बुजुर्ग की मदद करने पर नोकरी चली गयी…लेकिन अगली सुबह जो हुआ उसे देखकर सब हैरान रह गये

“इंसानियत की कीमत”

शहर के सबसे बड़े गैलेरिया मॉल में रात के आठ बज चुके थे। वीकेंड की भीड़ अब छट चुकी थी और फूड कोर्ट की रौनक भी धीमी पड़ गई थी। लेकिन सुपरमार्केट सेक्शन के बिलिंग काउंटर नंबर तीन पर अभी भी कुछ लोग अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। उस काउंटर के पीछे खड़ी थी प्रिया, लगभग 23 साल की एक साधारण परिवार की लड़की। उसकी आंखों में दिन भर की थकान थी, लेकिन होठों पर विनम्र मुस्कान हमेशा खिली रहती थी।

प्रिया अपनी पढ़ाई के साथ-साथ यह नौकरी इसलिए कर रही थी ताकि वह अपनी मां की दवाइयों और छोटे भाई की कॉलेज फीस में मदद कर सके। तभी एक बुजुर्ग सज्जन, जिनकी उम्र 75 के पार होगी, धीरे-धीरे लड़खड़ाते कदमों से काउंटर की ओर बढ़े। उनकी कमर झुकी हुई थी, हाथों में हल्का सा कंपन था और आंखों में अजीब सी झिझक। उन्होंने अपने पुराने कपड़े के थैले से दो पैकेट ब्रेड, 1 लीटर दूध, कुछ दवाइयां और एक साबुन निकाला। कांपते हाथों से सामान बिलिंग बेल्ट पर रखा और अपनी जेब से एक घिसा-पिटा बटुआ निकाला।

प्रिया ने सामान स्कैन किया। कुल ₹238 हुए। अंकल जी ने बटुए से नोट निकाले, लेकिन सिर्फ ₹220 ही निकले। उन्होंने बटुआ पलटकर देखा, उसमें कुछ सिक्कों के सिवा और कुछ नहीं था। उनका चेहरा घबराहट से पीला पड़ गया।

“बेटी, बस ₹18 कम है,” उन्होंने हिचकिचाते हुए कहा, “तुम ऐसा करो दूध का पैकेट वापस रख लो।”

प्रिया की नजर उनके कांपते हाथों पर पड़ी, जिनकी उंगलियों पर पट्टी बंधी थी। उनकी आंखों में लाचारी देख प्रिया का दिल भर आया। उसे अपने स्वर्गीय पिता की याद आ गई, जो आखिरी दिनों में ऐसे ही कमजोर हो गए थे। उसने एक पल सोचा और फिर बिना कुछ कहे अपनी जेब से ₹20 का नोट निकालकर कैश मशीन में डाल दिया। “सब हो गया अंकल जी, आप यह सामान ले जाइए।”

बुजुर्ग की आंखें नम हो गईं। “बेटी, तुम तो बहुत नेक दिल हो। भगवान तुम्हारा भला करे।” प्रिया ने बस हल्के से सिर झुका कर मुस्कुरा दिया।

यह सब दूर खड़े स्टोर मैनेजर राजन मेहरा देख रहे थे। 40 साल के राजन नियमों और कंपनी की पॉलिसी को ही सब कुछ मानते थे। उनके लिए सहानुभूति और इंसानियत जैसे शब्द सिर्फ किताबों में अच्छे लगते थे। वह तेजी से काउंटर पर आए।

“यह क्या हो रहा था यहां?” उनकी आवाज में सख्ती थी।

“सर, अंकल जी के पास कुछ पैसे कम थे तो मैंने अपनी तरफ से दे दिए।”

“अपनी तरफ से? यह कोई धर्मशाला है क्या? अगर हम ऐसे ही कर्मचारियों की भावनाओं को स्टोर में जगह देंगे, तो हमारा बिजनेस कैसे चलेगा?”

“लेकिन सर, सिर्फ कुछ रुपए की तो बात थी।”

“बात रुपयों की नहीं, अनुशासन की है। तुम अब इस स्टोर में काम नहीं करोगी। यू आर फायरड। इसी वक्त यहां से निकल जाओ।”

प्रिया को एक पल के लिए समझ ही नहीं आया कि क्या हुआ। लाइन में खड़े लोग चुपचाप तमाशा देख रहे थे, लेकिन किसी ने एक शब्द भी नहीं कहा। उन बुजुर्ग ने हाथ जोड़कर कहा, “साहब, इस बच्ची ने तो बस इंसानियत दिखाई है।” लेकिन राजन ने उनकी बात को नजरअंदाज कर दिया।

प्रिया ने कांपते हाथों से अपना आईडी कार्ड उतारा, काउंटर से अपना बैग उठाया और चुपचाप बाहर की ओर चल दी। उसकी आंखें आंसुओं से भरी थीं, लेकिन उसे अपने किए पर कोई शर्मिंदगी नहीं थी। बस एक चुबन थी उस अपमान की जो सबके सामने हुआ था।

बाहर निकलते वक्त उन बुजुर्ग ने उसका हाथ थामा और बोले, “बेटी, आज तुमने जो नेकी की है उसकी कीमत बहुत बड़ी है। तुम फिक्र मत करना।”

चिड़िया अपने छोटे से किराए के कमरे में लौटी। मां का फोन आया लेकिन उसने उठाने की हिम्मत नहीं की। उसे नौकरी की सख्त जरूरत थी। लेकिन आज इंसानियत दिखाने की उसे इतनी बड़ी सजा मिली थी। क्या मैं सच में गलत थी? यह सवाल, अपमान और खालीपन लिए प्रिया उस रात सो नहीं पाई।

अगली सुबह दरवाजे पर दस्तक हुई। प्रिया ने दरवाजा खोला तो हैरान रह गई। सामने वही बुजुर्ग खड़े थे, लेकिन इस बार उनके साथ एक चमचमाती कार की चाबी और सूट-बूट पहने एक आदमी भी था।

“बेटी, तुम्हारे जीवन का एक नया अध्याय आज से शुरू होगा।” बुजुर्ग मुस्कुराए।

प्रिया कुछ समझ नहीं पा रही थी।

“हां बेटी, मैं सिर्फ एक आम ग्राहक नहीं हूं। मेरा नाम हरिओम गुप्ता है। गुप्ता फाउंडेशन का संस्थापक और यह मेरे सेक्रेटरी हैं।”

प्रिया की आंखें आश्चर्य से फैल गईं।

“कल जब तुमने मेरी मदद की तो तुमने सिर्फ ₹18 नहीं दिए थे। तुमने एक इंसान का आत्मसम्मान बचाया था। और जो इंसान बिना किसी स्वार्थ के दूसरों का दर्द समझ सकता है, उसकी जगह ऐसे स्टोर में नहीं, समाज में है।”

मिस्टर गुप्ता ने अपनी जेब से एक लिफाफा निकाला। “यह तुम्हारी नई नौकरी का नियुक्ति पत्र है। मेरे फाउंडेशन में सामाजिक प्रभाव कार्यक्रम की डायरेक्टर के तौर पर, जहां तुम्हें वह सम्मान मिलेगा जिसके तुम हकदार हो।”

प्रिया के हाथ कांप रहे थे। “सर, मैंने तो ऐसा कुछ भी नहीं किया।”

“यही तो तुम्हारी खासियत है बेटी, कि तुमने इसे कुछ खास नहीं समझा। असली इंसानियत वही है जो बिना सोचे समझे की जाए।”

जिस दिन प्रिया ने गुप्ता फाउंडेशन ज्वाइन किया, उसी दोपहर गैलेरिया मॉल के हेड ऑफिस से एक जरूरी ईमेल पहुंचा। विषय था: कर्मचारी के साथ हुए दुर्व्यवहार और अपमानजनक निष्कासन के संबंध में। कुछ ही देर बाद स्टोर मैनेजर राजन मेहरा का फोन बजा।

दूसरी तरफ से आवाज आई, “मिस्टर मेहरा, हमें आपके स्टोर की एक पूर्व कर्मचारी प्रिया के निष्कासन के बारे में गुप्ता फाउंडेशन से एक रिपोर्ट मिली है। जिस लड़की को आपने बिना किसी जांच-पड़ताल के निकाला, वह अब उनके एक कार्यक्रम की डायरेक्टर है। कृपया इस पर सफाई दें कि आपने सार्वजनिक रूप से उसे अपमानित क्यों किया।”

राजन का चेहरा सफेद पड़ गया। उसे पहली बार एहसास हुआ कि नियमों की किताब के कुछ पन्ने इंसानियत से भी लिखे जाने चाहिए।

ठीक एक हफ्ते बाद प्रिया को उसी मॉल में एक सामाजिक कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया गया। जब वह स्टेज पर जा रही थी तो उसकी नजर काउंटर पर खड़े राजन मेहरा पर पड़ी, जिनकी आंखें शर्म से झुकी हुई थीं।

स्टेज पर पहुंचकर प्रिया ने माइक थामा और कहा, “मुझे किसी से कोई माफी या बदला नहीं चाहिए। मैं बस उम्मीद करती हूं कि अगली बार किसी को सिर्फ इसलिए नौकरी से ना निकाला जाए क्योंकि उसने इंसानियत को नियमों से ऊपर रखा। उस दिन मैंने उन बुजुर्ग में अपने माता-पिता को देखा था। अगर हमें दुनिया को बेहतर बनाना है तो बड़े-बड़े नियमों की नहीं, बल्कि छोटी-छोटी मानवीय संवेदनाओं की जरूरत है।”

पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।

कभी-कभी एक छोटा सा दिल और एक छोटा सा नेक काम दुनिया में सबसे बड़ा बदलाव लाने की ताकत रखता है।

समाप्त