नई-नवेली बहू सास का अपमान करती थी… फिर जो हुआ, सबके लिए सबक बन गया |

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कभी-कभी ज़िंदगी हमें आईना दिखा देती है – रिश्तों की एक भावुक कहानी

रांची शहर की ठंडी सुबह थी। घर के बाहर पेड़ों की पत्तियों पर हल्की ओस जमी थी और अंदर एक खामोश लेकिन अपनापन भरा माहौल था। अचानक मुख्य दरवाजा खुला और भीतर आया अमित। हाथ में एक छोटा बैग और चेहरे पर हल्की मुस्कान। “मां, अरे मां आप कहां हैं?” उसने ड्राइंग रूम में नजर दौड़ाई और सीधा अपनी मां सरला देवी के कमरे की ओर बढ़ गया।

रसोई में खड़ी उसकी पत्नी कविता दरवाजे की आड़ से सब देख रही थी। अमित ने कमरे में पहुंचते ही कहा, “लो मां, आपकी दवाई ले आया हूं। और यह घुटनों के दर्द की मरहम भी। डॉक्टर ने कहा था ना, खत्म हो गई थी तो तुरंत ला दूं।” सरला देवी ने दवाई लेते हुए अपने झुर्रियों भरे लेकिन स्नेह से भरे हाथ बेटे के सिर पर फेर दिए। “भगवान सबको तुम जैसा बेटा दे।” अमित हंस पड़ा, “अरे मां, भाग्यशाली तो मैं हूं, जो मुझे आपकी जैसी मां मिली।”

याद है जब मैं छोटा था, और बुखार में तपता था, तो आप पूरी रात मेरी गोद में बैठी रहती थीं। कभी ठंडे पानी की पट्टियां, कभी दवा, और जब मैं जिद करता, तो अपनी बाहों में झुलाकर मुझे सुलाती थीं। अमित ने हंसते हुए बचपन में झूला झुलाने की नकल की और सरला देवी की आंखों में भी हंसी तैर गई।

लेकिन तभी दरवाजे पर खड़ी कविता ने हाथ कमर पर रखकर तीर सा ताना मारा, “वाह! मां के पास बैठने का वक्त है, बचपन की यादें ताजा करने का वक्त है, लेकिन पत्नी से बात करने का वक्त नहीं। मामा बस यही रट। अगर भूल गए हो तो याद दिला दूं, आपकी एक पत्नी और चार साल का बेटा भी है जो पापा का इंतजार कर रहा है।”

अमित ठिटक गया, “कविता, यह क्या कह रही हो? अगर रौनक मुझे याद कर रहा था, तो उसे यही ले आती न।” कविता झुंझला उठी, “बैठे रहो अपनी मां के चरणों में। मैं ही बेवकूफ थी जो तुमसे शादी कर बैठी।” और वह पैर पटकती हुई चली गई।

अमित ने गहरी सांस ली। अपने कमरे में जाकर रौनक को गोद में उठाया, माथा चूमा, “चल बेटा, पापा आ गए।” कविता भी अंदर आई, तो अमित ने कहा, “इतनी सी बात पर इतना गुस्सा? आज कितने दिनों बाद बस दो मिनट मां के पास बैठा था।” कविता चुप रही, पर आंखों में नाराजगी साफ थी।

अमित ने कहा, “अच्छा मेरे लिए खाना लगा दो, भूख लगी है।” तो कविता ने तुनक कर कहा, “खाना भी अपनी मां से बनवा लो।” अमित का स्वर हल्का गंभीर हुआ, “तुम जानती हो मां की तबीयत ठीक नहीं है।” लेकिन कविता रसोई में चली गई।

अपने कमरे में बैठी सरला देवी इस बहस को सुन रही थीं और अचानक उनका मन अतीत में खींच गया। वह दिन याद आया जब अमित सिर्फ 10 साल का था और उसकी बहन प्रीति 8 साल की थी, जब अचानक उनके पिता का साया सिर से उठ गया था। घर में अंधेरा सा छा गया था, और चारों ओर सवाल – अकेली औरत दो-दो बच्चों को कैसे पालेगी?

लेकिन सरला देवी ने हार नहीं मानी। कुछ गहने गिरवी रखकर एक छोटा टिफिन सेंटर शुरू किया। सुबह 4 बजे उठना, सब्जी काटना, मसाले भूनना, डब्बों में गरमागरम खाना भरना, गली-गली पहुंचाना, दिन भर मेहनत, रात को बच्चों को पढ़ाना और यह वादा कि इनके सपने कभी अधूरे नहीं रहेंगे।

धीरे-धीरे वक्त बदला, अमित पढ़ाई में आगे बढ़ा, अच्छी नौकरी मिली। पहली तनख्वाह से मां के लिए आरामदायक कुर्सी खरीदी, “अब आप खड़ी होकर काम नहीं करेंगी।” उस दिन सरला देवी की आंखों में खुशी के आंसू थे, जैसे भगवान ने उनकी मेहनत सुन ली हो।

शादी के शुरुआती दिनों में सरला देवी ने सोचा था कि कविता घर में बेटी की तरह रच-बस जाएगी। जब बहू आई थी, तो उन्होंने खुद अपने हाथों से आरती उतारी थी, चावल के लोटे से गृह प्रवेश करवाया था और मन ही मन भगवान से प्रार्थना की थी – “हे प्रभु, यह मेरे बेटे का जीवन सुखमय बनाए और इस घर की रौनक बनकर रहे।”

शुरुआत में सब ठीक भी था। लेकिन धीरे-धीरे सरला देवी को महसूस होने लगा कि कविता को ना तो इस घर के रीति-रिवाजों में कोई दिलचस्पी है, ना उनके साथ वक्त बिताने में। अमित के मां से जुड़ाव पर उसे हमेशा अजीब सी खटास रहती। जब भी अमित मां के साथ बैठकर बातें करता, कविता का चेहरा कसेला सा हो जाता।

प्रीति यानी अमित की बहन जब भी मायके आती, मां के साथ घंटों बातें करती – बचपन की शरारतें, मोहल्ले की पुरानी कहानियां, और मां-बेटी की हंसी से घर भर जाता। लेकिन कविता चुपचाप एक तरफ मोबाइल में लगी रहती, जैसे उसे इन रिश्तों की गर्माहट से कोई लेना-देना ना हो।

एक बार की बात है। प्रीति कई महीनों बाद मायके आई थी। अमित ने जाते-जाते कविता से कहा, “आज दोपहर में राजमा चावल बना लेना, प्रीति को बहुत पसंद है।” कविता ने कोई जवाब नहीं दिया। दोपहर को मां ने जब खाने का पूछा, तो कविता ने उबाऊ चेहरे के साथ कहा, “आज खिचड़ी बनाई है, मेरा सिर दर्द हो रहा था, इतना ही बना पाई।”

सरला देवी ने हल्के स्वर में कहा, “बेटा, आज प्रीति आई है, उसे राजमा चावल बहुत पसंद है।” तो कविता ने जैसे बेमन से तीर चला दिया, “मां जी, मैं पूरा दिन घर संभालती हूं, बच्चे को देखती हूं, अब जरा सा आराम करने की सोची थी तो आपकी फरमाइशें शुरू हो गईं।”

प्रीति ने मां की तरफ देखा और जबरन मुस्कुरा दी, लेकिन उसकी आंखों में कसक साफ थी। उस दिन सरला देवी के दिल में एक पीस बैठ गई जिसे उन्होंने किसी से नहीं कहा, लेकिन अंदर ही अंदर वह चुभन बढ़ती चली गई।

समय बीतता गया और अब एक दिन ऐसा आया जब घर में खूब हलचल थी। कविता की बहन ईशा की शादी का कार्ड लेकर उसके मम्मी-पापा आने वाले थे। सुबह से ही रसोई में घी- मसालों की खुशबू, शाही पनीर, छोले, पुलाव, हलवे की तैयारी। कविता के चेहरे पर खुशी की चमक थी, उसकी आवाज में मिठास थी।

सरला देवी ने कमरे से बाहर आकर पूछा, “अरे बेटा, आज इतनी तैयारियां क्यों?” कविता मुस्कुरा कर बोली, “मां जी, आज मम्मी-पापा आ रहे हैं, ईशा की शादी का कार्ड लेकर।”
कुछ ही देर में मेहमान आ गए। कविता ने बड़े स्नेह से उनका स्वागत किया, खुद हाथ से खाना परोसा, उनकी पसंद का हर व्यंजन बनाया। सरला देवी एक तरफ बैठी चुपचाप यह सब देख रही थी।

उनके मन में अचानक वह दिन कौंध गया जब उनकी बेटी प्रीति आई थी और कविता ने उसके लिए ना तो कोई पसंद का खाना बनाया, ना ही स्नेह दिखाया। और आज अपनों के लिए कविता के चेहरे पर प्यार, अपनापन और सम्मान का सैलाब था।
सरला देवी ने कुछ नहीं कहा, बस दिल में उठते तूफान को दबाते हुए एक हल्की फीकी मुस्कान के साथ अपने कमरे में लौट गईं।

अगली सुबह घर में जैसे सन्नाटा पसरा था। अमित ऑफिस से जल्दी लौट आया था, लेकिन घर में ना तो कविता दिखी, ना रौनक की खिलखिलाहट। वो सीधा मां के कमरे में गया, “मां, तबीयत ठीक है ना? आप तो इस वक्त तक उठ जाती हैं।”
सरला देवी ने धीरे से कहा, “कुछ नहीं बेटा, सुबह से थोड़ी कमजोरी लग रही है, शायद शुगर बढ़ गई है।” अमित के चेहरे पर चिंता उतर आई, “आपने किसी को बताया क्यों नहीं? कविता कहां है?”
“उसकी सहेलियां आई थीं, शॉपिंग जा रही थी, तो मैंने कुछ कहा नहीं। क्यों उसकी खुशी में बाधा बनूं?”
अमित बिना कुछ बोले रसोई से पानी लाया, दवा दी, फिर बोला, “कल सुबह आपको डॉक्टर के पास ले जाऊंगा।”

अगले दिन डॉक्टर ने जांच की, कुछ टेस्ट और दवाइयां दीं। घर लौटकर अमित ने आवाज लगाई, “कविता, मां के लिए खाना ले आओ, दवा भी खानी है।”
कमरे से कोई जवाब नहीं आया। अमित बेडरूम में गया तो देखा कविता आईने के सामने, नए सूट के साथ दुपट्टा मैच कर रही थी।
“कविता, मैंने कहा था ना मां के लिए खाना लाओ।” अमित ने हल्के तेज स्वर में कहा।
“हां, आती हूं। पहले यह बताओ छुट्टी लिया या नहीं? अगले हफ्ते हमें मेरी बहन की शादी में जाना है।”
अमित ने सांस भरते हुए कहा, “मुझे लगता है हम एक-दो दिन बाद चलें, खामखा मां को परेशानी होगी।”
कविता ने हैरानी से देखा, “मतलब तुम मेरी बहन की शादी पर नहीं चलोगे?”
अमित ने शांत स्वर में कहा, “चलूंगा, लेकिन तुम पहले जाओ, मैं शादी वाले दिन आऊंगा, ताकि मां अकेली ना रहे।”
कविता भड़क गई, “थोड़ी सी तबीयत खराब है तो उसके लिए इतनी बड़ी शादी मिस कर दोगे?”

सरला देवी ने कमरे से आवाज दी, “बेटा बहू के साथ चले जाओ, मैं ठीक हूं। बुढ़ापे में तो यह सब चलता रहता है।”
लेकिन अमित अड़ा रहा, “नहीं मां, आप भी चलेंगी या मैं शादी वाले दिन ही आऊंगा।”
कविता का चेहरा बुझ गया, पर उसने चुपचाप पैकिंग शुरू कर दी।

दो दिन बाद वह सुबह आ गई जब तीनों – अमित, सरला देवी, कविता और छोटा रौनक – गाड़ी में बैठकर निकले। शुरुआत में सफर ठीक रहा, लेकिन आधे घंटे बाद सरला देवी बोली, “बेटा, गाड़ी रोको, मुझे वाशरूम जाना है।”
अमित ने बिना कुछ कहे एक ढाबे पर गाड़ी रोकी। कविता ने घड़ी देखी, चेहरे पर खीझ छिपाने की कोशिश की। लेकिन यह एक बार नहीं हुआ, रास्ते में बार-बार गाड़ी रुकती रही।
सरला देवी ने धीरे से कहा, “क्या करूं बहू, डायबिटीज है, बार-बार जाना पड़ता है।”
कविता ने गहरी सांस ली और खिड़की के बाहर देखने लगी। रास्ते में ट्रैफिक जाम मिला, कविता का सब्र टूट गया, “देखा अगर इतनी बार गाड़ी ना रुकती तो हम इस जाम में नहीं फंसते, अब माता की चौकी मिस हो जाएगी।”
अमित ने शांत स्वर में कहा, “कविता, मां जानबूझकर थोड़ी कर रही है।”
लेकिन कविता ने मुंह फेर लिया।

शाम तक वे शादी वाले घर पहुंचे, लेकिन माता की चौकी का आधा कार्यक्रम खत्म हो चुका था। घर के अंदर सबने उनका स्वागत किया, लेकिन कविता का चेहरा नाराजगी से भरा था।
कुछ देर बाद कविता अपने मायके वालों के बीच हसी-मजाक में कहने लगी, “क्या बताऊं मम्मी, रास्ते भर वाशरूम की वजह से गाड़ी रुकवानी पड़ी, वरना हम समय पर पहुंच जाते।”
सरला देवी ने हल्की मुस्कान से कहा, “बेटा यह बीमारी है, वरना मैं भी चाहती थी कि जल्दी पहुंचे।”
लेकिन दिल में उनके शब्द तीर की तरह चुभ गए।

अगली सुबह शादी वाले घर में हलचल थी। कोई किचन में नाश्ते की तैयारी कर रहा था, तो कोई मंडप की सजावट में लगा था। कविता अपनी सहेलियों और कजिंस के साथ हंसते घूम रही थी, जबकि सरला देवी बरामदे की एक कोने वाली कुर्सी पर चुपचाप बैठी सब देख रही थी।
उनके चेहरे पर सफर की थकान थी, लेकिन मन में यही था – किसी की खुशी में बाधा ना बनूं, चाहे खुद दर्द सहना पड़े।

तभी कविता की एक कजिन आई और हंसते हुए बोली, “आंटी जी, आप ठीक हैं ना? सफर भारी तो नहीं पड़ा?”
सरला देवी मुस्कुरा दी, “बस बेटा, बीमारी तो चलती रहती है, बाकी भगवान की कृपा है।”
लेकिन इससे पहले कि उनकी बात खत्म होती, कविता ने हसीन- मजाक के लहजे में तीर चला दिया, “अरे सफर भारी क्या? रास्ते भर तो हम वाशरूम ही ढूंढते रहे, आधे घंटे में गाड़ी रुकवाना, फिर जाम में फंसना, सच कहूं तो सफर कर ही नहीं सकती थी, घर पर ही रह जाती तो अच्छा था।”

आसपास खड़े लोग हल्के से हंस पड़े, पर वह हंसी सरला देवी के दिल में सैकड़ों चोट छोड़ गई। उन्होंने चेहरा सीधा रखा, लेकिन आंखों में नमी तैरने लगी।

दिन बीतते गए और कविता को अब भी यही लगता था कि उसकी मस्ती में मां के आने से खलल पड़ गया है। जब भी मौका मिलता, वो ताने कस देती। कभी उनकी साधारण साड़ी का मजाक, तो कभी उनके घुटनों के दर्द को बहाना बताना।

इसी बीच शादी की रस्म पूरी हो गई, दुल्हन की विदाई हुई, घर में सब थककर आराम करने लगे। अगले दिन वापस लौटने की तैयारी हो रही थी। तभी सुबह-सुबह एक तेज चीख सुनाई दी।
सब लोग आवाज की तरफ भागे – यह कविता की मां सुमन जी थीं। वो गिर गई थीं और दर्द से कराह रही थीं। जल्दी से उन्हें अस्पताल ले जाया गया। डॉक्टर ने कहा, गिरने से मांसपेशियों में खिंचाव आ गया है, आराम करना होगा।

कविता का मन मां की हालत देखकर भर आया, “मैं इन्हें इस हालत में छोड़कर कैसे जाऊं?”
अमित ने कहा, “तुम रह जाओ, मैं मां को लेकर घर लौटता हूं, ऑफिस भी ज्वाइन करना है। जब यहां सब ठीक हो जाए, तब तुम आ जाना।”
अमित सरला देवी को लेकर लौट गया। कविता अपनी मां की सेवा में लग गई।

शुरुआत में सब ठीक था, लेकिन तीसरे दिन जब सुमन जी ने बहू को आवाज दी, “बहू, जरा सहारा दे दो, वाशरूम जाना है।”
तो उनकी बहू ने अन्य भाव से उठते हुए कहा, “इंसान है या पानी की टंकी? इतना पानी पीती है कि बार-बार जाना पड़े। इस बार तो दे रही हूं, अगली बार खुद संभाल लेना।”
यह सुनकर कविता सन्न रह गई। उसने सोचा, यह मेरी मां के लिए ऐसे बोल सकती है?

लेकिन उसकी हैरानी यही खत्म नहीं हुई। रात को सुमन जी ने कहा, “बहू, आज रात के खाने में पनीर बना लेना, कविता को बहुत पसंद है।”
पर उनकी बहू ने सीधा जवाब दिया, “दलिया बना दिया है, जब खाना हो बता देना। इतने दिनों से शादी में पनीर खाकर थक नहीं गई?”

कविता के हाथ से पानी का गिलास लगभग छूट ही गया। उसके मन में वही दृश्य घूमने लगा, जब उसकी ननद आई थी और उसने खिचड़ी बनाकर रख दी थी, साथ ही बातें भी सुना दी थीं। आज जब अपनी मां को वही बातें सुनते देखा तो दिल में दर्द हुआ – यह तो वही है जो मैंने मां जी के साथ किया था, ताने, बेरुखी और सबके सामने मजाक।

उसके सीने में अपराधबोध की भारी चट्टान रखी महसूस हुई। शाम ढल रही थी। कविता अपनी मां के कमरे के बाहर खड़ी थी – चेहरे पर बेचैनी और मन में उथल-पुथल।
दिन भर की घटनाएं उसके दिल में एक-एक चोट की तरह दर्द कर रही थीं – मां को सहारा देने से मना करना, पसंद का खाना ठुकराना और बिना सोचे समझे चुभते शब्द कहना।
उसे लग रहा था जैसे आईना सामने खड़ा है और उसमें वही हरकतें दिख रही हैं, जो उसने खुद अपनी सास के साथ की थीं।

उसने ठान लिया – भाभी से बात करूंगी, यह सब बर्दाश्त नहीं करूंगी। लेकिन जैसे ही उसके भाई घर लौटे, उसने जल्दी-जल्दी कहा, “भैया, पता है भाभी ने क्या किया? मां को वाशरूम तक ले जाने से मना कर दिया, कहती है मां बहाना करती है और खाना भी उनकी इच्छा का नहीं बनाया।”

कविता को लगा भाई गुस्से से फट पड़ेंगे, लेकिन वो ठंडे स्वर में बोले, “तो क्या गलत कहा? भाभी पूरा घर संभालती है, बच्चों को देखती है, मां की देखभाल भी करती है। क्या यह आसान है?”

कविता हैरान थी, “भैया, यह आप कह रहे हो? जिन्होंने आपको जन्म दिया, पालापोसा, उनकी देखभाल करना तो फर्ज है। अगर आप नहीं समझेंगे तो कौन समझेगा?”

तभी एक तेज आवाज कमरे में गूंजी – बस! कविता ने मुड़कर देखा, दरवाजे पर उसकी मां सुमन जी खड़ी थीं, चेहरे पर सख्ती, आवाज में ठहराव।
“कविता, तेरा भाई सही कह रहा है। यह सब मैंने ही कराया था – एक नाटक तुझे तेरा असली चेहरा दिखाने के लिए।”

कविता सन्न रह गई, “मां, यह क्या कह रही हैं आप?”
सुमन जी आगे बढ़ीं, “जब तू अपने भाई को यह समझा सकती है कि मां का ख्याल रखना उसका फर्ज है, तो यह क्यों भूल गई कि तेरे पति भी अपनी मां के बेटे हैं। जब तेरी सास ने तेरे तानों, तेरी बेरुखी, तेरे मजाक सहकर भी कभी हमारे सामने शिकायत नहीं की, तो तूने उन्हें क्यों नहीं अपनाया?”

कविता की आंखों से आंसू बहने लगे। सुमन जी ने कहा, “बेटा, रिश्तों की इज्जत करना सीख। तेरा सम्मान तेरे ससुराल वालों से जुड़ा है। उनकी बेइज्जती मतलब तेरी बेइज्जती।”

कविता अब घुटनों के बल बैठ चुकी थी, “मां, मैंने बहुत गलत किया। मुझे माफ कर दीजिए।”
सुमन जी ने उसके सिर पर हाथ रखा, “सच्चा पश्चाताप आंसुओं से नहीं, अपने कर्मों से होता है।”

नई शुरुआत

अगले दिन कविता अपने भाई के साथ घर लौटी। दरवाजा खोलते ही उसकी नजर सरला देवी पर पड़ी – वह हमेशा की तरह शांत मुस्कान के साथ बैठी थीं। कविता उनके पैरों पर गिर पड़ी, “मां, मुझे माफ कर दीजिए, मैंने आपके साथ बहुत अन्याय किया है।”
सरला देवी हड़बड़ा गईं, “अरे बहू, उठो।”
लेकिन कविता ने सिर झुकाए ही कहा, “आज से मैं सिर्फ बहू नहीं, आपकी बेटी बनकर रहूंगी।”

उस रात जब अमित रोज की तरह मां के घुटनों की मालिश करने लगा, कविता ने उसके हाथ से तेल की शीशी ले ली, “अमित, अब यह काम मैं करूंगी, क्योंकि वह सिर्फ तुम्हारी मां नहीं, मेरी भी मां हैं।”
सरला देवी की आंखें भर आईं, लेकिन इस बार ये आंसू दर्द के नहीं, खुशी के थे।

सीख और सवाल

दोस्तों, आप बताइए – अगर सुमन जी की जगह आप होते तो क्या अपनी बेटी को इसी तरह सबक सिखाते?
क्या आपको लगता है कि रिश्तों में असली जीत प्यार और सम्मान से ही मिलती है?

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मिलते हैं अगली कहानी में, फिर एक नए रिश्ते, एक नए सबक और एक नई शुरुआत के साथ।

राधे-राधे।