कहानी: “एक दरवाजा – इज्जत का”

रात का समय था। मुंबई शहर में काले बादल गरज रहे थे और मूसलाधार बारिश हो रही थी। जहां एक तरफ आलीशान इलाका अपनी चमक दिखा रहा था, वहीं एक भव्य पाँच सितारा होटल सुनहरी रौशनी में जगमगा रहा था। इसी होटल की चमचमाती दीवारों और शीशों के पार, लोग आराम से गर्म चाय, कॉफी पीते हुए हँसी-मजाक में लीन थे।

लेकिन बाहर, बारिश से भीगी सड़क पर एक बुजुर्ग व्यक्ति धीमे-धीमे आगे बढ़ रहे थे। उम्र 70 पार, सफेद बाल, झुर्रियों वाला चेहरा, हल्की भूरी कोट, साफ-सुथरे कपड़े, और हाथ में एक पुराना सा चमड़े का बैग। तेज बारिश में कोट भीग रहा था, चेहरे से पानी बह रहा था, फिर भी चेहरे पर गहरी शांति थी। वे होटल के मुख्य द्वार पर पहुँचे, जहां सुरक्षा गार्ड चमचमाता छाता पकड़े खड़ा था।

जैसे ही बुजुर्ग छत्र के नीचे आए, गार्ड ने उन्हें ऊपर से नीचे तक देखकर तिरस्कार भरे स्वर में पूछा, “क्या चाहिए?” बुजुर्ग ने मुस्कराकर कहा, “बेटा, थोड़ी देर अंदर बैठना है, बारिश रुकने तक।” गार्ड ने ठंडी आवाज में टोक दिया, “यह कोई धर्मशाला नहीं है। यहाँ ऐसे लोगों की एंट्री नहीं है।” बुजुर्ग विनीत भाव से बोले, “बस थोड़ी देर, बारिश रुकने तक…” लेकिन गार्ड ने उनकी एक न सुनी, बल्कि हल्का धक्का दे दिया। उसकी वजह से बुजुर्ग का बैग नीचे गिर गया, पुराना फोन और कुछ कागज भीग गए।

होटल के रिसेप्शन पर खड़े, कुछ लोगों ने यह नजारा देखा—कुछ ने मुंह फेर लिया, कुछ हँस दिए, किसी ने तिरस्कार से सिर हिलाया। बुजुर्ग ने बिना कोई प्रतिवाद किए, सामान उठाया और होटल के बाहर, एक कोने में खड़े हो गए।

बारिश अब और तेज हो चली थी। बुजुर्ग ने अपने पुराने फोन से किसी को कॉल किया, “मैं पहुँच गया हूँ, समय आ गया है…” और फिर वे खंभे का सहारा लेकर सड़क की ओर देखने लगे।

सिर्फ कुछ मिनट बीते थे कि होटल के बाहर अचानक हलचल बढ़ गई। लग्जरी ब्लैक कारों का एक लंबा काफिला आकर रुका, पुलिस अधिकारी, होटल मैनेजमेंट के बड़े लोग तेजी से उतरे। मैनेजर ने जैसे ही बाहर खड़े उस बुजुर्ग को देखा, पहचान कर दंग रह गया।

भीतर के हर किसी को हैरानी थी। गार्ड राजेश, जो अभी तक तिरस्कार से पेश आया था, अब पत्थर सा जड़ हो गया था।

मैनेजर भागते हुए आया, “सर, आपने बताया क्यों नहीं कि आप आ रहे हैं?” बुजुर्ग ने शांत स्वर में कहा, “क्यों बताता? मैं देखना चाहता था कि यहाँ हर आम इन्सान के साथ कैसा व्यवहार होता है।” अब पुलिस अधिकारी भी सलाम ठोंक रहे थे। भीड़ सन्न रह गई थी। थोड़ी ही देर में असिस्टेंट ने होटल के लोगों को एक फाइल थमाई, जिस पर लिखा था—”बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स, चेयरमैन की इंस्पेक्शन रिपोर्ट”। मैनेजर चौंक गया, “सर, आप तो होटल चैन के मालिक हैं!”

फिर बुजुर्ग ने बिना किसी अभिमान के—but पूरे संयम और गरिमा के कहा, “हाँ, लेकिन मैं आज मालिक बनकर नहीं, एक आम मेहमान बनकर आया था। ताकि देख सकूं, यहाँ इमारत की कीमत है या इंसानियत की।”

वो गार्ड, राजेश, अब सिर झुकाए खड़ा था। बुजुर्ग ने फिर पुछा, “तुम्हें किसने सिखाया कि कपड़े देखकर इंसान की कीमत तय करो?” राजेश जवाब न दे सका।

बुजुर्ग ने आदेश दिए, “आज से होटल की हर शाखा में स्टाफ के व्यवहार की समीक्षा और शिक्षा अनिवार्य होगी। इंसान की इज्जत सबसे ऊपर होगी।” लोगों की भीड़ अब समझ चुकी थी—असली अमीरी भीतर होती है, कपड़ों में नहीं।

होटल के अंदर जाकर बुजुर्ग ने रिसेप्शनिस्ट से वही सवाल किया—“अगर किसी के पास पहचान पत्र न हो, लेकिन बुकिंग हो तो क्या आप ठहरने देंगी?” वो बोली—सर, होटल पॉलिसी… बुजुर्ग ने कहा, “मैं पॉलिसी नहीं, इंसानियत पूछ रहा हूं।”

वे बोले— “मैं आज से 50 साल पहले ऐसे ही एक होटल के बाहर गीले कपड़ों में खड़ा था, मुझे अंदर आने नहीं दिया। तभी संकल्प लिया था, अगर कभी अपनी जगह बनाऊंगा तो किसी के साथ ऐसा अन्याय नहीं दूंगा।”

आज सब बदल चुका था। मीडिया, कैमरे, सोशल मीडिया—हर तरफ यही चर्चा थी। बुजुर्ग ने अब भी गार्ड राजेश को नौकरी से नहीं निकाला। सिर्फ कहा, “राजेश, याद रखना, असली नौकरी तनख्वाह से नहीं, इज्जत से मिलती है। तुम्हें माफ करना नहीं, बदलना है।”

फिर पूरी गंभीरता और विनम्रता के साथ सामने भीड़ से बोले— “मेरा नाम राजेंद्र प्रसाद मेहता है। यह होटल, और देशभर की 32 शाखाएँ मेरी हैं। लेकिन असली पहचान मेरा या इन होटल्स का सिर्फ इतना है—जिस दिन यहाँ किसी गरीब को भीगने से बचाने के लिए तौलिया और चाय ना मिले, उस दिन वह होटल पाँच सितारा नहीं रहेगा।”

तालियों की गड़गड़ाहट में, वह होटल के भीतर चले गए। भीड़ इज्जत, इंसानियत और सच्ची भव्यता की नयी कहानी लेकर लौट गई।