भाई-बहन ने एक दूसरे के लिए सब कुछ कुर्बान किया, कई सालों के बाद जब वो दोनों मिले तो पूरा गांव रोने
“रिश्तों की नींव – सूरज और चंदा का अमर बलिदान”
भूमिका
बिहार के एक छोटे, पिछड़े और गुमनाम गाँव “रामपुर” में रिश्तों की असली परिभाषा लिखी जा रही थी। यहाँ ना पक्की सड़कें थीं, ना बिजली की 24 घंटे आपूर्ति, ना बड़े-बड़े स्कूल। लेकिन प्यार, अपनापन और त्याग की मिसालें हर कोने में बिखरी थीं। इसी गाँव के आखिरी छोर पर नदी के किनारे एक फूस की छत वाला कच्चा घर था – रामदीन का। उसकी दुनिया उसकी पत्नी शांति और दो बच्चे – 17 साल का बेटा सूरज और 15 साल की बेटी चंदा थे।
सूरज और चंदा – एक दूसरे की परछाई
सूरज और चंदा सिर्फ भाई-बहन नहीं, बल्कि एक-दूसरे की परछाई थे। बचपन से ही दोनों ने एक-दूसरे के सिवा किसी को अपना नहीं जाना था। एक ही थाली में खाना, एक ही चारपाई पर सोना, एक-दूसरे के सपनों को अपनी आँखों में जीना – यही उनकी दुनिया थी। दोनों पढ़ाई में होशियार थे, गाँव के स्कूल में हमेशा अव्वल आते थे। मास्टर जी अक्सर रामदीन से कहते – “तुम्हारे दोनों बच्चे हीरे हैं, इन्हें आगे बढ़ाना।”
रामदीन का सपना था कि उसके बच्चे बड़े अफसर बनें। सूरज इंजीनियर बनकर गाँव में पक्का पुल बनाना चाहता था, ताकि बारिश में गाँव का शहर से संपर्क ना टूटे। चंदा डॉक्टर बनकर गाँव की औरतों का इलाज करना चाहती थी, ताकि कोई भी इलाज के अभाव में ना मरे।
किस्मत का कहर और माँ-बाप का साया उठना
एक दिन गाँव में हैजे की महामारी फैली। अस्पताल दूर था, समय पर इलाज ना मिलने के कारण रामदीन और शांति दोनों चले गए। सूरज और चंदा अनाथ हो गए। अब एक-दूसरे के सिवा उनका कोई नहीं था। सूरज ने अपनी पढ़ाई छोड़ दी, खेतों में मजदूरी करने लगा ताकि चंदा की पढ़ाई जारी रह सके। चंदा ने जिले में टॉप किया, लेकिन आगे की पढ़ाई के लिए शहर जाना था – खर्च बहुत बड़ा था।
त्याग और बलिदान की शुरुआत
सूरज ने अपनी बहन के सपने के लिए गाँव के जमींदार ठाकुर से कर्ज लिया, शर्त थी – बंधुआ मजदूरी। सूरज ने अपनी आजादी गिरवी रख दी, चंदा को शहर भेज दिया। खुद भूखा रहकर, मजदूरी करके पैसे भेजता रहा। चंदा को खत में झूठ लिखता – “गाँव में दुकान खोल ली है, खुश हूँ।” चंदा भी जानती थी कि भाई बलिदान कर रहा है, लेकिन असलियत नहीं जानती थी।
चंदा ने मेडिकल कॉलेज में स्कॉलरशिप पर दाखिला लिया, लेकिन खर्च फिर भी बहुत था। सूरज ने माँ की नथनी बेचकर पैसे भेजे, फिर एक और झूठा खत लिखा – “मुंबई में फैक्ट्री में नौकरी मिल गई है।” चंदा ने भी जवाब में झूठ लिखा – “मेडिकल की पढ़ाई पूरी, अस्पताल में नर्स की नौकरी मिल गई है। अब मैं तुम्हें पैसे भेजूँगी।” असल में उसने पढ़ाई छोड़ दी थी, चौका-बर्तन और सिलाई का काम करने लगी थी।
बीस साल का लंबा संघर्ष
दोनों भाई-बहन हज़ारों मील दूर, एक-दूसरे के लिए अपने-अपने सपनों को कुर्बान कर रहे थे। सूरज ने शादी नहीं की, पूरी जवानी बहन के नाम कर दी। चंदा ने भी शादी नहीं की, भाई के नाम अपनी जिंदगी कर दी। सूरज समझता था – बहन बड़ी डॉक्टर है। चंदा समझती थी – भाई बड़ा बिजनेसमैन है। दोनों हर महीने काल्पनिक पते पर पैसे भेजते, यकीन के साथ कि दूसरे तक पहुँच रहे हैं।
सच का सामना – भावुक मिलन
एक दिन चंदा की सहेली ने बताया – “तेरा भाई गाँव में मजदूरी करता है।” चंदा का दिल टूट गया, सब समझ गई। उसी दिन गाँव जाने का फैसला किया। सूरज को भी खबर मिली – “बड़ी डॉक्टरनी गाँव आ रही है।” उसने गाँव में दावत रखी, बहन का स्वागत राजा की तरह करना चाहता था।
बस से उतरी चंदा – साधारण सी साड़ी, थकी हुई आँखें। सूरज ने पहचानने में वक्त लगा दिया। दोनों एक-दूसरे के गले लगकर फूट-फूट कर रो पड़े। गाँव वाले भी रोने लगे। दोनों ने एक-दूसरे को अपनी सच्ची दास्तान सुनाई – कैसे उन्होंने एक-दूसरे के लिए अपने सपनों को दफना दिया।
नई शुरुआत – सच्चा सुख
गाँव वालों ने उनकी झोपड़ी को घर बना दिया। चंदा ने सिलाई केंद्र खोला, सूरज उसकी मदद करने लगा। अब उनके सपने छोटे थे, लेकिन साथ थे – यही उनकी सबसे बड़ी दौलत थी।
सीख
यह कहानी सिखाती है – भाई-बहन का रिश्ता दुनिया का सबसे अनमोल और पवित्र रिश्ता है। सूरज और चंदा ने दिखाया कि त्याग और बलिदान किसी के सपनों को पूरा करने से भी बड़ा होता है। रिश्तों की असली नींव खून नहीं, बल्कि निस्वार्थ प्रेम और त्याग है।
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धन्यवाद!
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