सरहद की उस पार इंसानियत

पाकिस्तान के छोटे से गाँव चकोठी में सलमा नाम की 15 साल की लड़की रहती थी। सलमा की दुनिया पहाड़ों, झरनों और अपनी बकरियों तक ही सीमित थी। उसके अब्बू मामूली किसान थे, अम्मी घर का काम करती थी, और छोटा भाई जुनैद था। गरीबी थी, लेकिन प्यार बहुत था। सलमा स्कूल नहीं जाती थी, उसका दिन बकरियों के साथ ही बीतता था।
सलमा को अपनी सफेद बकरी ‘नूरी’ सबसे ज्यादा प्यारी थी। नूरी अक्सर झुंड से अलग होकर भाग जाती और सलमा घंटों उसे ढूंढती रहती।

एक दिन सलमा अपनी बकरियों को चराते-चराते गाँव से दूर काली पहाड़ी के पास पहुँच गई। उसके अब्बू ने हमेशा कहा था, “बेटी, कभी उस पहाड़ी से आगे मत जाना, वहाँ सरहद है, खतरा है।” लेकिन उस दिन नूरी भागते-भागते सरहद की ओर निकल गई। सलमा उसे पकड़ने के लिए पीछे दौड़ती रही और अनजाने में नियंत्रण रेखा पार कर गई।

अचानक मौसम बदल गया, घना धुंध छा गया। सलमा रास्ता भटक गई, भूख-प्यास और डर से बेहाल होकर एक पेड़ के नीचे बैठकर फूट-फूटकर रोने लगी। उसे लगा, अब वह कभी अपने घर नहीं लौट पाएगी।

इसी बीच, भारतीय सेना की जाट रेजीमेंट की टाइगर हिल पोस्ट पर मेजर विक्रम सिंह अपने जवानों के साथ गश्त कर रहे थे। अचानक उन्होंने दूरबीन से देखा कि एक लड़की पेड़ के नीचे बैठी है। तीनों सतर्क होकर उसके पास पहुंचे। सलमा ने डर से हाथ जोड़ लिए, उसे लगा कि अब उसे मार दिया जाएगा।

मेजर विक्रम ने बंदूक नीचे रख दी और बहुत नरम आवाज में पूछा, “डरो मत बेटी, हम तुम्हें कुछ नहीं करेंगे।” सलमा ने रोते-रोते अपनी पूरी कहानी बता दी कि कैसे वह अपनी बकरी के पीछे-पीछे यहाँ तक आ गई। जवानों ने उसे पानी दिया, चॉकलेट दी, गरम खाना खिलाया और कंबल ओढ़ाया।

सलमा हैरान थी, ये वो हिंदुस्तानी फौजी नहीं थे जिनके बारे में उसने डरावनी कहानियाँ सुनी थी। ये तो बहुत अच्छे इंसान थे। मेजर विक्रम के सामने चुनौती थी—प्रोटोकॉल के अनुसार सलमा को अधिकारियों को सौंपना था, जिससे लंबी कानूनी प्रक्रिया शुरू होती। लेकिन मेजर विक्रम ने इंसानियत को चुना। उन्होंने अपने अफसर कर्नल वर्मा से बात की और सलमा को उसके देश वापस भेजने की इजाजत मांगी।

कर्नल वर्मा ने भरोसा जताया, लेकिन सुरक्षा का ध्यान रखने को कहा। मेजर विक्रम ने पाकिस्तानी रेंजर्स के अधिकारी कैप्टन बिलाल से संपर्क किया। दोनों देशों के बीच तय हुआ कि अगली सुबह नो-मैन लैंड में सलमा को उसके परिवार को सौंपा जाएगा।

अगली सुबह भारतीय सेना की जीप सफेद झंडा लगाकर अमन सेतु पहुँची। सलमा को चॉकलेट्स और उसके भाई के लिए खिलौने दिए गए। सरहद के उस पार उसके माँ-बाप रोते हुए खड़े थे। सलमा दौड़कर उनके गले लग गई। दोनों देशों के सैनिकों की आँखें भी नम हो गईं। सलमा के माँ-बाप ने मेजर विक्रम के पैर पकड़ लिए, “आप हमारे लिए फरिश्ता बनकर आए हैं।”

मेजर विक्रम ने कहा, “बेटी चाहे हिंदुस्तान की हो या पाकिस्तान की, बेटी तो बेटी होती है।”
कैप्टन बिलाल ने मेजर विक्रम को सैल्यूट किया—यह सैल्यूट इंसानियत को था।

उस दिन सरहद पर बंदूकों की आवाज नहीं, इंसानियत का संगीत गूंज रहा था।

**सीख:**
इंसानियत सबसे बड़ा धर्म है। सरहदें दिलों में होती हैं, जमीन पर नहीं। हमारी सेना सिर्फ देश की जमीन ही नहीं, इंसानियत की भी रक्षक है।
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**धन्यवाद!**