टैक्सी वाले ने एक गर्भवती विदेशी महिला को समय पर अस्पताल पहुंचाकर उसकी जान बचाई और पैसे नहीं लिए

एक गरीब ऑटो रिक्शा वाले की इंसानियत – पूरी कहानी

हैदराबाद का शहर, निजामों की विरासत, मोतियों की चमक और संघर्षों की अनगिनत कहानियां। इसी भीड़ भरे शहर की गलियों में एक पुराना काला-पीला ऑटो रिक्शा दौड़ता था, जिसका मालिक था – आजाद। उम्र लगभग चालीस, चेहरा मेहनत की लकीरों से भरा, आंखों में बेहतर भविष्य का सपना। आजाद तेलंगाना के एक छोटे गांव से बड़े सपनों के साथ हैदराबाद आया था, लेकिन ये शहर किसी पर जल्दी मेहरबान नहीं होता। उसकी दुनिया सिमटी थी चारमीनार के पास, चिलकलगुड़ा की तंग बस्ती के एक छोटे-से कमरे में। साथ थी पत्नी सलमा, बीमार मां और सात साल की बेटी जीनत – जो उसकी जिंदगी का केंद्र थी।

आजाद सुबह से देर रात तक किराए के ऑटो में सवारियां ढोता। कमाई का बड़ा हिस्सा ऑटो के मालिक और पेट्रोल में चला जाता। जो बचता, उससे घर का खर्च, मां की दवाइयां और बेटी की स्कूल फीस भरता। उसका सबसे बड़ा सपना था – अपना खुद का ऑटो। हर रोज नमाज में अल्लाह से यही दुआ करता था।

एक शाम की शुरुआत

अगस्त की एक उमस भरी शाम थी। सुबह से ही बादल छाए हुए थे, मौसम विभाग ने भारी बारिश की चेतावनी दी थी। आजाद का दिन खराब गुजरा था – मुश्किल से 300 रुपये जेब में थे। थका-हारा, घर लौटने की सोच रहा था, जहां उसकी बेटी जीनत उसकी राह देख रही होगी।

दूसरी तरफ…

इसी शहर के बंजारा हिल्स के एक फाइव स्टार होटल में ठहरे थे डेविड और सारा – अमेरिका के शिकागो से आया युवा जोड़ा। डेविड आर्किटेक्ट, सारा लेखिका। पहली बार भारत आए थे, भारतीय संस्कृति से बेहद प्रभावित। सारा आठ महीने की गर्भवती थी, वे इस यात्रा को बेबी मून की तरह मना रहे थे। शाम को उन्होंने पुराने हैदराबाद की गलियों में घूमने, बिरयानी खाने का प्लान बनाया। लोकल एक्सपीरियंस के लिए होटल की कैब छोड़, ऑनलाइन टैक्सी बुक की – लेकिन आखिरी वक्त में ड्राइवर ने आने से मना कर दिया।

तूफानी रात, दर्द की चीख

रात करीब 10 बजे, चारमीनार के पास बिरयानी खाने के बाद वे बाहर निकले ही थे कि आसमान फटा – मूसलाधार बारिश शुरू हो गई। दोनों एक दुकान के टीनशेड के नीचे खड़े हो गए। अचानक सारा के पेट में तेज दर्द उठा, वह तड़पने लगी। डेविड घबरा गया, “सारा, आर यू ओके?” सारा बोली, “डेविड, द पेन… आई थिंक बेबी इज कमिंग।” डेविड के पैरों तले जमीन खिसक गई। समय से पहले प्रसव, अजनबी शहर, तूफानी रात – दिमाग सुन्न पड़ गया। उसने सड़क पर गुजरती गाड़ियों को मदद के लिए हाथ दिया, लेकिन महंगी गाड़ियां गंदे पानी के छींटे उड़ाती हुई निकल गईं। कोई नहीं रुका।

आजाद की इंसानियत

ठीक उसी वक्त आजाद अपने ऑटो में घर लौट रहा था। उसने हेडलाइट की रोशनी में विदेशी जोड़े को देखा – महिला दर्द से दोहरी हो रही थी। एक पल के लिए डर लगा – रात का वक्त, विदेशी मामला, पुलिस का चक्कर। लेकिन फिर उसे अपनी पत्नी सलमा की याद आई, जब वह जीनत को जन्म देने वाली थी। उस महिला की आंखों में वही पीड़ा, वही डर दिखा। आजाद की इंसानियत उसके डर पर भारी पड़ गई। उसने ऑटो रोक दिया, टूटी-फूटी अंग्रेजी और इशारों में पूछा, “साहब, मेमसाहब, कोई प्रॉब्लम?”

डेविड लगभग चिल्लाते हुए बोला, “हॉस्पिटल, प्लीज! माय वाइफ, बेबी…” आजाद ने बिना कोई सवाल, बिना मीटर की बात किए, सारा को सावधानी से ऑटो में बिठाया। बोला, “साहब, डोंट वरी, आई विल टेक यू टू द बेस्ट हॉस्पिटल।” और फिर वो पुराना ऑटो एंबुलेंस बन गया – पानी से भरी सड़कों को चीरता हुआ, तेज रफ्तार में अस्पताल की ओर बढ़ चला। आजाद ने शहर की गलियों की जानकारी और अनुभव से ट्रैफिक को चकमा दिया। 20 मिनट की तनाव भरी यात्रा के बाद वे अस्पताल पहुंचे।

अस्पताल में उम्मीद की लौ

आजाद उन्हें छोड़कर नहीं गया। स्ट्रेचर लाने में मदद की, रिसेप्शन पर डॉक्टर को स्थिति समझाने में डेविड की मदद की। जब एडमिशन के लिए मोटी रकम मांगी गई, तो आजाद ने देखा कि काउंटर वाला डेविड को डॉलर का गलत रेट बता रहा है। उसने बीच में टोककर सही रेट पर पैसे दिलवाए। सारा को लेबर रूम ले जाया गया। डेविड अकेला, डर से सफेद पड़ा कॉरिडोर में खड़ा था। आजाद ने उसके कंधे पर हाथ रखा, “साहब, डोंट वरी, अल्लाह इज ग्रेट। एवरीथिंग विल बी फाइन।”

आजाद उस रात घर नहीं गया। पत्नी को फोन कर बताया – जरूरी काम है, सुबह तक लौटूंगा। पूरी रात डेविड के साथ अस्पताल के कॉरिडोर में बैठा रहा। पास की टपरी से चाय-बिस्किट लाया। दवाइयों की पर्ची आई तो मेडिकल स्टोर से सही दाम पर दवाइयां लाया। कई बार डेविड ने पैसे देने की कोशिश की, लेकिन आजाद ने विनम्रता से मना कर दिया, “साहब, ये इंसानियत का काम है। आप हमारे मेहमान हैं, आपकी मदद मेरा फर्ज है।”

सुबह की खुशखबरी

सुबह 4 बजे लेबर रूम का दरवाजा खुला। नर्स मुस्कुराकर बाहर आई, “मिस्टर डेविड, बधाई हो! आपके यहां स्वस्थ बेटे का जन्म हुआ है, पत्नी भी ठीक हैं।” डेविड की आंखों से आंसू बह निकले, वह घुटनों के बल बैठ गया। आजाद ने उसे गले लगा लिया। दोनों की आंखों में खुशी के आंसू थे।

अगले तीन दिन तक आजाद परिवार के लिए गाइड, दोस्त, रक्षक बना रहा। अस्पताल आता, बच्चे-मां के लिए सही सामान दिलवाता, घर का बना खाना देने की पेशकश करता। सब कुछ बिना किसी लालच, बिना किसी उम्मीद के – सिर्फ इंसानियत के लिए।

नेकी का इनाम

सारा को अस्पताल से छुट्टी मिली तो डेविड-सारा ने आजाद को बुलाया। सारा की गोद में नीले कंबल में लिपटा उनका बेटा था। डेविड ने एक बार फिर मोटी रकम देने की कोशिश की, लेकिन आजाद ने हाथ जोड़कर मना कर दिया। सारा की आंखों में कृतज्ञता के आंसू थे, “आजाद, हम तुम्हारा एहसान कैसे चुकाएंगे? तुमने हमारी ही नहीं, हमारे बेटे की भी जान बचाई है।”

डेविड ने अपनी जेब से बची हुई सारी विदेशी मुद्रा – अमेरिकन डॉलर – आजाद के हाथ में रखते हुए कहा, “यह पेमेंट नहीं, मेहनत की कमाई नहीं, एक पिता की तरफ से दूसरे पिता को तोहफा है। मेरे बेटे की तरफ से तुम्हारी बेटी के लिए छोटा सा गिफ्ट है। प्लीज मना मत करना, वरना हमारे दिल को ठेस पहुंचेगी।” बेटी के नाम पर तोहफा सुनकर आजाद ने कांपते हाथों से पैसे ले लिए।

डेविड और सारा अपनी कैब में बैठकर चले गए। लेकिन पीछे छोड़ गए एक दोस्ती, एक इंसानियत की मिसाल।

किस्मत का तोहफा

अगले दिन आजाद डॉलर लेकर मनी एक्सचेंजर की दुकान गया। उसे लगा, शायद 10-15 हजार रुपये होंगे। लेकिन जब काउंटरवाले ने गिनकर कहा – “यह ₹1,65,000 हैं,” आजाद के होश उड़ गए। उसने कभी एक साथ इतने पैसे नहीं देखे थे। दुकान के बाहर जमीन पर बैठकर आसमान की ओर देखकर अल्लाह का शुक्रिया अदा करने लगा।

उसने पैसों का सही इस्तेमाल किया – सबसे पहले ऑटो मालिक का पुराना हिसाब चुकता किया। फिर ऑटोमोबाइल शोरूम जाकर अपना खुद का नया ऑटो खरीदा। बेटी जीनत के ऑपरेशन के लिए 3 लाख रुपये बैंक में जमा किए। मां के लिए दवाइयां खरीदीं, पत्नी को पहली बार सोने की बालियां तोहफे में दीं। उसकी किस्मत एक रात में बदल गई – सिर्फ एक छोटी सी नेकी की वजह से।

सीख

यह कहानी बताती है – नेकी का कोई काम, चाहे छोटा हो, बेकार नहीं जाता। जब आप बिना किसी उम्मीद के किसी की मदद करते हैं, पूरी कायनात आपको उसका फल देती है – और वो फल आपकी सोच से कहीं ज्यादा बड़ा और मीठा होता है।

यह कहानी अतिथि देवो भव का असली मतलब भी सिखाती है – जो हमारे देश की आत्मा में आज भी जिंदा है।

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रिश्तों, इंसानियत और नेकी को जिंदा रखिए।

जय हिंद।