पति की मौत के बाद अकेली दिल्ली जा रही थी… ट्रेन में मिला एक अजनबी… फिर जो हुआ

नई सुबह – राधिका की हिम्मत और विक्रम का साथ
सुबह का स्टेशन
कहते हैं ना, जिसके पास कोई नहीं होता उसके साथ ऊपर वाला होता है।
सुबह के 5:00 बजे थे। लखनऊ रेलवे स्टेशन हल्की धुंध और अनजाने चेहरों की भीड़ में धीरे-धीरे जाग रहा था।
प्लेटफार्म नंबर तीन की एक बेंच पर बैठी थी राधिका – एक विधवा युवती, अपने दो साल के बेटे राघव को गोद में लिए।
ना किसी से मदद मांग रही थी, ना किसी को आवाज दे रही थी।
बस आंखों में नमी, चेहरा उतरा हुआ, मन के भीतर तूफान।
हर गुजरती ट्रेन की आवाज पर हल्का सा चौंक जाती, जैसे उम्मीद फिर टूट जाती हो।
राघव कभी चाय वाले की तरफ देखता, कभी बिस्किट वाले की ओर हाथ बढ़ाता।
राधिका प्यार से कहती, “नहीं बेटा, यह नहीं लेना।”
उसकी आवाज में ममता थी, लेकिन आंखों में बेबसी।
पहला सहारा – विक्रम
कुछ दूरी पर बैठा था 28 साल का विक्रम, एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर।
मुंबई में नौकरी करता था, त्योहार मनाकर वापस लौट रहा था।
विक्रम ने सुबह से ही राधिका को देखा था – नीली शॉल ओढ़े, बच्चे को सीने से लगाए, हर बार ट्रेन रुकते ही खड़ी होती, भीड़ देखकर वापस लौट आती।
विक्रम की आंखों में सवाल था – कौन है ये औरत, इतनी तकलीफ में भी अकेली, इतनी बहादुर भी?
जब राघव ने तीसरी बार बिस्किट की ओर इशारा किया, तो विक्रम से रहा नहीं गया।
वो उठा, बिस्किट का पैकेट लिया और राधिका के सामने लाकर बोला, “लो नन्हा दोस्त, थोड़ा सा खा लो।”
राधिका ने चौंक कर देखा। आंखों में सवाल था, आत्मसम्मान छलक आया।
“आपने क्यों लिया? इसका पेट भरा है।”
विक्रम मुस्कुराकर बोला, “कोई बात नहीं। बच्चे का मन है, थोड़ा सा खा लेगा तो क्या बिगड़ जाएगा?”
राधिका चुप रही, बेटे को देखने लगी, जो पहली बार मुस्कुरा रहा था।
विक्रम ने समझ लिया – यह सिर्फ भूख नहीं, मासूमियत की मुस्कान है, जो बहुत दिनों बाद आई है।
सफर की शुरुआत
कुछ देर बाद विक्रम ने पूछा, “आप कहां जाना चाहती हैं? सुबह से आपको यहीं बैठे देख रहा हूं। कोई परेशानी है?”
राधिका पहले झिझकी, फिर बोली, “मुंबई जाना है। जनरल टिकट है, हर ट्रेन में इतनी भीड़ कि बच्चे के साथ चढ़ने की हिम्मत नहीं हो रही।”
विक्रम ने कहा, “मैं भी मुंबई जा रहा हूं। मेरे पास एसी कोच का टिकट है, केबिन में जगह भी है। चलिए मेरे साथ, टीटीई से बात कर लूंगा।”
राधिका चुप रही, फिर बोली, “मेरे पास पैसे नहीं हैं।”
विक्रम बोला, “आपके पास हिम्मत है, टिकट मैं संभाल लूंगा।”
कुछ देर बाद ट्रेन आई। विक्रम ने राधिका का बैग उठाया, उसे एसी कोच तक ले गया।
राधिका को पहली बार लगा – किसी ने उसका बोझ सिर्फ बैग का नहीं, दिल का भी हल्का कर दिया है।
एसी कोच में पहली राहत
अंदर घुसते ही ठंडी हवा से राधिका सहम गई, “इतना ठंडा क्यों है?”
विक्रम मुस्कुराया, “क्योंकि आप पहली बार यहां आई हैं।”
राधिका डरी हुई थी। टीटी आया, विक्रम ने इशारे से बुलाया, दूर ले जाकर बात की।
राधिका बस देखती रही, डर था।
कुछ देर बाद टीटी मुस्कुरा कर चला गया।
विक्रम बोला, “सब ठीक है, अब चैन से बैठिए।”
राधिका की आंखों में पहली बार राहत की चमक आई।
“आपने इतना सब किया, क्यों?”
विक्रम बोला, “क्योंकि आप इंसान हैं, इंसानियत आज भी जिंदा है।”
राधिका की कहानी
यात्रा शुरू हुई। ट्रेन की खिड़की से बाहर देखती राधिका अब भी पूरी तरह निश्चिंत नहीं थी।
विक्रम ने धीरे से पूछा, “इतनी सुबह-सुबह, छोटे बच्चे के साथ अकेले मुंबई क्यों जा रही हैं?”
राधिका की आंखों में नमी तैर गई।
धीरे-धीरे उसने बोलना शुरू किया –
“शादी ढाई साल पहले हुई थी। पति रमेश प्राइवेट कंपनी में काम करते थे।
शुरू में सब ठीक था, फिर शराब की आदत लग गई। पैसों की तंगी, गालियां, कई बार हाथ भी उठा देते थे।
जब बेटा हुआ, कुछ हफ्तों के लिए सुधर गए।
एक दिन बाइक एक्सीडेंट में उनकी मौत हो गई। मैं बिल्कुल अकेली रह गई।
मायके वालों ने कहा – अब तेरा रिश्ता ससुराल से है।
ससुराल वालों ने साफ कह दिया – हमारे बेटे के साथ जो रिश्ता था, वही सब कुछ था। अब तू हमारे लिए कोई नहीं।”
अब ना छत थी, ना सहारा, ना कोई सुनने वाला।
गांव की एक दीदी ने बताया – रमेश की कंपनी में पीएफ और फंड जमा हो सकता है।
बस वही उम्मीद लेकर मुंबई जा रही हूं। यह आखिरी कोशिश है।
राधिका की आवाज थरथराने लगी।
“यह बच्चा मेरा सब कुछ है। मैं इसके लिए कुछ भी कर सकती हूं। लेकिन अब हिम्मत जवाब दे रही है।”
विक्रम ने उसका हाथ थामा, “हिम्मत अभी बाकी है, और अब आप अकेली नहीं हैं।”
मुंबई की नई सुबह
सुबह 4:00 बजे मुंबई सेंट्रल स्टेशन आया।
विक्रम ने राघव को गोद में उठाया, “आइए, अब अगला सफर जिंदगी का है।”
राधिका के मन में सवाल था – अब कहां जाऊं? इतनी सुबह, बच्चे के साथ कहां ठहरूं?
विक्रम ने कहा, “मेरे फ्लैट में आराम कर सकती हैं। मैं दूसरे कमरे में रहूंगा, सुबह 10:00 बजे कंपनी चलेंगे।”
राधिका चुप थी, हालात मजबूरी बन चुके थे। सिर झुका कर बोली, “ठीक है।”
वो दोनों स्टेशन से बाहर निकल गए – एक नई सुबह की ओर, एक नई उम्मीद के साथ।
फ्लैट में पहली सुबह
मुंबई की सड़कें शांत थीं।
विक्रम ने दरवाजा खोला, “आप इस कमरे में रहिए, चिंता मत कीजिए, मैं बाहर वाले रूम में हूं।”
राधिका ने कमरे को देखा – साधारण सा दो बेडरूम वाला फ्लैट।
साफ और सुरक्षित।
उसने अपने बेटे को बिस्तर पर लेटाया, खुद भी एक कोने में बैठी रही, फिर थकान की गोद में सिर रखकर सो गई।
जब आंख खुली, धूप कमरे में आ रही थी।
राघव गहरी नींद में था।
राधिका उठी, मां की आदतें जाग गईं – सामान समेटा, किचन में बर्तन रखे, कमरे को ठीक किया।
जैसे-जैसे फ्लैट व्यवस्थित होता गया, राधिका का मन भी व्यवस्थित होता गया।
विक्रम ऑफिस के लिए तैयार होकर आया, “आपको आराम करना चाहिए था। सफाई की क्या जरूरत थी?”
राधिका मुस्कुराई, “मैं औरत हूं, जहां रहती हूं, वहां गंदगी नहीं देख सकती।”
विक्रम कुछ नहीं कह सका। उसकी मुस्कान में आत्मसम्मान था।
कंपनी में संघर्ष
दोपहर में विक्रम लौटा, राधिका तैयार थी।
बेटे को अच्छे से तैयार किया, खुद सादे सलवार-कुर्ते में माथे पर हल्की बिंदी लगाए – जैसे फिर से दुनिया के सामने खड़े होने की हिम्मत जुटाई हो।
वो दोनों ऑफिस पहुंचे।
विक्रम ने मैनेजर मिस्टर शर्मा से मुलाकात करवाई, “सर, यह रमेश कुमार की पत्नी हैं, इनके पति का पीएफ क्लेम करना है।”
मैनेजर ने राधिका को ऊपर से नीचे देखा – सहानुभूति कम, शक ज्यादा।
“आपके पति के नॉमिनी आपके ससुर हैं, क्लेम वही कर सकते हैं।”
राधिका के चेहरे की रंगत उड़ गई।
“मगर उन्होंने कभी नहीं बताया कि वो नॉमिनी हैं।”
“आप नंबर दीजिए, कल तक पुष्टि कर देंगे।”
राधिका ने नंबर दिया।
बाहर निकली, चेहरे पर बेचैनी।
विक्रम ने कहा, “कोई बात नहीं, मैं हूं ना। जो भी होगा, मिलकर देखेंगे।”
हक की लड़ाई और हार
अगली सुबह फोन आया – “आपका फंड आपके ससुर ने निकाल लिया है। वो अगले ही दिन आकर सारा क्लेम ले गए और कहा कि आपको कुछ नहीं देना।”
राधिका का पूरा शरीर कांप उठा।
“मेरे बेटे का भी हक नहीं समझा उन्होंने। मैं किसके लिए लड़ रही थी? अब क्या बचा है मेरे पास?”
वह फूट-फूट कर रोने लगी।
विक्रम ने कंधा थामा, “आप अकेली नहीं हैं राधिका, मैं हूं आपके साथ।”
नई जिंदगी की शुरुआत
दिन बीतते गए, राधिका विक्रम के फ्लैट में रह रही थी।
अपने बेटे के साथ सीमित दायरे में, बिना शिकायत के घर संभालती, सफाई करती, खाना बनाती।
विक्रम उसे कभी एहसान नहीं जताता, ना कोई सवाल पूछता।
विक्रम के मन में भी बदलाव आया – राधिका अब सिर्फ वह विधवा औरत नहीं थी, बल्कि एक मजबूत मां, ईमानदार इंसान, जिसने हालात को झुकने नहीं दिया।
राघव भी अब विक्रम से घुलमिल गया था, उसकी गोद में खेलता, दरवाजा खोलता।
रिश्ते की पहचान
एक शाम विक्रम ऑफिस से लौटा, राधिका खिड़की के पास बैठी थी, चाय का कप हाथ में, आंखें अतीत में डूबी।
विक्रम ने पूछा, “क्या सोच रही हो?”
राधिका मुस्कुराई, लेकिन मुस्कान में कुछ टूटा हुआ था।
“जब मां जिंदा थी तो कहती थी – हर अंधेरा सूरज उगने से पहले सबसे ज्यादा काला होता है। शायद अब वो काली रात खत्म होने वाली है।”
विक्रम चुप था, दिल कह रहा था – मैं उस सुबह का हिस्सा बनना चाहता हूं।
समाज की दीवारें और प्यार का प्रस्ताव
कुछ दिनों बाद राधिका ने कहा, “मैं गांव लौटना चाहती हूं। यहां लोगों की जुबान लंबी है, चरित्र पर सवाल उठने लगे हैं।”
विक्रम को झटका लगा, “अगर लोग बातें बना ही रहे हैं तो क्यों ना उन्हें सच्चा जवाब दे दिया जाए।”
राधिका चौंकी, “क्या मतलब?”
विक्रम ने आंखों में गहराई से देखते हुए कहा, “मैं आपसे शादी करना चाहता हूं। ना किसी एहसान के लिए, ना समाज को चुप कराने के लिए, बल्कि इसलिए क्योंकि मैं आपसे और आपके बेटे से दिल से जुड़ चुका हूं।”
राधिका ने कहा, “क्या तुम जानते हो यह कितना मुश्किल फैसला है? मैं विधवा हूं, पास कुछ नहीं है, सिर्फ एक बच्चा और बीती जिंदगी के जख्म।”
विक्रम बोला, “मुझे तुम्हारा अतीत नहीं चाहिए, मुझे तुम्हारा आज और साथ चाहिए। तुम्हारा बेटा तो जैसे मेरा अपना हो गया है।”
राधिका की आंखें भर आईं, “क्या तुम्हारे मां-बाप मान जाएंगे?”
विक्रम मुस्कुराया, “मैंने पहले ही बात कर ली है, उन्हें कोई ऐतराज नहीं। बस तुम हां कह दो।”
उस रात राधिका ने पहली बार महसूस किया – उसका भी कोई हो सकता है, टूटी औरतें फिर मुस्कुरा सकती हैं, प्यार कभी-कभी बिना मांगे भी मिल सकता है।
नई सुबह – नई पहचान
राधिका ने धीमे से कहा, “अगर तुम्हें मेरे बेटे के साथ पूरी जिंदगी बिताने का यकीन है तो मेरी तरफ से हां है।”
कुछ ही हफ्तों में सब कुछ बदल गया।
विक्रम ने राधिका से सादगी से शादी की।
ना कोई शोर, ना दिखावा।
बस घर के मंदिर के सामने मां-पापा की आशीर्वाद भरी मौजूदगी में एक छोटी सी माला और दो दिलों का वादा।
उस दिन राघव भी खूब हंसा था – अब मम्मी के साथ-साथ पापा भी मिल गए थे।
विक्रम उसकी उंगली थामे खुद को सबसे धन्य समझ रहा था।
जीवन की जीत
शादी के बाद जिंदगी ने नया मोड़ लिया।
अब वह फ्लैट जिसमें कभी एक विधवा औरत चुपचाप शॉल ओढ़े बैठी रहती थी, अब वहां बच्चों की हंसी, रसोई से आती चाय की खुशबू, दो लोगों की साझी मुस्कान गूंजती थी।
राधिका ने आत्मसम्मान को दोबारा जीना शुरू किया।
घर से ही कढ़ाई-बुनाई का छोटा सा काम शुरू किया, विक्रम ने ऑनलाइन प्लेटफार्म पर बेचने में मदद की, राधिका खुद कमाने लगी।
वो औरत जो कभी स्टेशन की बेंच पर बैठी सोच रही थी – अगली ट्रेन में चढ़े या नहीं – आज हर सुबह बेटे को गोद में लेकर कहती, “हम औरतें ट्रेन की तरह होती हैं, चाहे जितनी देर से आए, अपनी मंजिल जरूर तय करती हैं।”
समय गुजरता गया।
राघव बड़ा हुआ, विक्रम-राधिका की एक बेटी भी हुई।
अब उस फ्लैट में चार सांसें थीं, चार दिल थे, एक पूरा परिवार।
अंतिम सुकून
एक दिन विक्रम ऑफिस से लौटा, राधिका खिड़की के पास बैठी थी – हाथ में किताब, चेहरे पर संतोष।
“आज फिर कुछ सोच रही हो?”
राधिका मुस्कुरा कर बोली, “हाँ, कभी-कभी सोचती हूं – अगर उस दिन तुम नहीं मिलते तो मैं कहां होती?”
विक्रम ने कहा, “तो शायद मैं भी अधूरा रह जाता। क्योंकि मैं भी उस दिन सिर्फ छुट्टी से नहीं लौट रहा था, मैं तुम्हें खोजने निकला था – यह मुझे बाद में समझ आया।”
राधिका की आंखों से एक नन्हा सा आंसू टपक पड़ा – लेकिन अब वो आंसू किसी दर्द का नहीं, एक कहानी पूरी होने की गवाही था।
अब राधिका स्टेशन पर बैठी विधवा औरत नहीं थी।
वो एक पत्नी थी, एक मां थी, एक उद्यमी थी, और सबसे बड़ी बात – अब वो खुद के लिए जी रही थी।
कहानी का संदेश
जिस जिंदगी में कभी सिर्फ दिल टूटने की खामोशी थी, अब वहां प्यार से भरी हंसी थी।
क्योंकि जिस दिन एक औरत अपने डर को हराकर अपने बच्चे के लिए नहीं, खुद के लिए जीना शुरू करती है, उस दिन वह सिर्फ जिंदा नहीं होती – मुकम्मल होती है।
अंतिम सवाल
क्या विक्रम ने जो किया वह सही था या गलत?
क्या एक अजनबी विधवा औरत को अपनाना समाज की नजरों में ठीक था?
राधिका का विक्रम को अपनाना – क्या उसकी मजबूरी थी या उसकी हिम्मत?
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