पति की मौत के बाद अकेली दिल्ली जा रही थी… ट्रेन में मिला एक अजनबी… फिर जो हुआ

एक नई सुबह की ओर

कहते हैं ना, जिसके पास कोई नहीं होता उसके साथ ऊपर वाला होता है।
सुबह के चार बजे थे। बनारस का कैंट रेलवे स्टेशन हल्की धुंध और अनजाने चेहरों की भीड़ में धीरे-धीरे जाग रहा था। लेकिन प्लेटफार्म नंबर चार की एक बेंच पर एक नौजवान युवती – तनवी – अपने दो साल के बेटे परीक्षित को गोद में लिए चुपचाप बैठी थी। न किसी को आवाज दे रही थी, न किसी से मदद मांग रही थी। बस आंखों में नमी, चेहरा उतरा हुआ और मन ऐसा जैसे भीतर ही भीतर कोई तूफान थमने का नाम नहीं ले रहा।

हर गुजरती ट्रेन की आवाज से वह हल्का सा चौंक जाती, जैसे मन के भीतर उठती उम्मीद को फिर से जमीन पर पटक देती हो। उसका छोटा बेटा कभी पापड़ वाले की तरफ देखता, कभी बिस्कुट वाले की ओर हाथ बढ़ाता। तनवी उसका हाथ थाम कर प्यार से कहती, “नहीं बेटा, यह नहीं लेना।” उसकी आवाज में ममता थी, लेकिन आंखों में वह बेबसी थी जो एक मां भूखे बच्चे को देखकर भी कुछ न कर पाने पर महसूस करती है।

उसी बेंच से कुछ दूरी पर बैठा था 28 साल का अंश। एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर, जो दिल्ली में नौकरी करता था और त्यौहार मनाकर वापस लौट रहा था। उसने सुबह से ही तनवी को देखा था – वही पीली सी शॉल ओढ़े, बच्चे को सीने से लगाए बैठी युवती, जो हर बार ट्रेन रुकते ही खड़ी होती और फिर भीड़ देखकर लौट आती। अंश की आंखों में बस एक ही सवाल घूम रहा था: कौन है यह युवती, जो इतनी तकलीफ में भी अकेली है, और इतनी बहादुर भी?

जब परीक्षित ने तीसरी बार पापड़ की ओर इशारा किया, तो अंश से रहा नहीं गया। वह उठा, पापड़ वाले से एक पैकेट लिया और तनवी के सामने लाकर बोला, “लो नन्हे दोस्त, थोड़ा सा खा लो।”
तनवी ने चौंक कर देखा, आंखों में सवाल था, गुस्सा नहीं। पर हां, आत्मसम्मान जरूर छलक आया था।
“आपने यह क्यों लिया? यह बस यूं ही हाथ बढ़ा देता है, इसका पेट भरा है,” उसने शांत लेकिन थकी हुई आवाज में कहा।
“कोई बात नहीं, बच्चे का मन है, थोड़ा सा खा लेगा तो क्या बिगड़ जाएगा?” अंश ने मुस्कुरा कर जवाब दिया।
तनवी कुछ नहीं बोली, सिर्फ अपने बेटे को देखने लगी, जो पापड़ खाते हुए पहली बार उस दिन मुस्कुरा रहा था। और उसी पल अंश ने जान लिया – यह सिर्फ भूख नहीं, यह उस मासूमियत की मुस्कान है जो शायद बहुत दिनों बाद आई है।

थोड़ी देर बाद अंश ने पास आकर धीरे से पूछा, “आप कहां जाना चाहती हैं? सुबह से आपको यही बैठा देख रहा हूं, कोई परेशानी है क्या?”
तनवी पहले थोड़ी झिझकी, फिर बोली, “मुझे दिल्ली जाना है। मेरे पास जनरल टिकट है, लेकिन हर ट्रेन में इतनी भीड़ होती है कि बच्चे के साथ चढ़ने की हिम्मत नहीं हो रही। मैं बस सोच रही थी कि कोई ट्रेन कम भीड़ वाली मिल जाए।”

“अरे, तो फिर आप चिंता क्यों कर रही हैं? मैं भी दिल्ली जा रहा हूं। मेरे पास एसी कोच का टिकट है और मेरे केबिन में जगह भी है। चलिए मेरे साथ, मैं टीटी से बात कर लूंगा,” अंश ने ईमानदारी से कहा।
तनवी कुछ पल चुप रही, जैसे जिंदगी में पहली बार कोई भरोसे की डोर थमा रहा हो। फिर बोली, “पर मेरे पास तो सिर्फ जनरल का टिकट है। अगर टीटी ने कुछ कहा तो मेरे पास पैसे भी नहीं हैं।”
“आपके पास हिम्मत है और वह बहुत बड़ी चीज है। टिकट मैं संभाल लूंगा, आप सिर्फ चलिए।”
वो झिझकी, लेकिन फिर सिर हिला दिया। शायद अब उसके पास और कोई रास्ता भी नहीं था।

कुछ देर बाद ट्रेन आई। अंश ने तनवी का छोटा सा बैग उठाया और उसे अपने साथ एसी कोच तक ले गया। पहली बार ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने तनवी का बोझ सिर्फ बैग का नहीं, बल्कि दिल का भी हल्का कर दिया हो। अंदर घुसते ही ठंडी हवा के झोंके से तनवी सहम गई, “इतना ठंडा क्यों है यहां?”
“क्योंकि आप पहली बार यहां आई हैं,” अंश ने मुस्कुरा कर कहा और उसे सीट पर बैठने को कहा।
तनवी अब भी डरी हुई थी। जैसे ही टीटी आया, अंश ने उसे इशारे से बुलाया और कुछ दूर ले जाकर बात की। तनवी बस दूर से देखती रही, उसकी आंखों में डर था। लेकिन थोड़ी देर बाद टीटी मुस्कुरा कर चला गया।
“सब ठीक है, अब बस चैन से बैठिए,” अंश ने लौट कर कहा और पहली बार तनवी की आंखों में राहत की चमक आई।
“आपने इतना सब किया, क्यों?”
“क्योंकि आप इंसान हैं और इंसानियत आज भी जिंदा है।”
उसकी यह बात तनवी के दिल को छू गई।

यात्रा शुरू हुई और ट्रेन की खिड़की से बाहर के अंधेरे को एकटक देखती हुई तनवी अब भी पूरी तरह से निश्चिंत नहीं हो पाई थी। दिल के अंदर एक डर अब भी पल रहा था – शायद इसलिए नहीं कि कोई नुकसान हो जाएगा, बल्कि इसलिए कि वह इतने समय से खुद को अकेला समझती रही थी। और अब अचानक कोई अजनबी उसके लिए इतना कर रहा था, उसकी परवाह कर रहा था। यह भरोसा करना आसान नहीं था।

कुछ देर चुप्पी के बाद अंश ने धीरे से कहा, “अगर बुरा ना माने तो एक बात पूछूं?”
तनवी ने उसकी ओर देखा, कुछ कहे बिना सिर हिलाया।
“आप इतनी सुबह-सुबह इस छोटे बच्चे के साथ अकेले दिल्ली क्यों जा रही हैं? कुछ परेशानी है क्या?”
तनवी की आंखों में कुछ पल को नमी तैर गई। लेकिन शायद अब उसका मन बोलना चाहता था, किसी को अपना दर्द बांटना चाहता था। धीरे-धीरे उसने बोलना शुरू किया।

“मेरी शादी ढाई साल पहले हुई थी। मेरे पति सुरेश प्राइवेट कंपनी में नौकरी करते थे। शुरू-शुरू में सब ठीक था, लेकिन धीरे-धीरे उनकी शराब की आदतें सामने आने लगीं। पैसों की तंगी, गालियां और कई बार तो हाथ भी उठा देते थे।”
कुछ पल के लिए तनवी रुकी, जैसे शब्दों से नहीं, आंखों से बता रही हो कि कितना कुछ सहा है उसने।
“जब मेरा बेटा हुआ, तो वह कुछ हफ्तों के लिए सुधर गए। लेकिन एक दिन अचानक बाइक एक्सीडेंट में उनकी मौत हो गई और मैं बिल्कुल अकेली रह गई। मायके वालों ने भी कह दिया कि अब तेरा रिश्ता ससुराल से है और ससुराल वालों ने साफ कह दिया, हमारे बेटे के साथ जो रिश्ता था वही सब कुछ था। अब तू हमारे लिए कोई नहीं।”

अंश चुपचाप उसकी बात सुनता रहा, बिना टोके, बिना कोई सवाल पूछे।
“अब ना छत थी, ना सहारा, ना कोई सुनने वाला। एक दिन गांव की एक जानने वाली दीदी ने बताया कि सुरेश की कंपनी में उसका पीएफ और कुछ फंड जमा हो सकता है। बस वही उम्मीद लेकर मैं दिल्ली जा रही हूं। यही एक आखिरी कोशिश है।”
तनवी की आवाज अब थरथराने लगी थी। उसने अपने बेटे के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “यह बच्चा मेरा सब कुछ है। मैं इसके लिए कुछ भी कर सकती हूं। लेकिन अब हिम्मत जवाब दे रही है।”
अंश ने अपना हाथ बढ़ाया, “हिम्मत अभी बाकी है और अब आप अकेली नहीं हैं।”

इस एक वाक्य ने तनवी को कुछ पल के लिए सुकून दिया।
रात अब पूरी तरह गहरा चुकी थी। बाहर खिड़की के उस पार बस कालेपन में स्टेशन की लाइटें भागती नजर आ रही थी और केबिन के अंदर दो अनजाने लोग एक अनकहे भरोसे में बंधते जा रहे थे।
अंश ने अपने बैग से खाना निकाला – दाल, चावल और आलू की सब्जी। “थोड़ा सा खा लीजिए, भूखे पेट हिम्मत भी थक जाती है।”
तनवी ने पहले मना किया, फिर अपने बेटे की तरफ देखा, जो अब थककर उसकी गोद में चुपचाप सो गया था, और फिर धीरे से बोली, “ठीक है, जरा सी रोटी दे दीजिए।”
दोनों ने साथ बैठकर खाना खाया। कोई बड़ा कीमती खाना नहीं था, लेकिन उस साधारण खाने में एक अजनबी अपनापन था, जैसे उस एक थाली ने उनके बीच एक दीवार को गिरा दिया हो।

रात के आखिरी पहर में दोनों बात करते-करते सो गए।
जब सुबह चार बजे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन आया, तो अंश ने चुपचाप परीक्षित को गोद में उठाया और बोला, “आइए, चलिए, अब अगला सफर जिंदगी का है।”

स्टेशन की भीड़ अब बढ़ने लगी थी। लेकिन तनवी के मन में फिर वही सवाल था – अब कहां जाऊं? इतनी सुबह इस बच्चे के साथ कहां ठहरूं?
अंश ने कहा, “मेरे फ्लैट में आप आराम कर सकती हैं। मैं सामने के कमरे में रहूंगा और सुबह दस बजे हम कंपनी भी चलेंगे।”
तनवी चुप थी। वह जानती थी कि हालात मजबूरी बन चुके हैं और अब किसी पर भरोसा करने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचा।
वो सिर झुका कर बस इतना बोली, “ठीक है।” और फिर वे दोनों स्टेशन से बाहर निकल गए – एक नई सुबह की ओर, एक नई उम्मीद के साथ।

दिल्ली की सड़कें उस सुबह कुछ ज्यादा ही शांत थीं। चारों ओर हल्की धूप फैलने लगी थी, लेकिन तनवी के मन में अभी भी बादल छाए थे। वह टैक्सी की खिड़की से बाहर देख रही थी, पर उसका ध्यान कहीं और था। जैसे उसका दिल बार-बार पीछे मुड़कर अपने गांव की सुनी चौखट को देख रहा हो, और आगे बढ़ने से डर रहा हो।
अंश ने उसके चेहरे की बेचैनी को महसूस कर लिया था।
जब वे फ्लैट पहुंचे, अंश ने दरवाजा खोला, “आप इस कमरे में रहिए। और हां, चिंता मत कीजिए। मैं बाहर वाले रूम में हूं, कोई असुविधा नहीं होगी।”
तनवी ने कमरे को देखा – साधारण सा दो बेडरूम वाला फ्लैट, थोड़ा सा अस्त-व्यस्त जरूर था, लेकिन साफ और सुरक्षित था।
और इस शहर की अनजान भीड़ में अगर कुछ सबसे कीमती था, तो वह था सुरक्षित महसूस करना।
उसने अपने बेटे को बिस्तर पर लेटाया, खुद भी एक कोने में बैठी रही और फिर जाने कब थकान की गोद में सिर रखकर सो गई।

जब उसकी आंख खुली, तब धूप कमरे की खिड़की से अंदर आ रही थी और परीक्षित अब भी गहरी नींद में था।
तनवी उठी और जैसे उसकी मां की दी हुई आदतें जाग गईं। उसने सबसे पहले अपने आसपास फैले सामान को समेटना शुरू कर दिया, किचन में बर्तन रखे, कमरे को थोड़ा ठीक किया।
जैसे-जैसे फ्लैट व्यवस्थित होता गया, तनवी का मन भी थोड़ी देर के लिए व्यवस्थित होता गया।

अंश जब ऑफिस के लिए तैयार होकर निकला, तो उसे देखकर थोड़ा चौका, “आपको आराम करना चाहिए था, सफाई की क्या जरूरत थी?”
तनवी ने धीरे से मुस्कुरा कर जवाब दिया, “मैं एक औरत हूं, और जहां रहती हूं वहां गंदगी नहीं देख सकती। आदत है।”
अंश कुछ कह नहीं सका। उसकी मुस्कान में जो आत्मसम्मान था, उसने हर शब्द को पीछे छोड़ दिया।
जाते-जाते अंश ने तनवी को कहा, “आप आराम से रहिए, दोपहर तक लौटूंगा और फिर हम दोनों कंपनी चलेंगे।”

दोपहर में जब अंश लौटकर आया, तो तनवी तैयार थी। उसने अपने बेटे को अच्छे से तैयार किया था और खुद भी सादे सलवार-कुर्ते में माथे पर हल्की बिंदी लगाए थी।
जैसे फिर से दुनिया के सामने खड़े होने की हिम्मत जुटाई हो।
वो दोनों ऑफिस पहुंचे।
एक बड़ी कंपनी की इमारत के सामने खड़ी तनवी थोड़ी सहम गई।
लेकिन अंश ने उसका हाथ नहीं, बल्कि उसके आत्मविश्वास को थाम रखा था।
अंदर रिसेप्शन पर जाकर अंश ने मैनेजर मिस्टर घोष से मुलाकात करवाई, “सर, यह सुरेश कुमार की पत्नी है। इनके पति का पीएफ क्लेम करना है।”
मैनेजर ने तनवी को ऊपर से नीचे देखा, उस नजर में सहानुभूति कम और शक ज्यादा था।
“देखिए मैडम, आपके पति का अकाउंट हमारे पास है, लेकिन उनके नॉमिनी आपके ससुर हैं। इसलिए क्लेम वही कर सकते हैं।”
तनवी के चेहरे की रंगत उड़ गई, “मगर वह तो गांव में हैं, और उन्होंने तो मुझे कभी नहीं बताया कि वह नॉमिनी हैं।”
मैनेजर ने अपनी कुर्सी पर झुकते हुए कहा, “आप नंबर दीजिए, हम कल तक पुष्टि कर देंगे।”

तनवी ने नंबर दिया। लेकिन जैसे वह बाहर निकली, उसके चेहरे पर एक बेचैनी उतर आई।
अंश ने पूछा, “सब ठीक है?”
तनवी ने धीरे से कहा, “नहीं, मैनेजर की नजरों में कुछ अजीब था, जैसे वो कोई और बात सोच रहा हो।”
अंश समझ गया, “कोई बात नहीं, मैं हूं ना, जो भी होगा मिलकर देखेंगे।”
वो वापस फ्लैट लौट आए। लेकिन उस रात तनवी सुन नहीं सकी।
और सुबह जब फोन बजा, तो मिस्टर घोष की आवाज आई, “आपका फंड आपके ससुर ने निकाल लिया है। वह अगले ही दिन आकर सारा क्लेम ले गए और उन्होंने कहा कि आपको कुछ भी नहीं देना।”

यह सुनते ही तनवी का पूरा शरीर कांप उठा।
“क्या? मेरे बेटे का भी हक नहीं समझा उन्होंने? मैं किसके लिए लड़ रही थी? और अब क्या बचा है मेरे पास?”
वो फूट-फूट कर रोने लगी।
अंश ने उसका कंधा थामा, “आप अकेली नहीं हैं तनवी, मैं हूं आपके साथ। आप यहां रहिए, मैं आपके लिए कोई काम तलाश करूंगा।”
तनवी कुछ नहीं बोली, बस अपने बेटे को सीने से चिपकाए रोती रही, जैसे उस मासूम की सांस से ही अब उसकी आखिरी उम्मीद थी।

दिन बीतते गए।
तनवी अब अंश के फ्लैट में रह रही थी, अपने बेटे परीक्षित के साथ – एक अलग कमरे में, बिल्कुल एक सीमित दायरे में, बिना किसी उम्मीद के, लेकिन बिना किसी शिकायत के भी।
वो घर संभालती, साफ-सफाई करती, समय पर खाना बनाती और बदले में अंश उसे कुछ नहीं कहता – ना कोई एहसान जताता, ना कोई सवाल पूछता।
अंश का मन भीतर से बदलने लगा था। उसके लिए अब तनवी सिर्फ वो युवती नहीं रही थी जो स्टेशन पर बैठी थी, बल्कि अब वो एक मजबूत मां, एक ईमानदार इंसान और एक ऐसी औरत थी जिसने अपनी हालत को झुकने नहीं दिया।

परीक्षित भी अब अंश से घुल-मिल गया था। उसकी गोद में खेलने लगा था, उसके आने पर दौड़कर दरवाजा खोलता था।
एक शाम जब अंश ऑफिस से लौटा, तो देखा कि तनवी खिड़की के पास बैठी थी, हाथ में कप चाय और आंखें कहीं बहुत दूर अतीत में डूबी हुई।
अंश ने पास आकर पूछा, “क्या सोच रही हैं?”
तनवी मुस्कुरा दी, लेकिन उस मुस्कान में कुछ टूटा हुआ था।
“बस यूं ही, जब मां जिंदा थी तो वह अक्सर कहा करती थी – बेटा, हर अंधेरा सूरज उगने से पहले सबसे ज्यादा काला होता है। शायद अब वह काली रात खत्म होने वाली है।”
अंश चुप था, लेकिन उसका दिल जैसे कह रहा था – मैं उस सुबह का हिस्सा बनना चाहता हूं।

वह तनवी को देखता रहा और पहली बार अपने दिल में छुपे उस भाव को महसूस किया, जो अब तक सिर्फ इंसानियत और सहानुभूति का नाम था। लेकिन अब धीरे-धीरे एक अनकहा रिश्ता बन रहा था।

कुछ दिनों बाद जब अंश ऑफिस से देर रात लौटा, तो तनवी ने पहली बार उसके लिए दरवाजा खोलते हुए कहा, “खाना रख दिया है, ठंडा हो गया होगा, लेकिन दिल से बनाया है।”
अंश मुस्कुराया, “दिल से बनी चीजें कभी ठंडी नहीं होती।”
वो रात दोनों के बीच बहुत कुछ कह गई – बिना बोले, बिना छुए, बस आंखों से।

लेकिन अगली सुबह तनवी ने कुछ ऐसा कहा जिसने अंश के दिल में हलचल मचा दी, “मैं गांव लौटना चाहती हूं अंश। यहां लोगों की जुबान लंबी है, और अब मेरे चरित्र पर भी सवाल उठने लगे हैं। पड़ोसी बातें बनाने लगे हैं।”
अंश को जैसे एक झटका लगा हो।
“अगर लोग बातें बना ही रहे हैं, तो क्यों ना उन्हें एक सच्चा जवाब दे दिया जाए?”
तनवी ने चौंक कर उसकी ओर देखा, “क्या मतलब?”
अंश ने अपनी सांस रोकी और फिर आंखों में गहराई से देखते हुए कहा, “मैं आपसे शादी करना चाहता हूं तनवी – ना किसी एहसान के लिए, ना समाज को चुप कराने के लिए, बल्कि इसलिए क्योंकि मैं आपसे और आपके बेटे से दिल से जुड़ चुका हूं।”

तनवी के हाथ से पानी का गिलास छूटते-छूटते बजा। वो एक पल को निशब्द रह गई।
“क्या तुम जानते हो कि यह कितना मुश्किल फैसला है? मैं एक विधवा हूं, मेरे पास कुछ भी नहीं है – सिर्फ एक बच्चा है और बीती हुई जिंदगी के जख्म।”
अंश ने उसकी बात काटते हुए कहा, “मुझे तुम्हारा अतीत नहीं चाहिए। तनवी, मुझे तुम्हारा आज और तुम्हारा साथ चाहिए। और तुम्हारा बेटा – वह तो जैसे मेरा अपना हो गया है।”
तनवी की आंखें भर आईं।
उसने कांपते होठों से पूछा, “क्या तुम्हारे मां-बाप मान जाएंगे?”
अंश ने मुस्कुरा कर कहा, “मैंने अपने मां-पापा से पहले ही बात कर ली है, उन्हें कोई ऐतराज नहीं। बस तुम हां कह दो।”

उस रात बहुत सालों बाद तनवी ने फिर से महसूस किया कि उसका भी कोई हो सकता है, कि टूटी हुई औरतें फिर से मुस्कुरा सकती हैं, और कि प्यार कभी-कभी बिना मांगे भी मिल सकता है अगर नियत सच्ची हो।
उसने धीमे से कहा, “अगर तुम्हें मेरे बेटे के साथ पूरी जिंदगी बिताने का यकीन है तो मेरी तरफ से हां है।”

कुछ ही हफ्तों में सब कुछ बदल गया।
अंश ने तनवी से सादगी से शादी की – ना कोई शोर, ना कोई दिखावा, बस घर के मंदिर के सामने मां-पापा की आशीर्वाद भरी मौजूदगी में एक छोटी सी माला और दो दिलों का वादा।
उस दिन परीक्षित भी खूब हंसा था, क्योंकि उसे अब मम्मी के साथ-साथ पापा भी मिल गए थे, और अंश वो बस उसकी उंगली थामे हुए खुद को सबसे धन्य समझ रहा था।

शादी के बाद जिंदगी ने एक नया मोड़ लिया।
अब वो फ्लैट जिसमें कभी एक महिला चुपचाप शॉल ओढ़े बैठी रहती थी, वहां बच्चों की हंसी, रसोई से आती चाय की खुशबू और दो लोगों की साझी मुस्कान गूंजती थी।
तनवी ने अपने आत्मसम्मान को दोबारा जीना शुरू किया। उसने घर से ही एक छोटा सा कढ़ाई-बुनाई का काम शुरू किया, जिसे अंश ने ऑनलाइन प्लेटफार्म पर बेचने में मदद की और धीरे-धीरे तनवी खुद कमाने लगी।

वो औरत जो कभी स्टेशन की बेंच पर बैठी सोच रही थी कि अगली ट्रेन में चढ़े या नहीं, आज हर सुबह अपने बेटे को गोदी में लेकर कहती, “हम औरतें ट्रेन की तरह होती हैं बेटा। चाहे जितनी देर से आए, अपनी मंजिल जरूर तय करती है।”

समय गुजरता गया।
परीक्षित बड़ा हुआ। अंश और तनवी की एक बेटी भी हुई – नन्ही गुड़िया।
अब उस फ्लैट में चार सांसे थीं, चार दिल थे और एक पूरा परिवार।

एक दिन अंश ऑफिस से लौटा तो देखा, तनवी खिड़की के पास बैठी थी – वही जगह जहां वो पहले दिन बैठी थी।
लेकिन इस बार उसके हाथ में चाय नहीं, बल्कि एक किताब थी और चेहरे पर उदासी नहीं, बल्कि एक संतोष था।
अंश ने पूछा, “आज फिर कुछ सोच रही हो?”
तनवी मुस्कुरा कर बोली, “हां, कभी-कभी सोचती हूं, अगर उस दिन तुम नहीं मिलते तो मैं कहां होती?”
अंश ने बिना देर किए कहा, “तो शायद मैं भी अधूरा रह जाता, क्योंकि मैं भी उस दिन सिर्फ छुट्टी से नहीं लौट रहा था, मैं तुम्हें खोजने निकला था। यह मुझे बाद में समझ आया।”

तनवी की आंखों से एक नन्हा सा आंसू टपक पड़ा, लेकिन इस बार वह आंसू किसी दर्द का नहीं था। वो आंसू एक कहानी पूरी होने की गवाही था।
अब तनवी स्टेशन पर बैठी औरत नहीं थी।
अब वो एक पत्नी थी, एक मां थी, एक उद्यमी थी, और सबसे बड़ी बात – वो अब खुद के लिए जी रही थी।

कभी जिस जिंदगी में बस दिल टूटने की खामोशी थी, अब वहां प्यार से भरी हंसी थी।
और शायद यही तो असली जीत है, क्योंकि जिस दिन एक औरत अपने डर को हराकर अपने बच्चे के लिए नहीं, खुद के लिए जीना शुरू करती है, उस दिन वो सिर्फ जिंदा नहीं होती – वो मुकम्मल होती है।

दोस्तों, अब एक सवाल आप सभी से:
क्या अंश ने जो किया वो सही था या गलत?
क्या एक अजनबी औरत के लिए यूं खड़े हो जाना, उसे अपनाना, उसे नई पहचान देना – समाज की नजरों में कितना ठीक था?
और तनवी का अंश को अपनाना – क्या वह उसकी मजबूरी थी या उसकी हिम्मत?

आपका दिल क्या कहता है?
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फिर मिलते हैं एक नई सच्ची और दिल को छू लेने वाली कहानी के साथ।
समाप्त।