संवेदना की नींव: देवकीनंदन वर्मा की कहानी
मुंबई का एक आलीशान कॉर्पोरेट टावर, सुबह के 10 बजे का वक्त―हर कोना रौनक से भरा था। स्टाफ अपनी-अपनी जिम्मेदारियों में व्यस्त थे, कॉफी मशीनें चालू थीं, मीटिंग रूम्स की हलचल अलग थी। इसी तेज़-रफ्तार माहौल में एक सादगी भरा, लेकिन गंभीर वृद्ध व्यक्ति प्रवेश करता है। उम्र लगभग 75, चेहरे की झुर्रियां समय की लंबी कहानी कहती हैं। सफेद सलवटों वाली शर्ट, ढीली पैंट, घिसे हुए जूते और छाती से लगी एक पुरानी सी फाइल―जिसे वे अपनी इज्जत मानते थे।
वो धीरे-धीरे रिसेप्शन की ओर बढ़े। डेस्क पर एक युवा रिसेप्शनिस्ट बैठा था―फैशनेबल कपड़े, लेटेस्ट फोन, बालों में स्टाइल। बुजुर्ग ने शांत स्वर में कहा, “बेटा, मैं यहां नौकरी के लिए आवेदन देना चाहता हूं। ये मेरी फाइल है।” रिसेप्शनिस्ट ने सिर से पैर तक उन्हें देखा, फिर उपहास भरी हंसी के साथ बोला, “सर, लगता है आप रास्ता भटक गए हैं। ये कोई वृद्धाश्रम नहीं, ग्लोबल टेक फर्म है। यहां रिटायरमेंट नहीं टेक्नोलॉजी चलती है!”
आस-पास के दो और स्टाफ मुस्कुरा दिए। किसी ने फुसफुसाया, “कहीं बाहर से आ गए होंगे…” बुजुर्ग की आंखों में कोई प्रतिक्रिया नहीं थी, बस हल्के से होंठ कांपे। उन्होंने अपनी फाइल सीने से और कस ली और धीमे कदमों से पीछे मुड़ने लगे। अपमान उनके चेहरे पर नहीं, पीठ पर दिखाया।
तभी ऊपरी मंजिल से एक सीनियर एग्जीक्यूटिव दौड़ता हुआ नीचे आया। हाथ जोड़ते हुए बोला, “सर, कृपया रुकिए! आपने बताया क्यों नहीं कि आप आ रहे हैं?” पूरा ऑफिस हॉल स्तब्ध था। अब कोई हंसी नहीं, सिर्फ असहज शांति। वही रिसेप्शनिस्ट जो अभी हंस रहा था, अब गिल्टी सा चुप था। सीनियर एग्जीक्यूटिव ने सबको सामने कहा, “ये हैं श्रीमान देवकीनंदन वर्मा, इस कंपनी के मूल संस्थापक! हम सब इनके बनाए रास्तों पर चलते हैं। इनके बिना तो हम कुछ नहीं। आज इन्हें हमसे नौकरी मांगनी पड़ी!”
रिसेप्शनिस्ट के हाथ से फाइल गिर गई। सबका घमंड एक झटके में टूट गया। किसी ने सोचा भी नहीं था कि अभी जिसे सबने अनदेखा किया, वह कंपनी का आधारशिला है, जिसकी तस्वीर आज भी कॉन्फ्रेंस रूम की दीवार पर टंगी है―धूल से ढकी, मगर गौरवशाली।
डायरेक्टर बोला, “सर, आपने बताया क्यों नहीं?” देवकीनंदन जी ने जवाब दिया, “मैं बस देखना चाहता था कि जिस सपने को छोड़कर गया था, उसमें अब भी वही गरिमा, वही संवेदना बाकी है या सब दिखावा भर रह गया है।” रिसेप्शनिस्ट रो पड़ा, “सर, मुझे माफ़ कर दीजिए, मैं आपको नहीं पहचान पाया।” देवकीनंदन जी बोले, “जानना जरूरी नहीं, बेटा। समझना ज़रूरी है। हर बड़ा दिखने वाला आदमी सच में बड़ा नहीं और हर साधारण सा दिखने वाला छोटा नहीं होता।”
अब कंपनी के सीईओ और बोर्ड, सब नीचे आ गए। किसी ने चुपचाप उनके पैर छुए, किसी ने सिर झुकाया। वहीं फाइल अब भी फर्श पर थी―जिसमें उनका कोई बायोडाटा नहीं बल्कि एक चिट्ठी थी:
“अगर कंपनी की नींव में अब भी मनुष्यता बाकी है, तो लौटूंगा। अगर सिर्फ दिखावा है, तो मैं वहीं ठीक हूं, जहां केवल सुकून है।”
अब सबकी आंखें नम थीं। सीईओ ने देवकीनंदन जी को गले लगाया, “सर, आपने हमें आईना दिखाया। हम कंपनी चला रहे थे, पर आत्मा खो चुके थे। कृपया, बतौर संस्थापक नहीं, बतौर संस्कृति हमारे साथ रहिए।”
देवकीनंदन जी ने जाते-जाते रिसेप्शनिस्ट से कहा, “तुम्हें हटाया नहीं, पढ़ाया जाना चाहिए। गलती से इंसान नहीं, सीख से बदलता है।” यही वाक्य अगले हफ्ते की ट्रेनिंग पॉलिसी का सूत्रवाक्य बना।
अब कंपनी में बदलाव का दौर शुरू हुआ। रिसेप्शनिस्ट सबसे पहले आता, सबसे बाद में जाता, और अब उसने किताबें पढ़नी शुरू कर दी थीं―कंपनी के ‘मूल विचार’, ‘संवेदना का महत्व’, ‘संस्थापक की आत्मकथा’।
एचआर डिपार्टमेंट ने नई ट्रेनिंग शुरू की: Empathy Before Efficiency। पहले दिन की स्लाइड पर लिखा था―“संस्थापक सिर्फ दस्तखत नहीं करते, वे दीवारों से पहले रिश्ते बनाते हैं”, साथ में देवकीनंदन जी की वह तस्वीर, जब उन्होंने पहली ईंट रखी थी।
डायरेक्टर की मीटिंग में सीईओ ने कहा, “अब हमें सिर्फ कंपनी नहीं, संस्कृति बनानी है। रिसेप्शन पर जो घटना हुई, वह किसी व्यक्ति की नहीं, हमारी सोच की परीक्षा थी―जिसमें हम असफल हुए।”
एक सीनियर मेंबर बोला, “क्या हम देवकीनंदन जी को फिर बोर्ड में ला सकते हैं?” सीईओ बोले, “वे कभी गए ही नहीं, हमने उन्हें भुला दिया था―अब याद करना शुरू किया है।”
कंपनी के हॉल में विशेष स्वागत कार्यक्रम आयोजित हुआ―स्लोगन था: “Welcome back the soul of our company.” देवकीनंदन जी ने माइक संभाला, बोले, “मैं लौटकर खुशी नहीं, चिंता लेकर आया हूं। जब कंपनी की दीवारें शीशे की बनती हैं, तो वे पारदर्शिता के संग गिरावट भी दिखाती हैं।”
उन्होंने वही चिट्ठी पढ़ी, “अगर आप समझ चुके कि उम्र का अनुभव नए विचार से कम नहीं होता, तो मैं यहां रहूंगा।”
कार्यक्रम के अंत में एेलान हुआ―अब हर नए कर्मचारी की नियुक्ति से पहले संस्थापक सत्र होगा, जिसमें देवकीनंदन जी से एक सवाल पूछा जाएगा: “आप गए थे, लौटे क्यों?” और हर बार उनका जवाब होगा, “क्योंकि नींव की आवाज छत से नहीं आती, पर जब डगमगाती है, तो सब हिलता है।”
अब रिसेप्शन एरिया में नई तस्वीर लगी है―बुजुर्ग देवकीनंदन जी, साधा-सा पहनावा, सीने से लगी फाइल… संस्थापक सिर्फ कंपनी नहीं बनाते, वे संस्कृति छोड़ जाते हैं। इज्जत उम्र से नहीं, नींव से मिलती है। जब दुनिया देख भी न रही हो, वही नींव असली पहचान बनाती है।
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