राधा और बैंक – इज्जत का असली मतलब (हिंदी कहानी)
एक दुबली-पतली दस साल की लड़की, राधा, अपने पाँच महीने के भाई अंश को गोद में लिए चुप कराने की कोशिश कर रही थी। छोटा सा अंश भूख से रो रहा था और उसका मासूम रोना तंग कमरे की दीवारों से टकरा कर गूंज रहा था। तभी दरवाजा खुलता है, और उसके पिता रवि कमरे में दाखिल होते हैं। रवि शहर के एक जाने-माने व्यापारी हैं, लेकिन घर में उनका अंदाज बेहद साधारण है।
रवि अलमारी के पास जाकर एक पुरानी कमीज और घिसा पिटा पायजामा निकालते हैं और राधा को देते हुए कहते हैं, “यह पहन लो बेटा।”
राधा हैरानी से कपड़ों को देखती है, “पापा, ये तो बहुत पुराने हैं। अगर स्कूल में ऐसे पहनकर जाऊंगी तो सब मजाक उड़ाएंगे।”
रवि मुस्कुरा कर गंभीरता से कहते हैं, “आज तुम स्कूल नहीं जा रही हो। आज की क्लास कहीं और होगी। आज तुम्हें वो सीखना है जो कोई किताब नहीं सिखाती।”
फिर वे अपना एटीएम कार्ड निकालकर राधा के हाथ में रखते हैं, “बैंक जाओ, इससे 500 रुपये निकालना। अंश के लिए दूध और घर के लिए थोड़ा राशन ले आना।”
राधा चौंक जाती है, “पापा, आप खुद क्यों नहीं जाते? मैं तो छोटी हूं।”
रवि गहरी सांस लेकर कहते हैं, “क्योंकि तुम्हें यह देखना जरूरी है कि दुनिया तब तुम्हारे साथ कैसा बर्ताव करती है, जब उसे यह नहीं पता होता कि तुम कौन हो। और तुम्हें यह भी सीखना है कि लोग गरीब के साथ कैसा भेदभाव करते हैं। याद रखना, गुस्सा मत करना।”
राधा उलझन में थी, लेकिन सिर झुका कर हामी भर दी। रवि ने बेटी के कंधे पर हाथ रखा, “यह सफर सिर्फ पैसे निकालने का नहीं है, समझ हासिल करने का है।”
कुछ देर बाद राधा ने वही पुराने कपड़े पहन लिए, पैरों में ढीली चप्पलें, कंधे पर एक छोटा थैला जिसमें पानी की बोतल और दो खाली दूध की बोतलें रखीं। बैंक घर से करीब दो किलोमीटर दूर था। धूप तेज थी, रास्ते में लोग अपने-अपने काम में व्यस्त थे। कोई भी उस छोटी बच्ची और उसके रोते भाई पर ध्यान नहीं दे रहा था।
राधा सोच रही थी, “पापा ने यह काम क्यों दिया? इतनी तेज धूप है, मैं तो चलते-चलते थक जाऊंगी।”
करीब एक घंटे बाद वह शहर की सबसे बड़ी बैंक शाखा के सामने पहुँची। बाहर सिक्योरिटी गार्ड्स थे, जिन्होंने उसे देखा और फिर नजरें फेर ली। राधा ने बैंक में घुसने की कोशिश की तो गार्ड ने उसे रोक लिया, “ए लड़की, अंदर कहां जा रही है? ये बैंक है, सिर्फ अमीरों का खाता होता है, तू तो भिखारी लग रही है। तेरा इसमें क्या काम?”
राधा डर गई, लेकिन हिम्मत कर बोली, “मैं एटीएम से पैसे निकालने जा रही हूं,” और कार्ड दिखा दिया। गार्ड ने कार्ड देखकर उसे अंदर जाने दिया।
अंदर कदम रखते ही एसी की ठंडी हवा ने उसके पसीने से भीगे चेहरे को छुआ। सामने का नजारा बिल्कुल अलग था – लोग आराम से कुर्सियों पर बैठे, कतारों में खड़े, बातचीत कर रहे थे। उनके चमचमाते जूते, महंगे बैग, परफ्यूम की खुशबू। राधा हिम्मत करके काउंटर की तरफ बढ़ी। जेब से कार्ड निकाला, काउंटर पर रखा और धीमे स्वर में बोली, “दीदी, 500 रुपये निकालने हैं।”
काउंटर पर बैठी महिला ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा, तंज भरी मुस्कान आई, “ये बैंक है बहन, मुफ्त राशन की दुकान नहीं। ये कार्ड तुम्हारे पास कहां से आया?”
राधा डरते-डरते बोली, “ये मेरे पापा का कार्ड है।”
कैशियर ने ताना मारते हुए कार्ड उठाया, देखा और हंस पड़ी, “अरे, ये तो खिलौनों वाला कार्ड लगता है। इसमें पैसे कहां से आएंगे?”
लाइन में खड़े किसी ने मज़ाक उड़ाया, “अरे बच्ची को दो टॉफी दे दो, खरीद लेगी।” कुछ लोग ठहाके लगाने लगे।
अंश का रोना और तेज हो गया। लेकिन राधा चुप रही। उसने धीरे से कार्ड वापस लेने की कोशिश की, लेकिन कैशियर ने हाथ पीछे खींच लिया, “यहां नाटक नहीं चलेगा।”
तभी केबिन का दरवाजा खुला, बाहर आए ब्रांच मैनेजर अमित कुमार। “क्या तमाशा लगा रखा है यहां?”
कैशियर ने शिकायत की, “सर, ये बच्ची 500 रुपये निकालना चाहती है। कपड़े मैले हैं, गोद में छोटा बच्चा है। शक्ल भीख मांगने वालों जैसी है। कहती है कार्ड उसके बाप का है।”
मैनेजर ने राधा को घूरा, “जानती हो, ये जुर्म है। ये कार्ड तुम्हारा नहीं है, झूठ मत बोलो।”
राधा घबरा गई, मगर बोली, “नहीं सर, ये मेरा ही है, पापा ने दिया है।”
मैनेजर गुस्से में बोला, “सिक्योरिटी, इसे बाहर निकालो।”
गार्ड आगे बढ़ा, उसकी आंखों में थोड़ी हमदर्दी थी, लेकिन ड्यूटी भारी पड़ रही थी। उसने धीरे से कहा, “बेटा, चलो यहां से। यह जगह तुम्हारे लिए नहीं है।”
राधा ने गिड़गिड़ा कर कहा, “मैं सच बोल रही हूं, बस पैसे निकालना चाहती हूं।”
गार्ड ने उसका बाजू पकड़ लिया और बाहर ले आया। पूरे बैंक में हर नजर उसी पर टिक गई थी। कुछ लोगों की आंखों में हल्की सी दया थी, लेकिन ज्यादातर ने इसे तमाशा समझा।
पास बैठी एक बुजुर्ग महिला ने ताना मारा, “गरीब लोग भी ना, इज्जत रखना नहीं जानते।”
यह शब्द राधा के दिल को चीर गए। बाहर निकलते ही वह दरवाजे के पास जमीन पर बैठ गई। हल्की बूंदाबांदी हो रही थी। अंश उसकी छाती से लगा लगातार रो रहा था। राधा ने एटीएम कार्ड को मुट्ठी में कसकर पकड़ रखा था, जैसे वहीं उसकी आखिरी उम्मीद थी। पापा की बात उसके कानों में गूंज रही थी – “गुस्सा मत करना।”
पर अंदर एक तूफान था, जिसे वह चाहकर भी बाहर नहीं निकाल पा रही थी। बैंक के कर्मचारी अपने काम में लग चुके थे, जैसे कुछ हुआ ही ना हो। गार्ड भी अपनी कुर्सी पर बैठ गया। राधा को लग रहा था कि दुनिया ने मिलकर उसकी इज्जत छीन ली है। लोग आते-जाते रहे, कुछ ने उस पर निगाह डाली, कुछ ने ऐसे देखा जैसे वह अदृश्य हो। दो-चार ने तो उसे भिखारी समझकर सिक्के निकालने चाहे, लेकिन राधा ने मना कर दिया। यह भीख मांगने का दिन नहीं था, यह पापा की दी हुई परीक्षा का दिन था।
तभी सड़क किनारे एक चमचमाती काली गाड़ी आकर रुकी। उसमें से एक शख्स उतरा – काले सूट, चमकते जूते, महंगी घड़ी। वह बैंक की तरफ बढ़ रहा था, लेकिन जैसे ही उसकी नजर राधा पर पड़ी, उसके कदम थम गए। वह शख्स अचानक राधा के सामने घुटनों के बल बैठ गया, आवाज में नरमी थी, “बेटा, सब ठीक है ना?”
राधा ने सिसकते हुए अंश को कसकर पकड़ लिया, “पापा, मैंने कुछ नहीं किया, बस पैसे निकालना चाहती थी।”
रवि ने एक हाथ से बेटी के बालों को सहलाया, दूसरे हाथ से उसे उठाया और सीधे बैंक के दरवाजे की ओर बढ़े। जैसे ही अंदर दाखिल हुए, पूरा माहौल बदल गया। कर्मचारी सजग होकर बैठ गए, कुछ ग्राहक पहचान गए कि यह कोई साधारण आदमी नहीं है। रवि सीधे काउंटर तक पहुंचे, “मेरी बेटी को किसने इस हालत में बाहर निकाला?”
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