आठ सालों की तलाश, एक मां का दर्द और चमत्कारी मिलन – एक भावुक कहानी

सुबह के सात बजे थे। डीएम दीक्षा कुमारी अपनी सफेद इनोवा कार में बैठकर जिले के दौरे पर निकली थीं। आज राज्य सरकार के बड़े प्रोजेक्ट का उद्घाटन था। उनके चेहरे पर गंभीरता थी, लेकिन आंखों में एक अजीब सी उदासी भी छुपी थी। पिछले आठ सालों से वह इसी तरह अपने काम में खुद को व्यस्त रखती आई थीं, जैसे किसी गहरे दर्द से बचने की कोशिश कर रही हों।

गाड़ी धीरे-धीरे चल रही थी। दीक्षा जी खिड़की से बाहर देख रही थीं—सड़क पर स्कूल जाते बच्चे, उनकी मासूमियत, और हर बच्चे को देखकर उनके दिल में एक टीस उठती थी। वह अपने अतीत की यादों में खो जाती थीं। तभी सड़क पर अचानक शोर मच गया। “मैडम, आगे कुछ गड़बड़ लग रही है,” ड्राइवर रामू ने कहा। सड़क पर भीड़ जमा हो गई थी, सभी एक दिशा में भाग रहे थे।

दीक्षा जी ने गाड़ी रुकवाई और खुद भी बाहर निकल गईं। भीड़ के बीच एक छोटा सा लड़का बेहोश पड़ा था। उसके कपड़े फटे थे, सिर से खून बह रहा था। लोग सिर्फ तमाशा देख रहे थे, कोई मदद करने की हिम्मत नहीं कर रहा था। दीक्षा जी ने फौरन एंबुलेंस बुलवाई और बच्चे को अपनी गोद में उठा लिया। जैसे ही उन्होंने बच्चे को बाहों में लिया, उन्हें अजीब सा एहसास हुआ—मानो यह सब पहले भी हुआ हो।

बच्चे को अस्पताल ले जाया गया। इलाज शुरू हुआ। दीक्षा जी रातभर बच्चे के पास बैठीं, उसकी देखभाल की। जब बच्चा होश में आया, उसने धीमी आवाज में कहा, “आंटी, मेरा नाम हर्षित है।” यह नाम सुनते ही दीक्षा जी की धड़कन तेज हो गई। आठ साल पहले उनके बेटे का नाम भी हर्षित था, जो एक हादसे में खो गया था।

“तुम्हारे मम्मी-पापा कहां हैं?” दीक्षा जी ने पूछा। “मेरे मम्मी-पापा नहीं हैं, मैं अनाथ आश्रम में रहता हूं,” बच्चे ने रोते हुए कहा। दीक्षा जी का दिल टूट गया। अगले दो दिन दीक्षा जी बच्चे के साथ रहीं। वह उसे खाना खिलातीं, कहानियां सुनातीं, सुलातीं। डॉक्टरों ने कहा—बच्चा अब ठीक है, उसे वापस अनाथ आश्रम भेजना होगा। दीक्षा जी का मन नहीं माना। उन्होंने अनाथ आश्रम के सुपरिटेंडेंट से मिलकर कानूनी प्रक्रिया पूरी की और हर्षित को गोद ले लिया।

हर्षित के आने से दीक्षा जी का सूना घर फिर से खुशियों से भर गया। पहली बार हर्षित को मां का प्यार मिला। एक दिन उसने दीक्षा जी को “मम्मी” कह दिया। आठ साल बाद किसी ने उन्हें मम्मी कहा था। दीक्षा जी की आंखों से आंसू बह निकले।

रात को दीक्षा जी अपने अतीत में खो गईं। आठ साल पहले, उनके पति आदित्य (IAS ऑफिसर) और बेटा हर्षित एक एक्सीडेंट में खो गए थे। पति की मौत हो गई, बेटा गायब था। पुलिस, अनाथ आश्रम, हर जगह तलाश की, लेकिन हर्षित नहीं मिला। दीक्षा जी ने खुद को काम में डुबो दिया, लेकिन हर बच्चे को देखकर उन्हें अपने बेटे की याद आती थी।

एक दिन अनाथ आश्रम से फोन आया—”मैडम, हर्षित को आठ साल पहले रेलवे स्टेशन के पास छोड़ दिया गया था। उसके गले में एक चैन थी, जिस पर ‘हर्षित’ लिखा था।” दीक्षा जी ने वह चैन देखी, पहचान गईं—यह वही चैन थी, जो उन्होंने अपने बेटे को पहनाई थी।

अब उन्हें पूरा यकीन हो गया कि यही उनका बेटा है। दीक्षा जी ने मेडिकल रिकॉर्ड्स और ब्लड ग्रुप चेक किया—सब कुछ मैच करता था। आखिरकार DNA टेस्ट कराया गया। रिजल्ट आया—हर्षित उनका बायोलॉजिकल बेटा है। दीक्षा जी और हर्षित दोनों खुशी से रो पड़े।

अब हर्षित का स्कूल, दोस्त, टीचर्स सब जान गए कि वह डीएम साहिबा का बेटा है। कोई उसे “अडॉप्टेड” नहीं कहता था। दीक्षा जी ने अपने पति आदित्य की कब्र पर हर्षित को ले जाकर कहा—”पापा, आपका बेटा वापस आ गया है।”

हर्षित पढ़ाई में बहुत अच्छा था। उसने “हेल्प द नीडी” क्लब बनाया, गरीब बच्चों की मदद करता था। दीक्षा जी ने जिले में कई नए अनाथ आश्रम खुलवाए, अडॉप्शन प्रक्रिया आसान की। हर्षित ने अपना नाम “हर्षित कुमारी” रखने का फैसला किया, ताकि मां का नाम हमेशा उसके साथ रहे।

कुछ साल बाद, हर्षित ने मेडिकल एंट्रेंस एग्जाम क्लियर किया और डॉक्टर बनने का सपना पूरा किया। दीक्षा जी ने कहा—”मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि मुझे मेरा बेटा वापस मिल गया, और वह एक अच्छा इंसान बन रहा है।”

**सीख:**
यह कहानी हमें सिखाती है कि मां का प्यार और उम्मीद कभी हार नहीं मानती। अगर दिल से चाहो तो चमत्कार जरूर होते हैं।
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