ढाबे वाली विधवा महिला से मिला एक ट्रक वाला। फिर उसने जो किया, विधवा की पलट गई किस्मत

नेशनल हाईवे 44 की कहानी: जानकी और शेर सिंह

नेशनल हाईवे 44, जो किसी विशाल अजगर की तरह देश के एक छोर से दूसरे छोर तक पसरा हुआ है। यह सिर्फ एक सड़क नहीं, बल्कि अपने सीने पर अनगिनत कहानियों की धूल समेटे हुए है। इस पर चलने वालों की ज़िंदगी पहियों पर घूमती है, मंजिलें हमेशा अगली सुबह के इंतजार में रहती हैं। इसी हाईवे पर, जहां हरियाणा की सीमा शुरू होती थी, एक बूढ़े नीम के पेड़ की घनी छांव के नीचे एक छोटा सा ढाबा था। इसकी कोई चमकदमक वाली पहचान नहीं थी—बस एक पुराने लकड़ी के तख्ते पर लिखा था “अपना ढाबा”।

इस ढाबे की जान थी जानकी। लगभग 32 साल की एक विधवा, जिसके चेहरे पर समय की लिखी खामोशी और आंखों में ऐसी गरिमा थी जिसे कोई तूफान झुका नहीं पाया था। चार साल पहले, जिंदगी ने जानकी से उसका सब कुछ छीन लिया था। उसका पति रमेश, एक हसमुख और मेहनती इंसान, जिसने अपनी सारी जमा पूंजी लगाकर इस ढाबे को खड़ा किया था, एक रात नशे में धुत एक कार वाले की लापरवाही का शिकार हो गया। रमेश के साथ-साथ जानकी के सारे सपने भी उसी सड़क पर बिखर गए।

पति की मृत्यु के बाद उसके ससुराल वालों, खासकर उसके ताऊजी ने जमीन पर कब्जा करने की बहुत कोशिश की। वे चाहते थे कि जानकी बेटे गोलू को लेकर मायके चली जाए और इस झंझट से मुक्त हो जाए। लेकिन जानकी ने हार नहीं मानी। यह ढाबा सिर्फ एक कारोबार नहीं, बल्कि रमेश का सपना था—उसकी आखिरी निशानी। उसने समाज के तानों और रिश्तेदारों के दबाव को अपने आंचल में बांधकर चूल्हे की आग में अपने इरादों को और मजबूत किया। अब उसकी दाल मखनी में सिर्फ मसाले नहीं, बल्कि एक औरत के जबरदस्त संघर्ष का स्वाद भी था।

कहानी का दूसरा सिरा उस हाईवे पर दौड़ते एक ट्रक से जुड़ा था।

उस ट्रक का सारथी था शेर सिंह। 40 की उम्र पार कर चुका, पंजाब का एक कद्दावर और रबदार सरदार। उसका जीवन उसके ट्रक केबिन में सिमटा हुआ था। अनाथालय में पले-बड़े शेर सिंह ने होश संभालते ही सड़कों को अपना लिया था। उसने हजारों शहर देखे, लाखों लोगों से मिला, पर अपना कहने के लिए उसके पास कोई नहीं था। उसका ट्रक ही उसका दोस्त, उसका घर, सब कुछ था। वह अक्सर रात में रुककर दूसरे ढाबों पर परिवारों को हंसते-खेलते देखता और एक ठंडी आह भरकर अपनी चाय खत्म करने लगता। घर नाम का शब्द उसके लिए एक अधूरा सपना था।

एक तपती हुई जुलाई की दोपहर, जब आसमान से आग बरस रही थी, शेर सिंह का ट्रक धोखा दे गया। दूर-दूर तक कोई मैकेनिक नहीं था। पसीने से तर-बतर, उसने दूर नीम के पेड़ के नीचे वह छोटा सा ढाबा देखा। सोचा, चलो कुछ देर सुस्ता लिया जाए। जैसे ही वह ढाबे पर पहुंचा, उसकी नजर चूल्हे के पास बैठी जानकी पर पड़ी। सिर पर सूती साड़ी का पल्लू रखे, वह पूरी लगन से रोटियां सेक रही थी। उसके चेहरे पर एक अजीब सी शांति थी, जैसे उसने अपनी तकदीर से समझौता कर लिया हो।

गोलू, जो मिट्टी में लकीरें खींच रहा था, दौड़कर आया और शेर सिंह की लंबी दाढ़ी को कौतूहल से देखने लगा। शेर सिंह ने अपनी जिंदगी की सारी कड़वाहट के बावजूद एक मुस्कान के साथ अपनी जेब से गुड़ की एक भेली निकालकर उसे दी। गोलू शर्माते हुए उसे लेकर अपनी मां के पास भाग गया, “मां देखो! ट्रक वाले अंकल ने दिया।” जानकी ने नजर उठाकर शेर सिंह को देखा। उसकी आंखों में एक पल के लिए कृतज्ञता और फिर वही चिर-परिचित सतर्कता तैर गई।

जानकी ने थाली में खाना परोसा—गाढ़ी दाल, भिंडी की सब्जी, साथ में लस्सी का बड़ा गिलास और सिरके वाला प्याज। पहला निवाला मुंह में रखते ही शेर सिंह को लगा जैसे उसके बंजर जीवन में किसी ने अमृत की बूंदें डाल दी हों। यह सिर्फ खाना नहीं था, यह एक एहसास था—किसी के हाथों की मेहनत और अपनेपन का। उसने अपनी मां को कभी नहीं देखा था, पर लगा शायद मां के हाथ का खाना ऐसा ही होता होगा।

उस दिन के बाद शेर सिंह का यह नियम बन गया—वह चाहे कहीं भी जा रहा हो, उसका ट्रक “अपना ढाबा” पर जरूर रुकता। वह अब सिर्फ खाने के लिए नहीं, बल्कि उस सुकून के लिए आता था जो उसे जानकी और गोलू के पास बैठकर मिलता था। वह जानकी को चुपचाप काम करते देखता—सब्जियां काटना, मसाले पीसना, ग्राहकों को संभालना। वह उसकी हिम्मत का कायल हो गया था। धीरे-धीरे दोनों के बीच एक अनकहा मौन रिश्ता पनपने लगा।

एक बार शेर सिंह ने देखा कि गोलू की चप्पल टूटी हुई है और वह नंगे पांव गर्म जमीन पर चल रहा है। अगली बार जब वह शहर से लौटा तो गोलू के लिए मजबूत जूतों की जोड़ी लेकर आया। जानकी ने पैसे देने की कोशिश की, पर शेर सिंह ने हाथ जोड़कर कहा, “बीबी जी, बच्चे भगवान का रूप होते हैं। इसे मेरा आशीर्वाद समझकर रख लीजिए।” जानकी की आंखें भर आईं। रमेश के बाद किसी ने गोलू के लिए इतनी परवाह नहीं दिखाई थी।

एक शाम जब जोरदार बारिश हो रही थी, जानकी के वही ताऊजी फिर ढाबे पर आ धमके।

वे कुछ कागज लहराते हुए बोले, “जानकी, अब बहुत हुआ। यह जमीन रमेश के नाम थी, अब इस पर हमारा हक है। कल सुबह तक ढाबा खाली कर देना।” जानकी का दिल बैठ गया। वह अकेली औरत इन गिद्धों से कैसे लड़ती? तभी शेर सिंह, जो अपनी चाय पी रहा था, अपनी जगह से उठा। उसका विशाल शरीर दरवाजे पर चट्टान की तरह खड़ा हो गया।

उसने शांत लेकिन दृढ़ आवाज में कहा, “ताऊजी, कागज जरा मुझे भी दिखाइए।”
ताऊजी ने उसे घूर कर देखा, “तू कौन होता है बीच में बोलने वाला?”
शेर सिंह मुस्कुराया, “मैं इस बीबी जी का ग्राहक हूं और एक इंसान भी। लाइए, कागज दिखाइए।”
उसने कागजों पर एक नजर डाली और कहा, “यह तो कोर्ट के कागज हैं ही नहीं। और वैसे भी विधवा की संपत्ति पर कानून क्या कहता है, यह मैं आपको शहर ले जाकर अपने वकील से अच्छी तरह समझा दूंगा। आप सुबह आइए, हम साथ में ही चलेंगे।”

वकील का नाम सुनते ही ताऊजी के चेहरे का रंग उड़ गया। उन्हें पता था कि वे धोखा दे रहे हैं। वे कुछ बड़बड़ाते हुए वहां से निकल गए। उस रात जानकी पहली बार कई महीनों में बिना किसी डर के सोई। उसे लगा कि हाईवे पर दौड़ने वाला यह ट्रक वाला सिर्फ एक मुसाफिर नहीं, बल्कि ईश्वर का भेजा हुआ कोई रक्षक है।

इसके बाद शेर सिंह को एक महीने के लंबे दौरे पर जाना पड़ा। जाते समय उसकी हिम्मत नहीं हुई कि वह कुछ कह सके। बस गोलू के सिर पर हाथ फेरा और जानकी से कहा, “अपना ध्यान रखना।”

वह एक महीना दोनों पर भारी गुजरा। जानकी को ढाबे का हर कोना सूना लगता। वह अनजाने में ही दाल में नमक थोड़ा तेज कर देती क्योंकि शेर सिंह को वैसा ही पसंद था। उधर हजारों किलोमीटर दूर शेर सिंह को हर ढाबे का खाना बेस्वाद लगता। उसे एहसास हुआ कि उसकी मंजिल किसी शहर या बंदरगाह पर नहीं, “अपना ढाबा” के उस नीम के पेड़ के नीचे है।

जब वह एक महीने बाद लौटा तो उसके इरादे साफ थे।

रात में जब ढाबा खाली हो गया और गोलू सो गया, तो वह जानकी के पास चारपाई पर बैठ गया। “जानकी जी,” उसने धीरे से पुकारा। पहली बार उसने उसे बीबी जी की जगह उसके नाम से बुलाया था। जानकी ने चौंक कर उसे देखा।

“मैंने अपनी जिंदगी की रोटी हमेशा सड़कों पर खाई है,” शेर सिंह ने कहना जारी रखा। “लेकिन सुकून का निवाला आपके हाथ की रोटी में मिला। मेरा कोई घर नहीं, कोई परिवार नहीं। मेरा यह ट्रक ही मेरी दुनिया है। पर अब लगता है यह दुनिया बहुत छोटी है, बहुत अकेली है। मैं गोलू के सिर पर पिता का हाथ रखना चाहता हूं। और आपकी जिंदगी में एक साथी बनकर आपका बोझ हल्का करना चाहता हूं। अगर आप इजाजत दें तो मैं यह ट्रक हमेशा के लिए यहीं खड़ा कर दूं। क्या आप मुझसे शादी करके मुझे एक घर, एक परिवार देंगी?”

जानकी की आंखों से आंसुओं की धारा बह निकली। उसने अपने आंचल से आंसू पोंछे, एक नजर सोए हुए गोलू पर डाली और फिर शेर सिंह की आंखों में झांका—जहां उसे सिर्फ और सिर्फ सच्चाई और सम्मान दिखाई दिया। कांपती हुई आवाज में कहा, “आपके आने से गोलू को पिता मिला और मुझे लगा कि मेरी दुनिया फिर से बच सकती है। हमें आपका साथ स्वीकार है।”

अगले ही हफ्ते उस ढाबे पर एक अनोखी बारात आई।

शेर सिंह के कई ट्रक वाले दोस्त अपने-अपने ट्रकों को सजाकर बाराती बनकर आए। बूढ़े नीम के पेड़ को गेंदे के फूलों और रंगीन लाइटों से दुल्हन की तरह सजाया गया। गांव वालों ने मिलकर एक छोटे से भोज का आयोजन किया। लाल जोड़े में जानकी का चेहरा एक नई आभा से दमक रहा था और गोलू अपने नए पापा के कंधे पर बैठकर ऐसा इतरा रहा था जैसे उसे दुनिया की सबसे कीमती चीज मिल गई हो।

कुछ दिनों बाद ढाबे का पुराना बोर्ड बदल गया। अब उस पर गर्व से लिखा था—”शेर और जानकी का अपना ढाबा”। शेर सिंह का ट्रक अब हाईवे पर धूल नहीं उड़ाता था, वह नीम के पेड़ के नीचे खड़ा रहता, जिस पर गोलू अक्सर चढ़कर खेला करता। शेर सिंह अब कैश काउंटर संभालता, ग्राहकों से हंसकर बतियाता और जानकी की रसोई से उठती खाने की महक अब पूरे ढाबे में नहीं, बल्कि उनकी छोटी सी दुनिया में प्यार और अपनेपन की खुशबू घोल रही थी।

हाईवे आज भी वहीं था। ट्रक आज भी दौड़ रहे थे। लेकिन एक ट्रक वाले ने अपनी असली मंजिल पा ली थी और एक विधवा ने अपनी खोई हुई दुनिया फिर से बसा ली थी।

यह कहानी थी जानकी और शेर सिंह की।

यह कहानी सिर्फ दो इंसानों के मिलने की नहीं, बल्कि दो अधूरेपन के मुकम्मल होने की है। यह कहानी सड़कों की धूल में लिपटे उस अकेलेपन की है जिसे चूल्हे के धुएं में छिपे अपनेपन की तलाश थी। यह उस विश्वास की कहानी है जो टूटे हुए दिलों को फिर से धड़कने का हौसला देता है।

अब सवाल यह है—क्या आपको लगता है कि सच्चा घर सिर्फ ईंट और पत्थर की चार दीवारों से बनता है या उस एक इंसान से बनता है जिसके पास आकर दिन भर की थकान पल भर में मिट जाए? क्या जानकी का अपने दिवंगत पति की यादों को सम्मान देते हुए शेर सिंह के साथ एक नया जीवन शुरू करने का फैसला सही था? और सबसे बड़ा सवाल—क्या आपको भी यह यकीन है कि नियति किसी ना किसी बहाने सही लोगों को सही वक्त पर मिला ही देती है?

आपके विचार क्या कहते हैं? हमें कमेंट्स में जरूर बताइएगा। इस कहानी का कौन सा हिस्सा आपके दिल को सबसे ज्यादा छू गया?

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जय हिंद।