कहानी का नाम: “गोलू का जादुई टिकट”

मुंबई की तंग गलियों में, गणेश नगर की एक छोटी सी चॉल में शंकर अपनी पत्नी पार्वती और सात साल के बेटे गोलू के साथ रहता था। शंकर कभी बिहार के एक हरे-भरे गांव का मजबूत नौजवान था, लेकिन किस्मत ने उसे बड़े शहर की भीड़ में गुमनाम मजदूर बना दिया। फैक्ट्री में दिहाड़ी मजदूरी, पार्वती की बीमारी, और गोलू की मासूम इच्छाएं—यही उसकी दुनिया थी।

गरीब बच्चे ने सड़क पर पड़ा लॉटरी टिकट उठाया और कई दिन उससे खेलता रहा, फिर  उसके पिता ने देखा तो उसके

गोलू का बचपन भी आम बच्चों जैसा नहीं था। उसके खिलौने थे सड़क के पत्थर, खाली माचिस की डिब्बियां और पुरानी बोतलों के ढक्कन। उन्हीं में वह अपनी कल्पना से रंग भरता था। एक दिन, खेलते-खेलते गोलू को गली में एक रंगीन कागज का टुकड़ा मिला। वह लॉटरी का टिकट था। गोलू को न तो लॉटरी समझ आती थी, न ही नंबरों का मतलब। उसे बस उस टिकट का गुलाबी रंग और घोड़े की तस्वीर पसंद थी। उसने उसे अपना “राजा का खत” मान लिया और हर वक्त अपने पास रखने लगा।

शंकर की जिंदगी में मुश्किलें बढ़ती जा रही थीं। फैक्ट्री में छुट्टी थी, घर में राशन खत्म था, पार्वती की तबियत बिगड़ रही थी। उस शाम शंकर चाय की दुकान पर अपने पुराने दोस्तों के साथ बैठा था। सब अपनी-अपनी परेशानियां सुना रहे थे। तभी एक बुजुर्ग दोस्त ने लॉटरी के टिकट दिखाए और कहा, “किस्मत आज़माओ, कभी-कभी भगवान छप्पर फाड़ के देता है।” उसने छह लकी नंबर बताए: 42, 8, 15, 99, 7, 21। शंकर ने मजाक में वो नंबर एक कागज पर लिख लिए, पर उसे यकीन नहीं था कि उसकी किस्मत कभी बदल सकती है।

कुछ दिन बाद, पार्वती की तबियत अचानक बहुत बिगड़ गई। शंकर पूरी तरह टूट चुका था। घर लौटते वक्त उसने देखा, गोलू अपने कंकड़ों को उसी लॉटरी टिकट पर लिखे नंबरों पर रख रहा था और मासूमियत से गिनती सीख रहा था। तभी गोलू ने नंबर जोर से पढ़े—42, 8, 15, 99, 7, 21। शंकर के दिमाग में बिजली सी कौंध गई। ये वही नंबर थे जो काका ने बताए थे। उसने कांपते हाथों से टिकट और कागज के नंबरों का मिलान किया—सभी नंबर एक जैसे थे।

उस रात शंकर और पार्वती पूरी रात सो नहीं पाए। सुबह होते ही शंकर दौड़कर अखबार लेने गया। उसने लॉटरी के नतीजे देखे—सभी नंबर मैच कर गए। शंकर फूट-फूट कर रोने लगा। उनकी किस्मत बदल चुकी थी। पहला इनाम—पांच करोड़ रुपये!

अब सब बदल गया। शंकर ने सबसे पहले पार्वती का इलाज करवाया, गांव का कर्ज चुकाया, गणेश नगर की चॉल छोड़कर एक नया घर खरीदा, गोलू का एडमिशन अच्छे स्कूल में कराया। उसने अपने दोस्तों को कारोबार में पार्टनर बनाया और उस बुजुर्ग काका को इनाम का हिस्सा दिया। शंकर ने अपनी दौलत को कभी नहीं भूला, बल्कि उसका बड़ा हिस्सा गरीब बच्चों की पढ़ाई और चैरिटेबल क्लीनिक में दान कर दिया।

एक शाम, शंकर अपने नए घर की बालकनी में गोलू और पार्वती के साथ बैठा था। गोलू ने पूछा, “बाबूजी, क्या अब मैं राजा बन गया हूं?” शंकर ने मुस्कुराकर उसे सीने से लगा लिया, “नहीं बेटा, तू तो जादूगर है। तूने अपनी मासूमियत से हमारे सबकी किस्मत बदल दी।”

यह कहानी सिखाती है कि उम्मीद कभी नहीं छोड़नी चाहिए। किस्मत कब, किस रूप में आपके दरवाजे पर दस्तक दे दे, कोई नहीं जानता।