हॉस्पिटल्स’ के बाहर महंगी गाड़ियों की कतार लगी थी। एयर कंडीशनर की ठंडी हवा, रिसेप्शन पर चमचमाता फर्श, नीली ड्रेस में मुस्कुराता स्टाफ— हर ओर दिखावा और औपचारिकता का माहौल।

इसी चकाचौंध के बीच फटे कपड़ों में एक 78 साल का बुजुर्ग धीरे-धीरे दरवाजे तक पहुंचा। उसकी चप्पलों पर धूल जमी थी, आंखों में थकावट, चेहरे पर भारी खांसी और कंधे पर गंदा सा थैला जिसमें कुछ पुरानी पर्चियां और पानी की छोटी बोतल थी। वह कांपती आवाज़ में बोला— “बेटा, तबीयत बहुत खराब है। सीने में दर्द है, सांस लेने में तकलीफ है। डॉक्टर से मिलना है।”

रिसेप्शन पर बैठी लड़की ने उसे घूरते हुए तिरस्कार से कहा— “पहले ओपीडी स्लिप बनवाइए, 500 रुपए फीस दीजिए, तभी डॉक्टर देखेंगे।” बुजुर्ग ने कांपती जेब से सिकोड़ा-सा 100 रुपए का नोट निकालते हुए कहा, “बेटा, पैसे कम हैं… लेकिन डॉक्टर से मिलवा दो…” लड़की नाक सिकोड़ते हुए बोली— “माफ कीजिए, यहां पेमेंट पहले और इलाज बाद में होता है, ये कोई सरकारी अस्पताल नहीं है।”

उसी समय सफेद कोट में एक युवा डॉक्टर तेज़ी से आता है, “क्यों शोर मचा रखा है बाबा? ये चैरिटी क्लीनिक नहीं! भागो यहां से!” बुजुर्ग कुछ कहना चाहता है, पर खांसी रोक देती है। दो सिक्योरिटी गार्ड आते हैं, जबरन बुजुर्ग को बाहर धकेलते हैं, जिससे वह गिर पड़ता है। उसका थैला और पर्चियां बिखर जाती हैं। कोई मदद नहीं करता— लोग अपने मोबाइल में बिज़ी, स्टाफ ने ध्यान नहीं दिया। बुजुर्ग अपनी चीजें समेटकर बाहर निकल गया।

पास पहुंचकर उसने जेब से फीचर फोन निकाला और सिर्फ बोला— “बोर्ड रूम तैयार कराओ, मैं 30 मिनट में आ रहा हूं।” 30 मिनट बाद अचानक अस्पताल के बाहर हलचल मच गई। तीन मर्सिडीज़ और एक बीएमडब्ल्यू रुकी। देश के नामी बिज़नेस टायकून, अस्पताल ट्रस्ट के चेयरमैन, उद्योगपति… और उनके बीच वही बुजुर्ग— अब पूरी गरिमा के साथ।

रिसेप्शन पर अफरा-तफरी मच गई। कोई चुपचाप फुसफुसाया— “अरे, यह तो श्री राघव नारायण हैं! आरोग्यम हॉस्पिटल्स की चेन के मालिक, गुप्त 42% शेयर होल्डर।” राघव जी ने बिना गुस्से के, शांति से कहा— “डॉक्टर और रिसेप्शनिस्ट को बुलाओ।” कैमरामैन, मीडिया हर कोई पहुँच गया। राघव जी ने गिरा हुआ पर्चा दिखाया— “यह पर्ची उस मरीज की है जिसे इंसान नहीं समझा गया। तुमने सिर्फ उसे नहीं ठुकराया, अपनी इंसानियत को गिराया।”

बिना शोर-शराबे के दोनों कर्मचारियों के टर्मिनेशन लेटर साइन कर मीडिया के सामने दे दिए— “अब से इलाज पैसे से नहीं, ज़रूरत से होगा।” पूरा अस्पताल सन्न रह गया। राघव जी ने जाते-जाते कहा— “मैं चला जाऊँगा, पर याद रखना— भविष्य में यहाँ जो आएगा, पहले उसकी तकलीफ देखना, पर्स नहीं।”

अगली सुबह यह घटना देशभर में चर्चा बन गई— “शानदार अरबपति मालिक ने लिया अस्पताल का असली टेस्ट: इंसानियत फेल!”

राघव नारायण ने अस्पतालों में बदलाव शुरु करवाया— “अब हर हॉस्पिटल में ‘सम्मान केंद्र’ बनेगा, बुजुर्ग, असहाय और इमरजेंसी वाले बिना फीस इलाज पाएंगे। अस्पतालों में पोस्टर लगे— ‘इलाज पहले, फीस बाद में।’”

अब अस्पताल के स्टाफ में भी बदलाव दिखा— पहले वही रिसेप्शनिस्ट, जिसने पैसे पूछे थे, आज एक बुजुर्ग महिला को कहती है, “अम्मा जी, आइए— डॉक्टर से मिलिए, पैसे बाद में देख लेंगे।” पास खड़े डॉक्टर ने सिर हिलाकर हामी भरी। बदलाव अब शब्दों में नहीं, व्यवहार में दिखने लगा था।