आईपीएस साक्षी राजपूत की कहानी – वर्दी की असली ताकत
गर्मियों की सुबह थी, करीब 9 बजे। आईपीएस साक्षी राजपूत अपने कार से एक गुप्त मिशन के लिए जा रही थीं। आज वह वर्दी में नहीं थीं, बल्कि सादा कपड़ों में थीं ताकि किसी को शक न हो। अचानक उनकी कार खराब हो गई। मजबूरी में उन्होंने एक ऑटो रुकवाया और उसमें बैठ गईं।
ऑटो में पहले से एक भारी-भरकम आदमी बैठा था, आंखों पर बड़ा काला चश्मा, चेहरे पर अजीब मुस्कान। साक्षी ने जल्दी में उस पर ध्यान नहीं दिया और चुपचाप बैठ गईं। कुछ मिनट बाद वह आदमी मुस्कुराकर बोला, “बहन जी, कहां जा रही हैं इतनी जल्दी?”
साक्षी ने शांत स्वर में जवाब दिया, “काम से जा रही हूं।”
कुछ देर बाद वह आदमी फुसफुसाया, “आप तो बहुत खूबसूरत हैं, आपको तो फिल्मों में होना चाहिए।”
अब साक्षी का चेहरा सख्त हो गया। उन्होंने ठंडी आवाज में कहा, “मुझे परेशान मत कीजिए, मुझे मेरी मंजिल तक पहुंचना है।”
पर वह आदमी नहीं रुका। फिर हंसते हुए बोला, “अगर चाहो तो मैं खुद छोड़ दूं। वैसे आज रात का क्या प्लान है?”
इतना सुनते ही साक्षी का सब्र टूट गया। उन्होंने झटके से उसकी तरफ देखा और एक जोरदार थप्पड़ उसके गाल पर जड़ दिया। ऑटो अचानक रुक गया। साक्षी चिल्लाकर बोली, “तमीज में रहो!”
ऑटो चालक भी घबरा गया। लेकिन तभी उस आदमी ने जेब से पुलिस का पहचान पत्र निकाला और ठहाका लगाते हुए बोला, “तू जानती नहीं मैं कौन हूं। मैं इस इलाके का दरोगा राकेश वर्मा हूं। वर्दी वाले पर हाथ उठाया है तूने। अब देख मैं क्या करता हूं तेरे साथ।”
साक्षी ने आंखों में आंखें डालकर सख्त स्वर में कहा, “वर्दी का मतलब ईमानदारी और लोगों की सेवा है। तुम जैसे लोग ही पुलिस की इज्जत को कलंकित करते हैं।”
लेकिन दरोगा पहले ही आपा खो चुका था। उसने फोन घुमा दिया, “जल्दी आओ, मैंने एक अपराधी को पकड़ा है।”
कुछ ही मिनटों में पुलिस की जीप आ गई। दो सिपाही उतरे और बिना सवाल किए साक्षी को पकड़ कर घसीटने लगे। पब्लिक तमाशा देख रही थी, कुछ लोग मोबाइल से वीडियो बना रहे थे मगर किसी ने मदद नहीं की।
दरोगा राकेश ने उसके बाल पकड़ कर जीप में धकेल दिया। आईपीएस साक्षी राजपूत, जिसने ना जाने कितने खतरनाक अपराधियों को जेल पहुंचाया था, आज खुद अपराधी की तरह घसीटी जा रही थी।
उसकी आंखों में गुस्सा था, डर नहीं। मन ही मन उन्होंने ठान लिया था — अब इस सिस्टम को भीतर से साफ करना ही होगा।
थाने पहुंचते ही दरोगा राकेश बोला, “अब दिखाऊंगा तुझे तेरी औकात। बहुत हिम्मत है ना तुझ में, देखता हूं कब तक टिकती है।”
साक्षी का चेहरा शांत था, लेकिन भीतर ज्वालामुखी फट रहा था। उन्हें लग रहा था अब यह लड़ाई सिर्फ उनकी नहीं रही, यह हर उस औरत की लड़ाई है जिसे इस सिस्टम ने हमेशा दबाने की कोशिश की है।
थाने के भीतर का माहौल सड़ा हुआ लग रहा था। दीवारों पर नेताओं की धुंधली तस्वीरें, टूटी खिड़कियों में फंसी पॉलिथीन, फर्श पर फैली गंदगी, सब कुछ उस व्यवस्था का असली चेहरा दिखा रहा था।
साक्षी को आम कैदी की तरह भीतर लाया गया। किसी को अंदाजा भी नहीं था कि यह वही महिला है जिसने बड़े-बड़े गैंगस्टरों को पकड़ा है, नक्सल ऑपरेशन लीड किए हैं और जिनकी बहादुरी पर किताबें लिखी गई हैं।
एक कांस्टेबल ने रजिस्टर उठाया और तंज कसते हुए पूछा, “नाम क्या है तेरा?”
साक्षी की आंखों में दृढ़ता चमक रही थी। उन्होंने ठंडे स्वर में कहा, “नाम नहीं बताऊंगी, जो करना है कर लो।”
दरोगा राकेश फिर हंसा, “बहुत हिम्मत है तेरे में, डालो इसे हवालात में। एक रात में ठंडी हो जाएगी, फिर अपने आप सब उगल देगी।”
सिपाहियों ने जबरन उसे महिला हवालात में धकेल दिया। लोहे की भारी सलाखें जोर से बंद हुईं। उस पल साक्षी राजपूत की पहचान जैसे मिटा दी गई हो। अब वह सिर्फ एक बेनाम कैदी थी।
हवालात के भीतर घना अंधेरा पसरा था। ऊपर से एक पुराना बल्ब लटक रहा था। अंदर पहले से चार और महिलाएं मौजूद थीं। कोई चुपचाप एक कोने में बैठी थी, कोई दीवार से सटी कांप रही थी, कोई हथेलियों में चेहरा छुपाकर सिसक रही थी। सबकी आंखों में दर्द लिखा था।
साक्षी धीरे-धीरे एक कोने में जाकर बैठ गई। कुछ देर बाद एक अधेड़ उम्र की महिला उसके पास आकर बैठ गई। चेहरे पर पुराने घावों के निशान थे।
उसने धीमे स्वर में पूछा, “तू यहां की नहीं लगती, किस जुर्म में लाए हैं तुझे?”
साक्षी ने हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया, “बस एक दरोगा को थप्पड़ मार दिया।”
महिला कुछ पल चुप रही, फिर ठंडी हंसी हंसी, “यहां थप्पड़ नहीं, सिर्फ सच बोलने पर भी औरतों को गुनहगार बना दिया जाता है।”
साक्षी ने उसकी आंखों में झांका। उसमें केवल एक औरत नहीं बल्कि व्यवस्था की बेरहमी का जीवित सबूत दिखाई दे रहा था।
“तुम किस केस में हो?” साक्षी ने पूछा।
महिला ने गहरी सांस ली, “रिश्वत नहीं दी तो चोरी के झूठे केस में फंसा दिया। अब तीन महीने से यहीं सड़ रही हूं।”
उसके शब्द साक्षी के दिल में कांटों की तरह चुब गए।
अचानक एक युवती की चीख गूंजी, “साहब, प्लीज मुझे उस कमरे में मत भेजो, मैं सब सच बता दूंगी।”
दरोगा राकेश वर्मा की कठोर आवाज आई, “सच अभी किसी काम का नहीं है, या तो पैसे ला या वहीं जा।”
साक्षी की नसें तन गईं। यह क्या हो रहा है? क्या इस थाने में वर्दी की आड़ में सौदेबाजी होती है? यही है हमारी न्याय व्यवस्था का असली चेहरा।
सुबह हुई। एक सिपाही ने दरवाजा खोला, “चलो सब लाइन में लगो, इंस्पेक्टर साहब आने वाले हैं।”
सभी कैदी कतार में खड़े कर दिए गए। साक्षी ने तय कर लिया था कि वह अपनी पहचान नहीं बताएगी। उसने सोचा, अगर सचमुच इस गंदगी को देखना है तो उसे एक आम औरत की नजर से देखना होगा।
इंस्पेक्टर अंदर आया। एक-एक कैदी का नाम और पता पूछा। जब साक्षी की बारी आई तो उसने सिर झुका कर धीमी आवाज में कहा, “सीमा, बाकी कुछ नहीं पता।”
इंस्पेक्टर ने संदेह से देखा मगर आगे बढ़ गया। दरोगा राकेश तिरछी मुस्कान के साथ उसे देखता रहा।
उस दिन साक्षी को हवालात से निकालकर थाने के एक दूसरे कमरे में ले जाया गया। वहां एक टूटा हुआ सोफा पड़ा था, ऊपर पंखा चरमराता हुआ घूम रहा था, कोने में एक कैमरा रखा था।
कुछ ही देर में दरोगा राकेश भी वहां आ गया। उसने व्यंग्य भरी हंसी के साथ कहा, “नाम सीमा रख लिया तूने, चल अब असली नाम बता दे, शायद थोड़ा रहम हो जाए।”
साक्षी चुप रही। “ठीक है, बहुत अकड़ दिखा रही है ना, देखना रात होते-होते सब निकल जाएगा।”
साक्षी ने आंखें बंद कर ली। मन ही मन सोचा, अगर सच जानना है तो अभी चुप रहना होगा। लेकिन जिस दिन बोलूंगी तूफान मचा दूंगी।
थाने में अफरातफरी थी। नए कैदी लाए जा रहे थे। कुछ को पेशी पर भेजा जा रहा था।
हवालात के कोने में बैठी साक्षी जो सबके लिए अब सीमा थी, गहरी सोच में डूबी थी। पिछली रात ने उसके भीतर सब कुछ बदल दिया था।
यह अब सिर्फ उसकी इज्जत की लड़ाई नहीं थी, यह हर उस महिला की जंग थी जो इन दीवारों के भीतर गुम हो जाती है।
फिर उसे थाने के पुराने स्टोर रूम की सफाई के लिए भेजा गया। वहां अंधेरा और बदबू थी। दीवारों पर मकड़ी के जाले, फर्श पर पुरानी फाइलें, कागज और रजिस्टर बिखरे पड़े थे।
एक कोने में धूल जमी सीसीटीवी की डीवीआर मशीन पड़ी थी।
साक्षी ने रजिस्टर पलटना शुरू किया। पन्ने उलटते ही चौंकाने वाले नाम सामने आने लगे — महिलाओं के नाम जिन पर झूठे इल्जाम ठोक दिए गए थे। चोरी, संदिग्ध गतिविधि, बिना चार्जशीट, बिना ठोस सबूत के महीनों से कैद।
एक फाइल ने उसे अंदर तक हिला दिया — रीणा यादव, 19 साल, आरोप – संदिग्ध गतिविधियों में लिप्त, थाने में 17 दिन, कोई केस दर्ज नहीं। फाइल में तस्वीर भी लगी थी — मासूम चेहरा, डर, असमंजस, अस्त-व्यस्त कपड़े।
साक्षी की मुट्ठी कस गई। उसने सोचा, अब यह कानून नहीं, अनगिनत निर्दोषों का बोझ बन चुका है।
स्टोर की सफाई के बाद उसे दो अन्य महिलाओं के साथ खाने की थाली परोसने के लिए भेजा गया।
सिपाही मोबाइलों में व्यस्त थे। तभी एक स्त्री दबे स्वर में उसके पास आई, “तुम कौन हो? सच बताओ।”
तुम्हारे होने का अंदाज कुछ अधिकारी जैसा है।”
साक्षी मुस्कुराई, पर कुछ नहीं बोली।
महिला आगे बोली, “अगर तुम सच में मदद कर सकती हो, तो हमारी आवाज बनो। रात में किसे कहां ले जाया जाता है, हम सब जानते हैं, पर डर के मारे कोई कुछ बोलता नहीं है।”
साक्षी ने पहली बार किसी का हाथ थामा और धीमे दृढ़ स्वर में कहा, “मैं तुम्हारी आवाज बनूंगी, पर अभी चुप रहना पड़ेगा। सही वक्त पर हमारी चुप्पी चीख की तरह इस तंत्र को हिला देगी।”
रात गहरी हुई। सीमेंट के ठंडे फर्श पर लेटी साक्षी आंखें बंद किए हर चीज का हिसाब लगा रही थी।
यह अब व्यक्तिगत लड़ाई नहीं रही थी, यह एक शुरुआत बन रही थी। उसके मन में उन मासूम चेहरों की झलक थी जिन्हें वेश्या जैसा ठप्पा लगाकर सिस्टम ने कुचल दिया था। बिना केस, बिना सबूत, फिर भी महीनों से कैद।
सुबह हुई, थाने का गेट खुला और कुछ महिला कांस्टेबल कैदियों को कोर्ट के लिए ले गईं। यही मौका था।
साक्षी ने सविता शुक्ला, रुक्मणी के पास जाकर कह दिया, “तुम सबको एक-एक कर मुझसे मिला दो, जिन पर अन्याय हुआ है।”
सविता की आंखों में उम्मीद की झिलमिल जाग उठी।
कुछ ही देर में सात महिलाएं इकट्ठा हो गईं। हर चेहरा अलग लहजा वाला दर्द था। किसी को वेश्या कहकर बंद किया गया, किसी को राजनीतिक दुश्मनी में फंसाया गया, किसी को दहेज के झूठे मुकदमे में।
साक्षी ने चुपचाप उनकी कहानियां सुनी।
फिर योजना बनाई — “हम मिलकर भूख हड़ताल करेंगे। ना खाना खाएंगे, ना पानी पिएंगे, जब तक डीएसपी या जिलाधिकारी आकर हमारी सुनवाई नहीं कर लेते।”
महिलाएं एक-दूसरे की ओर देखने लगीं। कुछ भयभीत थीं।
किसी ने कहा, “अगर रात में किसी ने हमें उठा लिया तो?”
दूसरे ने कहा, “अगर हमें मार दिया गया तो?”
साक्षी ने दृढ़ता से कहा, “अगर ऐसा हुआ तो हमारी लाशें गवाही देंगी कि हमने इस सड़े हुए सिस्टम के खिलाफ आवाज उठाई थी। जब एक बार आवाज उठेगी, पूरा देश सुनने को मजबूर होगा।”
अगली सुबह नाश्ते पर किसी ने हाथ भी नहीं बढ़ाया।
पूरा वार्ड जमीन पर बैठ गया, सभी ने मुंह पर काली पट्टी बांध ली।
सिपाही दंग रह गए।
वह चिल्लाया, “यह क्या तमाशा है?”
सविता ने ठंडी मगर दृढ़ आवाज में कहा, “हम अब नहीं खाएंगे और ना बोलेंगे जब तक हमें इंसाफ नहीं मिलता।”
थाने में अफरातफरी मच गई। इंस्पेक्टर राकेश वर्मा और दरोगा यादव तिलमिला उठे, “किसने भड़काया इन सबको?”
पर जवाब में सिर्फ मौन था — वह मौन जो दीवारों को हिलाने लगा।
जब डीएसपी अमितेश त्रिपाठी को यह बात पता चली, वे तुरंत महिला वार्ड पहुंचे।
“कौन लीडर है? किसने भड़काया?”
सविता चुप रही, बाकी महिलाओं ने सिर झुका लिया।
भीड़ में से एक ने खड़े होकर जवाब दिया — वह साक्षी थी।
बड़ी शांति से उसने कहा, “यह किसी ने भड़काया नहीं सर, यह आत्मा की आवाज है जिसे अब और दबाया नहीं जा सकता।”
डीएसपी समझ चुके थे कि सामने कोई साधारण कैदी नहीं थी।
“तुम कौन हो सीमा?”
साक्षी ने इस बार भी शब्दों में कुछ नहीं कहा।
बस अपनी पट्टी हटाई और नीचे की मिट्टी पर अपनी उंगली से धीरे से लिख दिया —
“सिस्टम में बदलाव लाने के लिए पहले खुद को मिटाना पड़ता है।”
उस एक वाक्य ने वहां बैठी सभी महिलाओं में इतनी आग जगा दी कि सब ने अपने मुंह पर बंधी पट्टियां एक-एक कर हटा दीं और एक ही स्वर में गूंजी,
“हमें न्याय चाहिए! हमें इंसान समझो, गुनहगार नहीं!”
इंस्पेक्टर राकेश वर्मा ने यह बात बर्दाश्त ना की। उसके लिए सीमा अब एक चुनौती बन चुकी थी।
तभी दोपहर में थाने में एक नया मामला आया। तेज धूप थी।
थाने में एक युवती को लाया गया, लड़की बार-बार रो रही थी, “मैं निर्दोष हूं, मैंने कुछ नहीं किया, प्लीज मुझे छोड़ दीजिए।”
लेकिन किसी ने उसकी पुकार पर ध्यान नहीं दिया और उसे उसी काल कोठरी में डाल दिया गया।
साक्षी धीरे-धीरे उसके पास गई, “तुम्हारा नाम क्या है?”
कांपते हुए उसने कहा, “शालिनी, मैं कॉलेज में पढ़ती हूं।”
“तुम्हारा दोष क्या है?”
“कुछ नहीं, मां बीमार है, दवा लेने गई थी, तब पुलिस ने पकड़ लिया।”
रात हुई, साक्षी चुपके से शालिनी के पास पहुंची, “सच बताओ क्या हुआ था?”
शालिनी ने चारों ओर निगाहें घुमा कर देखा, “मैडम, यह पूरा खेल पुलिस और दलालों का है। लड़कियों को उठा लेते हैं, घर वाले पैसे दे दें तो छोड़ देते हैं, नहीं तो उन्हें वेश्या बताकर धंधे में धकेल देते हैं।”
“तुम्हें यह सब कैसे पता?”
“मेरी एक सहेली भी ऐसे ही लाई गई थी। अब वह नहीं है, उसके नाम की कोई फाइल नहीं, जैसे उसे मिटा दिया गया हो।”
यह जानकर साक्षी समझ गई कि यह सिर्फ थाने की हरकत नहीं, बल्कि एक बड़े नेटवर्क का हिस्सा है।
अगले दिन डीएसपी अमितेश त्रिपाठी जब निरीक्षण पर आए, तब साक्षी ने उनके सामने कुछ फाइलें रख दी — उन सभी के केस जो नकली बनाए गए थे या जिन पर कोई कार्रवाई ही नहीं हुई।
डीएसपी ने गंभीरता से दस्तावेज देखे, “तुम्हें यह सब कैसे मिला?”
साक्षी ने ठंडे दम पर उत्तर दिया, “सच बोलने के लिए पद नहीं, हिम्मत चाहिए सर।”
डीएसपी की नजरों में अब शक नहीं रहा।
इस बीच दरोगा राकेश वर्मा को एहसास हो गया कि कोई उसके कृत्यों को उजागर कर रहा है। वह आग बबूला हो उठा।
उसने आदेश दिया, “ले जाओ इसे काल कोठरी में डाल दो और दो दिन वहीं सड़ने दो।”
अब साक्षी उस अंधेरी गंदी कोठरी में बंद थी। भूख-प्यास ने शरीर थका दिया था, पर हौसला और मजबूत हुआ था। दर्द ने उसे नहीं तोड़ा, उसने दर्द को हथियार बना लिया था।
तीसरे दिन जब उसे बाहर निकाला गया तो माहौल बदल चुका था।
बाकी कैदी महिलाएं एक-एक कर उसके पास आने लगीं। उनके लिए वह अब सिर्फ एक बंदी नहीं, बल्कि उम्मीद और दिशा बन चुकी थी।
साक्षी ने तय कर लिया था, अब अगला कदम होगा इन सच्चाइयों को बाहर लाना। कैमरे के सामने लाना।
मगर इसके लिए किसी भरोसेमंद की जरूरत थी।
उसे याद आई सब इंस्पेक्टर नेहा चौधरी — वही नेहा जो कभी उसके साथ ईएसपी ऑफिस में काम कर चुकी थी और अब महिला थाने में पोस्टेड थी।
उस रात साक्षी ने एक खत लिखा, नाम नहीं लिखा, बस इशारे छोड़े, पंक्तियों में लिखा — “वह जो कभी तुम्हारी मैडम थी।”
साथ ही कुछ पुराने केसों की तारीखें भी दर्ज कर दीं ताकि नेहा समझ सके।
फिर वह चिट्ठी उसने सफाई कर्मचारी हरिराम दास के हाथों महिला थाने तक पहुंचा दी।
अब साक्षी राजपूत जो सबके सामने अभी भी सीमा के नाम से कैद थी, बस इंतजार कर रही थी उस एक पुराने रिश्ते की किरण का जो विश्वास की नींव पर खड़ा हो।
अगले ही दिन थाने में हलचल बढ़ी। डीएसपी अमितेश त्रिपाठी निरीक्षण के लिए पहुंचे, उनके साथ सब इंस्पेक्टर नेहा चौधरी भी थीं।
नेहा के चेहरे पर मिश्रित भाव थे — सवाल भी, तलाश भी।
हवालात के पास पहुंचकर नेहा ने सलाखों के भीतर बैठी साक्षी को देखा। नजर कुछ देर तक ठहरी रही।
फिर उसने धीमे स्वर में पूछा, “नाम क्या है तुम्हारा?”
साक्षी ने सिर झुका कर कहा, “सीमा।”
फिर धीरे से सिर उठाकर उसकी आंखों में सीधे देखा।
नेहा ठिठक गई। उसकी आंखों में पहचान की चिंगारी कौंधी।
वह धीमे स्वर में बोली, “मैडम?”
साक्षी ने बस हल्का सा सिर हिला दिया।
नेहा आगे बढ़ी, “आपने यह सब क्यों किया मैडम? इतना अपमान, इतनी पीड़ा सहकर भी चुप क्यों रहीं?”
साक्षी ने स्थिर स्वर में उत्तर दिया, “ताकि यह दर्द सिर्फ मेरे भीतर कैद ना रहे, बल्कि सबके लिए बदलाव का कारण बने। अगर मैं भी चुप रहती, तो उसी सड़े हुए सिस्टम का हिस्सा बन जाती।”
नेहा की पलकों पर नमी छलक आई।
उसी रात नेहा चौधरी ने साक्षी के संकेतों के आधार पर गुप्त जांच शुरू कर दी।
नेहा ने थाने के सभी कोनों को छाना, रिकॉर्ड खंगाले, सीसीटीवी फुटेज निकाले और कुछ महिलाओं से निजी रूप से बयान लिए।
धीरे-धीरे पर्दा उठने लगा — एक संगठित रैकेट की परतें दिखाई दीं। दरोगा राकेश वर्मा, उसके कुछ दलाल और कुछ वरिष्ठ अफसर इस घिनौने नेटवर्क के मेंबर थे।
नेहा ने योजना बनाई — छिपे कैमरे लगाए जाएंगे, बंदियों के बयान गुप्त रूप से रिकॉर्ड किए जाएंगे और हर हरकत का दस्तावेज तैयार होगा।
इसी दौरान एक काली रात में राकेश ने फिर अपनी दरिंदगी दिखाने की कोशिश की।
उसने शालिनी को जबरन बाहर लेकर जाने की कोशिश की।
साक्षी ने बिना देर किए बीच में कूदकर उसे रोकने की कोशिश की तो राकेश गरजा, “तू कौन होती है बोलने वाली?”
पर इस बार शालिनी पीछे नहीं हटी। उसने पूरी ताकत से राकेश का हाथ पकड़ लिया और आवाज ऊंची कर कहा, “यह वही बात है जिसके लिए हम अपनी जान तक दे सकते हैं।”
शालिनी की हिम्मत ने बाकी कैदियों को जगा दिया।
एक-एक कर वे सब उठ खड़ी हुईं। अब यह सिर्फ एक बेखौफ महिला की हिम्मत नहीं, बल्कि पूरे हवालात की बगावत बन चुकी थी।
नेहा ने उसी रात निर्णायक चाल चली।
सारे कैमरों की रिकॉर्डिंग सीधे वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के पास पहुंचा दी और सुबह तक मामला मीडिया की सुर्खियों में छा गया।
अगली सुबह नेहा ने साक्षी से कहा, “अब वक्त आ गया है नाम बताने का।”
नेहा ने एक पैकेट बढ़ाया। उस पैकेट में साक्षी की खोई हुई वर्दी थी।
साक्षी ने वर्दी धारण की और पूरा थाना ठंडा पड़ गया।
एक-एक आंखें खुल गईं और राकेश वर्मा पसीने-पसीने हो गया।
राकेश गिरफ्तार हुआ, पर साक्षी जानती थी कि एक आदमी गिरने भर से काम पूरा नहीं होगा।
जड़ें गहरी थीं और सफाई अभी बाकी थी।
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