भेष बदलकर पिता पहुँचा बेटे की कंपनी में चौकीदार बनकर… सच्चाई जानकर बेटा रो पड़ा

रामकिशन जी की कहानी: मिट्टी से महलों तक

यह कहानी है उस मिट्टी की जहां रामकिशन जी रहते थे। एक छोटा सा गांव, जहां उनकी दुनिया उनके बेटे विजय और पत्नी रमा देवी के इर्द-गिर्द घूमती थी। रामकिशन जी सीधे-साधे किसान थे, पर उनके सपने बहुत बड़े थे। उनका सारा जीवन, उनकी सारी जमा पूंजी बस एक ही जिद पर टिकी थी—उनका बेटा विजय बाबू बनेगा, बड़ा आदमी बनेगा।

विजय पढ़ने में बहुत तेज था। रामकिशन जी ने अपने हिस्से की खेती बेच दी, रमा देवी के गहने तक गिरवी रख दिए, पर विजय की किताबों में कभी कोई कमी नहीं आने दी। वह हमेशा कहते, “रमा, मेरी चिंता मत कर। मेरा बेटा मेरा बुढ़ापे की लाठी है। यह हमारा नाम रोशन करेगा।” रामकिशन जी ने धूप में पसीना बहाया ताकि विजय शहर की ऐसी कक्षाओं में बैठ सके, जहां कोई गांव वाला सोच भी नहीं सकता था।

उनकी मेहनत रंग लाई। विजय को शहर के सबसे बड़े इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला मिला और फिर जल्द ही एक मल्टीनेशनल कंपनी में अच्छी नौकरी भी मिल गई। सफलता की सीढ़ी विजय ने इतनी तेजी से चढ़ी कि उसे पीछे छूटे गांव और घर की परवाह ही नहीं रही। अब विजय मुंबई के आलीशान फ्लैट में रहता था। उसके पास पत्नी प्रिया थी और एक प्यारी सी बेटी मान्या। उसके गैराज में महंगी गाड़ियां खड़ी थीं। उसका सूट-बूट उसके नए शहर के रुतबे को दर्शाता था। उसके पास दुनिया की हर दौलत थी, सिवाय अपने माता-पिता के लिए समय और संवेदनशीलता के।

गांव में रामकिशन जी और रमा देवी अकेले पड़ गए थे। रामकिशन जी का शरीर अब खेती के लिए जवाब देने लगा था और रमा देवी को अक्सर बुखार रहता था। उन्हें दवाइयों की जरूरत थी, पर विजय को फुर्सत कहां थी? एक दिन रमा देवी की तबीयत ज्यादा बिगड़ी। रामकिशन जी ने कई बार विजय को फोन किया, पर वह या तो मीटिंग में होता या फिर फोन काटकर बाद में बात करने का वादा करता। एक शाम रामकिशन जी ने हिम्मत करके विजय को फोन लगाया। आवाज में कंपन थी—”बेटा, तेरी मां की तबीयत ठीक नहीं है। डॉक्टर को दिखाना है। थोड़े पैसे भेज दे, दवाइयां लानी हैं।”

विजय उस समय अपने दोस्तों के साथ एक रेस्टोरेंट में था। उसने झुंझलाहट में कहा, “बापू, मैं मीटिंग में हूं। मैं बाद में बात करता हूं।” फिर उसने फुसफुसाते हुए अपने दोस्त से कहा, “यह गांव का ड्रामा कभी खत्म नहीं होता।” विजय ने फोन काट दिया और वह बाद कभी आया ही नहीं।

यह मौन अपमान रामकिशन जी के दिल में गहरा घाव कर गया। उन्हें लगा कि उनकी सफलता ने उनके बेटे को उनसे छीन लिया है। उनकी गरीबी उनके बेटे की नई दुनिया के लिए शर्मिंदगी का कारण बन गई है। वह किसी भी हाल में विजय पर बोझ नहीं बनना चाहते थे।

रामकिशन जी ने पूरी रात जागकर एक कठिन फैसला लिया। उन्होंने रमा देवी से झूठ कहा कि वह कुछ दिनों के लिए तीर्थ यात्रा पर जा रहे हैं और चुपचाप मुंबई के लिए निकल गए। उनकी जेब में सिर्फ टूटे-फूटे नोटों की एक छोटी सी गड्डी थी, पर दिल में एक अटूट संकल्प था। वह जानते थे कि अगर वह सीधे विजय के पास गए तो उनका फटा कुर्ता और गांव की बोली विजय की नई दुनिया में सिर्फ शर्मिंदगी लाएगी। उनका एक ही मकसद था—चुपचाप खुद कमाना और उन पैसों से रमा देवी का इलाज कराना।

मुंबई पहुंचकर उन्होंने सबसे पहले विजय की कंपनी का पता लगाया। वह कंपनी जहां उनका बेटा एक बड़ा साहब बनकर बैठा था। कंपनी के गेट पर जाकर चौकीदार की नौकरी के लिए अर्जी दी। अपनी उम्र और गांव में थोड़ी बहुत चौकीदारी के अनुभव का हवाला दिया। कंपनी के सिक्योरिटी इंचार्ज ने उनकी दयनीय हालत देखकर और आधी-अधूरी जानकारी पर विश्वास करके उन्हें रात की ड्यूटी पर रख लिया।

रामकिशन जी के लिए यह नौकरी उनके बेटे के करीब रहने का एक जरिया थी। चौकीदार की वर्दी रामकिशन जी के पुराने कुर्ते से ज्यादा पुरानी थी, पर उसे पहनकर उन्हें संतोष मिला कि अब वह किसी के सामने हाथ नहीं फैलाएंगे। अब वह अपनी कमाई से रमा देवी का इलाज करा पाएंगे।

कपूर साहब की ड्यूटी रात की थी ताकि वह बेटे की नजरों से दूर रहें। रोज सुबह ठीक 9:00 बजे एक चमकदार महंगी गाड़ी गेट पर आती थी और कपूर साहब यानी रामकिशन जी सचेत हो जाते थे। वह गाड़ी विजय की होती थी। विजय सूट-बूट पहने, चश्मे के पीछे से दुनिया को देखता हुआ गेट से अंदर जाता था। कपूर साहब हर सुबह उठकर उस गाड़ी को सैल्यूट करते थे। उनकी आंखों में अपने बेटे की सफलता की चमक होती थी, पर विजय उन्हें कभी देखता भी नहीं था।

रामकिशन जी का दिल हर सुबह अपने बेटे को देखकर भर आता था, पर वह अपनी भावनाओं को वर्दी के पीछे छिपा लेते थे। उनकी आंखों में एक मौन प्रार्थना होती थी—”भगवान, मेरे बेटे को हमेशा खुश रखना, यही मेरी सफलता है।” यह सिलसिला कई महीनों तक चलता रहा। रामकिशन जी हर महीने अपनी छोटी सी तनख्वाह से कुछ पैसे रमा देवी को भेजते थे और रमा देवी को लगता था कि वह तीर्थ यात्रा में दान दक्षिणा दे रहे हैं।

एक दिन रामकिशन जी की आंखें खुली रह गईं जब उन्होंने कंपनी के नोटिस बोर्ड पर विजय की एक बड़ी तस्वीर देखी, जिसमें उसे साल के सर्वश्रेष्ठ युवा प्रबंधक का पुरस्कार मिला था। रामकिशन जी की आंखों से खुशी के आंसू छलक पड़े। उनका सीना गर्व से फूल गया, पर किसी को पता नहीं चला कि वह फटे कपड़ों में खड़ा चौकीदार इस सफल इंसान का पिता है।

इस बीच रामकिशन जी ने एक छोटी सी घटना पर भी ध्यान दिया। विजय अक्सर रात को देर से निकलता था और वह बहुत थका हुआ दिखता था। उसकी आंखों के नीचे काले घेरे थे। रामकिशन जी का पिता का मन चिंतित हो जाता था। वह चाहते थे कि बेटे को गर्म दूध दें, उसकी पीठ सहलाएं, पर वह मजबूर थे।

एक रात तेजी से बारिश हो रही थी। कपूर साहब गेट पर खड़े थे। कंपनी के अंदर विजय के जन्मदिन की बड़ी पार्टी चल रही थी। कपूर साहब ने देखा कि विजय कितनी खुशी से अपने दोस्तों और अधिकारियों के बीच खड़ा है। वह अपनी जेब में हाथ डालते हैं, जहां उन्होंने विजय के लिए एक पुराना छोटा सा पीतल का पेन रखा था, जो विजय की पहली परीक्षा में काम आया था। वह सोचते हैं कि जाकर अपने बेटे को यह पेन दे दें और उसे गले लगा लें, पर तुरंत उनका हाथ रुक जाता है। उन्हें याद आता है उनकी गांव की वेशभूषा, उनकी फटी वर्दी और बेटे की नई दुनिया। वह नहीं चाहते थे कि विजय को उनके कारण एक पल की भी शर्मिंदगी हो।

पूरी रात वह गेट पर खड़े रहे और अपने बेटे की खुशी देखते रहे। पार्टी खत्म हुई, सभी चले गए। विजय अपनी पत्नी प्रिया के साथ गाड़ी में बैठा और जाते-जाते उसने एक बार गेट पर खड़े उस बूढ़े चौकीदार को देखा, पर फिर तुरंत अपना ध्यान हटा लिया। कपूर साहब ने एक ठंडी आह भरी। वह जानते थे कि उन्होंने जो रास्ता चुना है, उसमें उनका प्यार हमेशा अनजाना ही रहेगा। पर बेटे की सफलता ही उनका सच्चा इनाम थी।

कंपनी के बाहर जहां उनका टी ब्रेक होता था, वहां वह अक्सर विजय के बचपन की कहानियां याद करके गुनगुनाते थे। वह जो खाना बनाते थे, वह हमेशा विजय के पसंदीदा व्यंजनों जैसा होता था ताकि अगर कभी गलती से विजय कैंटीन में आ जाए तो उसे घर के खाने की याद आ जाए। एक बार कंपनी की कैंटीन का एक लड़का उनकी चौकी पर आया और बोला, “कपूर साहब, आप इतना बढ़िया खाना कहां से लाते हैं? यह तो बिल्कुल घर जैसा स्वाद है।” रामकिशन जी मुस्कुराए और कहा, “बेटा, यह घर का खाना नहीं है। यह तो बेटे के लिए मां के प्यार से बना हुआ खाना है।”

वह जानते थे कि उनका काम सिर्फ चौकीदारी नहीं है, बल्कि यह अपने बेटे के लिए एक अदृश्य सुरक्षा कवच बनाना है।

इस बीच रामकिशन जी उसी रात पूरी रात चौकी में बैठे रहे और उनकी आंखें नम थीं। उन्होंने अपने आप से कहा, “मेरा बेटा सफल है, पर कितना अकेला है कि एक चौकीदार भी उसे अपना लग रहा है।”

अगले दिन सुबह तेजी से बारिश हो रही थी। रामकिशन जी रात की ड्यूटी करके निकलने वाले थे। तभी उन्होंने देखा कि विजय की चमकदार गाड़ी तेजी से आई और गेट के पास अचानक फिसल गई। गाड़ी एक खंभे से टकराई और शीशे पर हल्की दरार आ गई। विजय को हल्की चोट आई थी और वह दर्द से कराह रहा था।

कपूर साहब एक पल के लिए भूल गए कि वह चौकीदार हैं। उनकी आंखों में केवल एक पिता की घबराहट थी। उन्होंने बारिश में भीगते हुए भागे और विजय को सहारा देकर अपनी छोटी सी चौकी में ले आए। रामकिशन जी ने तुरंत अपनी जेब से बाम निकालकर विजय के माथे पर लगाया और फटे किनारे से पानी पोंछा। विजय ने दर्द में आंखें खोली और पहली बार उस चौकीदार की तरफ देखा, जिसकी सेवा में एक अनजाना अपनापन था। विजय ने उन्हें “थैंक यू अंकल” कहा था और पैसे देने चाहे थे, पर रामकिशन जी ने यह कहकर मना कर दिया, “नहीं बेटा, यह मेरा फर्ज था।”

विजय दुर्घटना के बाद से उस बूढ़े चौकीदार के बारे में सोचना बंद नहीं कर पाया था। उस सेवा ने उसके मन में एक अनजानी गर्माहट भर दी थी। वह सोचने लगा था कि क्या रिश्तों की गर्माहट सिर्फ घर में ही होती है या बाहर की दुनिया में भी कोई अनजाना इंसान इतना अपना हो सकता है।

विजय ने कई बार उस चौकीदार को ढूंढने का प्रयास किया, पर रात की ड्यूटी होने के कारण वह उससे मिल नहीं पाया। काम के दबाव और व्यस्तता में वह उस घटना को धीरे-धीरे भूलने लगा था, पर उसके दिल के किसी कोने में उस बूढ़े चेहरे की चिंता अभी भी थी।

उधर रामकिशन जी हर दिन की तरह अपनी ड्यूटी कर रहे थे, पर उनके दिल में जो बेचैनी थी, वह अब डर में बदल चुकी थी। उन्हें कई दिनों से रमा देवी का कोई जवाब नहीं मिला था। गांव से कोई फोन नहीं आ रहा था और उनके भेजे गए पैसों की रसीद भी वापस नहीं आई थी। पिता का मन अनहोनी की आशंका से लगातार डरा रहा था।

एक दिन शाम को विजय अपनी मीटिंग खत्म करके घर जा रहा था। वह जैसे ही अपनी गाड़ी में बैठा, उसके फोन की घंटी बजी। स्क्रीन पर गांव के पुराने पड़ोसी का नाम देखकर उसे कुछ अजीब लगा। उसने फोन उठाया तो आवाज कांप रही थी—”बेटा विजय जल्दी गांव आ जाओ। तुम्हारी मां की तबीयत बहुत ज्यादा बिगड़ गई है। डॉक्टर ने हाथ खड़े कर दिए हैं। अब वह अंतिम सांसें ले रही हैं।”

विजय के हाथ से फोन छूट गया। उसके पैरों तले जमीन खिसक गई। मां की तबीयत खराब होने की बात तो उसे याद थी, पर उसने कभी सोचा नहीं था कि बात इतनी बढ़ जाएगी। जिस बेटे ने अपने माता-पिता के लिए कभी 1 मिनट नहीं निकाला था, आज उसी बेटे का हृदय उस भयानक खबर से टूट गया। उसने अपनी पत्नी प्रिया को बताया और दोनों तुरंत बिना कुछ सोचे समझे गांव के लिए निकल पड़े।

गांव पहुंचकर उन्होंने देखा कि रमा देवी बिस्तर पर लेटी थी। आंखें लगभग बंद थीं, पर जैसे ही उन्होंने विजय को देखा, उनकी आंखों में एक चमक आ गई। विजय उनके पास गया और घुटनों के बल बैठ गया। “मां, मुझे माफ कर दो। मैंने आपको अनदेखा किया।” रमा देवी ने धीरे से विजय का हाथ थामा और बहुत ही धीमी आवाज में कहा, “बेटा, तू रो मत। तू तो मेरा शेर है। तूने मेरा नाम रोशन किया।”

रमा देवी की आवाज में दर्द नहीं बल्कि एक गहरा संतोष था। उन्होंने अंतिम सांस लेने से पहले विजय से पूछा, “बेटा, तुम्हारे बापू कहां हैं? वह तीर्थ यात्रा पर गए थे ना? वह अभी तक नहीं आए।” तभी रमा देवी ने अपने तकिए के नीचे से एक मुड़ा हुआ कागज निकाला और विजय को थमा दिया। वह कागज रामकिशन जी का एक पुराना पत्र था, जिसमें उन्होंने अपनी पूरी कहानी लिखी थी। रमा को संबोधित करते हुए लिखा था—

“रमा, मैं तुमसे झूठ बोलकर तीर्थ यात्रा पर नहीं गया था। मैं मुंबई गया हूं तेरे इलाज के लिए पैसे कमाने। तेरे बेटे की कंपनी में मैंने चौकीदार की नौकरी कर ली है। मैंने अपना नाम कपूर रख लिया है। मैं नहीं चाहता था कि तू और विजय मेरी गरीबी से शर्मिंदा हो। मैं चाहता हूं कि तू ठीक हो जाए और तेरा बेटा हमेशा खुश रहे। मेरी सफलता अब उसकी सफलता में है।”

पत्र की आखिरी लाइन में सिर्फ एक वाक्य था—”मुझे माफ करना रमा। मैं थक गया हूं, पर मुझे अपने बेटे पर गर्व है।”

विजय के हाथ से वह पत्र जमीन पर गिर गया। उसकी आंखें फटी रह गईं। उसे तुरंत उस बूढ़े चौकीदार कपूर का चेहरा याद आया, जिसे उसने कुछ दिन पहले दुर्घटना के बाद देखा था, जिसकी आंखें हमेशा उदास रहती थीं, जिसकी सेवा में एक अनजाना अपनापन था, जिसकी चोट पर उसने दवाई लगाई थी।

विजय जोर-जोर से चिल्ला कर रो पड़ा। वह सिर्फ रो नहीं रहा था, वह पश्चाताप कर रहा था। वह चिल्ला रहा था—”बापू आप यहां, मैं कितना अभागा हूं, मैं कितना स्वार्थी हूं। मैंने दौलत कमा ली, पर इंसानियत खो दी।”

उसने तुरंत प्रिया को उठाया और बिना मां के अंतिम संस्कार की परवाह किए, मुंबई की तरफ भाग गया। उसे अपने पिता को खोजना था, उन्हें गले लगाना था, इससे पहले कि बहुत देर हो जाए।

विजय घुटनों के बल कपूर साहब के सामने बैठ गया और उनके फटे हुए जूते पकड़ लिए। उसकी आवाज रंध गई थी—”बापू आप यहां, मैं आपका बेटा विजय, बापू मुझे माफ कर दो। मैं अंधा हो गया था। मेरी सफलता ने मेरे दिल को पत्थर बना दिया था। मैंने आपको नहीं पहचाना। मैं कितना अभागा हूं। आपने मेरी जान बचाई और मैंने आपको एक नौकर समझा।”

रामकिशन जी यानी कपूर साहब ने जब अपने बेटे की आवाज सुनी तो उनकी आंखें भर आईं। उनकी भावनाओं का बांध टूट गया। उन्होंने विजय को उठाया और कसकर गले लगा लिया। वर्षों बाद पिता-पुत्र का यह आलिंगन सिर्फ दो शरीरों का मिलन नहीं था, यह अहंकार और प्रेम के बीच की दूरी का मिटना था। यह था त्याग और समर्पण की जीत।

रामकिशन जी ने आंखों के आंसू पोंछते हुए कहा, “बेटा, तू रो मत। तू तो मेरा शेर है। मैंने जो किया वह मेरा फर्ज था। मैं तो सिर्फ यह चाहता था कि तेरी मां ठीक हो जाए और तुझे कभी मेरी गरीबी से शर्मिंदगी ना हो। मुझे इस वर्दी पर भी गर्व है क्योंकि इसने मुझे तेरे पास रखा।”

यह सुनते ही विजय जोर-जोर से रोने लगा। प्रिया भी उनके पास खड़ी थी। वह भी अपने ससुर के त्याग के सामने नतमस्तक थी। विजय ने उसी क्षण फैसला लिया। उसने तुरंत अपने पिता को अपने आलीशान घर ले जाने की जिद की और अगले ही दिन उसने कंपनी के सभी कर्मचारियों और बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स की मीटिंग बुलाई।

विजय ने सबके सामने अपने पिता का परिचय करवाया। उसने सबके सामने रामकिशन जी का चौकीदार वाला यूनिफार्म उतारा और उन्हें सम्मान के साथ खड़ा किया। उसने भरे गले से कहा—”यह सिर्फ मेरे पिता नहीं हैं, यह मेरी प्रेरणा हैं। जिन्होंने मेरी सफलता के लिए अपना नाम, अपनी पहचान सब कुर्बान कर दिया। मैंने दौलत की ऊंचाई पर पहुंचकर रिश्तों की नींव को खो दिया था, पर मेरे पिता ने चौकीदार बनकर मुझे सिखाया कि असली सफलता दौलत या शोहरत नहीं है, बल्कि वह हाथ है जो तुम्हें बचपन में थामता है।”

विजय ने उस दिन अपने जीवन का सबसे बड़ा सच समझा और रामकिशन जी को उसी कंपनी में चीफ ऑफ एथिक्स एंड वेलफेयर का पद दिया, जिसका काम था कंपनी के सभी कर्मचारियों और उनके परिवारों की देखभाल करना।

विजय ने तुरंत अपनी मां के अंतिम संस्कार की सारी व्यवस्था गांव से की और अपने पिता को साथ लेकर गया। बाद में उसने रामकिशन जी और रमा देवी के नाम पर एक विशाल चैरिटेबल ट्रस्ट खोला, जिसका नाम रखा “रामकिशन सहारा ट्रस्ट”। इस ट्रस्ट का काम उन सभी माता-पिता को सहारा देना था, जिन्हें उनके बच्चों ने अकेला छोड़ दिया था।

रामकिशन जी ने कहा, “बेटा, अब मैं आराम नहीं करूंगा। मैं इन बच्चों को सिखाऊंगा कि माता-पिता का मान कैसे रखा जाता है।”

विजय ने उस दिन अपने पिता के चरणों में सिर रखकर कसम खाई कि वह कभी भी रिश्तों को काम से ऊपर नहीं रखेगा।

यह कहानी सिर्फ एक बेटे के पश्चाताप की नहीं थी। यह हर उस इंसान के लिए एक सीख थी, जो सफलता की दौड़ में रिश्तों को पीछे छोड़ देता है। पिता का वह निस्वार्थ प्रेम और बलिदान प्रेरणादायक था। यह कहानी बताती है कि सच्चा प्यार कभी उम्मीद नहीं रखता, वह बस देता जाता है और असली सफलता दौलत नहीं, बल्कि दिलों का मिलन है।

अंतिम संवाद:
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