मजबूर माँ-बेटी ने बस थोड़ी-सी मदद मांगी थी, ठेलेवाले ने जो किया… इंसानियत हिल गई |
जिंदगी उसी को ज्यादा आजमाती है जो अंदर से मजबूत होता है। वरना कमजोर तो भीड़ में ही खो जाते हैं।
बिहार के गया जिले के एक भीड़भाड़ वाले चौराहे पर लकड़ी का बना छोटा सा ठेला खड़ा था। ठेले पर एक कढ़ाई में समोसे तल रहे थे, बगल में स्टील का बड़ा थाल जिसमें गरमा-गरम समोसे सजे थे। दो-तीन ग्राहक पास ही लकड़ी की बेंच पर बैठकर समोसे खा रहे थे। ठेले के पीछे खड़ा था एक नौजवान—रवि, उम्र कोई 33 साल। साधारण कपड़े, लेकिन आंखों में अजीब सी गरिमा, जैसे जिंदगी ने बहुत कुछ सिखाया हो लेकिन कुछ छीन न पाया हो।
तभी एक नन्हा सा हाथ सामने आया—“भैया, एक समोसा मिल जाएगा?”
रवि ने चौंक कर नीचे देखा। उसके सामने एक पांच साल की बच्ची खड़ी थी। धूल से सने कपड़े, उलझे बाल, और चेहरा जैसे भूख से सूखा हुआ। रवि ने कुछ नहीं पूछा। बस झुक कर समोसे वाला चिमटा उठाया, एक गर्म समोसा पेपर में लपेटकर उसके हाथ में दे दिया।
तभी पीछे से आवाज आई—“रुको बेटा, समोसा मत लो। हम मांगने वाले नहीं हैं।”
वो एक महिला थी, करीब 28 साल की। चेहरे पर थकान, पर आत्मसम्मान की लकीरें अब भी बची थीं। उसकी साड़ी जगह-जगह से फटी थी, लेकिन चाल में संकोच भरी गरिमा थी। वह बच्ची का हाथ पकड़ कर बोली—“माफ कीजिए, बच्ची भूखी थी। दो दिन से कुछ नहीं खाया। लेकिन हम भीख नहीं मांगते।”
रवि उसकी आंखों में देखता रहा। वह आंखें झुकी हुई थीं, पर उनमें शर्म से ज्यादा मजबूरी थी। वह एक मां थी, भूख से टूटती जा रही थी, लेकिन खुद से समझौता नहीं कर रही थी।
रवि ने धीरे से कहा—“यह भीख नहीं है, यह एक भूखी मां-बेटी के लिए इंसान का फर्ज है। बैठिए ना, आप भी खाइए। आज पेट भर लीजिए, कल की फिर देखेंगे।”
महिला के चेहरे पर आंसू आ गए। वो कुछ बोल नहीं पाई, बस अपनी बेटी को देखकर धीरे से बेंच पर बैठ गई। रवि ने चुपचाप एक और समोसा निकालकर उसके सामने रख दिया। बच्ची जैसे पहली बार मुस्कुराई थी और मां सुनीता जैसे पहली बार टूटी नहीं थी, बस पिघल गई थी।
पास खड़े एक ग्राहक ने भी सर हिलाकर कहा—“आज भी ऐसे लोग हैं, तभी दुनिया टिकी है।”
रवि बस चुपचाप मुस्कुरा रहा था, जैसे यह उसका रोज का कर्म हो।
समोसा खाकर बच्ची की आंखों में जो चमक लौटी थी, वही चमक रवि की आंखों को भी गीला कर रही थी। रवि अब अपने ठेले के किनारे बैठ चुका था और मां-बेटी बेंच पर। थोड़ी देर तक तीनों के बीच चुप्पी थी, लेकिन वो चुप्पी बोझल नहीं थी, बस इंसानियत की थकावट से भरी थी।
रवि ने धीरे से पूछा—“आपका नाम?”
महिला ने गर्दन झुका ली। कुछ पल बाद उसने धीरे से कहा—“सुनीता।”
रवि ने फिर पूछा—“कहां से हो?”
सुनीता ने धीरे से कहा—“गया से, लेकिन अब कहीं की नहीं रही।”
उसके चेहरे पर एक फीकी सी मुस्कान तैर गई और रवि समझ गया, इस मुस्कान के पीछे कोई गहरा तूफान है।
“कुछ दिन पहले ही आई हूं यहां। और यह मेरी बेटी है—अनवी।”
रवि ने बच्ची की ओर देखा, जो अब तक आधा समोसा खाकर चुपचाप मां के पास में बैठी थी। फिर सुनीता की आंखें भीगने लगीं। उसने बोला नहीं, मानो अब उसकी बातों को आवाज की जरूरत नहीं थी।
रवि ने फिर भी पूछा—“अगर बताना चाहो तो कह सकती हो, क्या हुआ?”
सुनीता की आंखों में पीछे की दुनिया लौट आई। उसकी आवाज थरथराई—“पति का देहांत हो गया। बीमारी थी। पहले ही से घर में ताने मिलते थे। लेकिन उसके बाद सब ने कह दिया—अब तुम इस घर पर बोझ हो, तुम्हारी जगह यहां नहीं है। और ससुराल वालों ने कुछ दिन बाद घर से निकाल दिया।”
रवि के चेहरे से हंसी गायब हो गई, लेकिन हल्के स्वर में पूछा—“कहां गई थी उसके बाद?”
सुनीता ने कहा—“कुछ दिन एक पड़ोसन के घर रुकी, फिर बेटी को लेकर यहां आ गई। सोच रही थी कि कहीं काम मिल जाए, लेकिन खाने को भी नहीं था।”
रवि कुछ देर तक उसे देखता रहा। सुनीता की साड़ी के किनारे से आंसू टपक रहे थे। बेटी अब भी चुप थी, शायद मां की आंखों में बहती कहानी को महसूस कर रही थी।
“क्या अब ऐसे ही गुजर-बसर कर रही हो?”
सुनीता ने सिर झुका लिया और अपनी बेटी की तरफ देखकर फफक पड़ी—बिना शोर के, बस आंखों से बहते आंसू और कांपती उंगलियां।
रवि ने चुपचाप एक और समोसा उसके सामने रख दिया। जिंदगी में कभी-कभी हम खुद को हारा हुआ समझ लेते हैं, लेकिन शायद वही मोड़ शुरुआत भी होती है।
सुनीता ने उसकी आंखों में देखा। रवि के शब्दों में कोई दया नहीं थी, बस इंसानियत थी, भरोसा था।
रवि ने ठेले के बगल में बने अपने छोटे से तंबू जैसी झोपड़ी की ओर इशारा किया—“वो मेरा नहीं है, लेकिन मैंने बनाया है और अब से उसमें तुम रह सकती हो।”
सुनीता चौंक गई—“नहीं, मैं बोझ नहीं बनना चाहती।”
रवि मुस्कुराया—“तुम बोझ नहीं हो, भूख, मजबूरी और अकेलापन बोझ होता है, इंसान नहीं।”
सुनीता कुछ देर तक उसे देखती रही। शायद ऐसा कोई शब्द उसने बरसों से नहीं सुना था। झुग्गी बहुत साधारण थी—चार बांस, एक प्लास्टिक की चादर और एक पुरानी खाट। लेकिन सुनीता की आंखों में वह किसी महल से कम नहीं लगा, क्योंकि वहां पहली बार किसी ने उसे अपनी मर्जी से रहने की इजाजत दी थी—बिना ताने, बिना शर्त।
अनवी तो मानो जैसे किसी खेलघर में आ गई हो। वो चारों तरफ दौड़ने लगी, एक टूटी बाल्टी से खेलते हुए हंसने लगी।
रवि ने एक कोने में रखा पुराना डिब्बा उठाया—उसमें दो कंबल और कुछ सूखे कपड़े थे। “यह भी रख लो, कुछ दिन काम का हो सकता है।”
सुनीता अब खुद को रोक नहीं पाई। उसने धीरे से पूछा—“तुम मुझे जानते भी नहीं, फिर इतनी मदद क्यों?”
रवि की आंखों में एक गहराई थी—“शायद इसलिए, क्योंकि मुझे खुद भी किसी की मदद की जरूरत थी। और जब इंसान दूसरों की मदद करता है, तो वह खुद भी थोड़ा हल्का हो जाता है।”
चुप्पी फिर गहराने लगी, लेकिन अब वो चुप्पी बोझ नहीं, सहारे की चुप्पी थी।
नई शुरुआत
अगले दिन सुबह जब रवि समोसे तल रहा था, तो सुनीता झुग्गी से बाहर निकली। बाल बंधे हुए, चेहरे पर वही सादगी, लेकिन आंखों में एक नई चमक।
“कुछ काम दे सकते हो?”
रवि ने उसकी ओर देखा।
“जलेबी बनाना आता है?”
सुनीता की आंखों में हल्की मुस्कान उभरी—“पूरा मोहल्ला खाता था मेरे हाथ की जलेबी।”
रवि ने मुस्कुराते हुए कढ़ाई में से समोसे निकाले—“तो आज से मेरी दुकान पर सबसे पहली मिठास तुम्हारे हाथ की जलेबी होगी।”
सुनीता के हाथ कांप रहे थे, लेकिन यह डर नहीं था, यह एक नई शुरुआत की थरथराहट थी।
अगली सुबह रवि ने अपने ठेले के बाईं तरफ एक छोटी सी जगह खाली की। वहां उसने एक पुरानी सी कढ़ाई और गैस स्टोव रख दिया—“यह तुम्हारी रसोई है, सुनीता। यहां से मिठास की शुरुआत होगी।”
सुनीता ने झिझकते हुए अपना दुपट्टा ठीक किया, फिर हाथ धोए और काम में लग गई। पहली बार जब उसने आटे में बेसन मिलाया, शक्कर की चाशनी तैयार की और जलेबी के घेरे कढ़ाई में डाले, तो उस महक ने खुद रवि को रुकने पर मजबूर कर दिया। खुशबू में कुछ अलग था, जैसे किसी औरत के हाथ की पहली रसोई या फिर किसी भूखे पेट को मिला पहला सम्मान।
ठेले के पास कुछ स्कूल के बच्चे जमा हो गए। एक लड़का बोला—“अरे भैया, समोसा तो रोज खाते हैं, आज यह जलेबी भी दो।”
रवि मुस्कुराया—“आज से यह हमारी मिठास वाली आंटी की खास जलेबी है।”
सुनीता थोड़ा शरमाई, लेकिन उसकी आंखें चमक उठीं। पहली बार उसे लगा कि वह कोई बोझ नहीं है, वह किसी की जरूरत है।
धीरे-धीरे मोहल्ले में बात फैलने लगी—रवि की दुकान पर अब जलेबी भी मिलती है और वैसी जैसी नानी के घर मिलती थी। महिलाएं अपने बच्चों को लेकर आने लगीं। पुराने ग्राहक अब दो समोसे के साथ दो जलेबियां भी मांगने लगे।
रवि ने एक दिन पूछा—“तुम्हारे हाथ में इतना स्वाद कैसे है?”
सुनीता की आंखों में हल्का दर्द उभरा—“जब पति जिंदा थे, उनका सपना था कि हम मिलकर एक छोटी सी दुकान खोलें। मैं जलेबी बनाऊं, वो बेचे। लेकिन किस्मत ने उनका साथ नहीं दिया। अब लगता है शायद यह सपना किसी और रूप में पूरा हो रहा है।”
रवि कुछ नहीं बोला, बस एक नजर सुनीता पर डाली। उस नजर में सम्मान था, अपनापन था और शायद एक उम्मीद भी।
रात होते-होते ठेले का सारा सामान बिक चुका था। रवि ने पैसे गिने और सुनीता की ओर बढ़ाए—“यह आज की कमाई में तुम्हारा हिस्सा।”
सुनीता ने इंकार कर दिया—“मैंने बस मदद की है।”
रवि मुस्कुराया—“मदद नहीं, मेहनत की है और मेहनत का हक कभी चुपचाप नहीं लेना चाहिए, उसे गर्व से लेना चाहिए।”
सुनीता के हाथ काम पे थे, लेकिन इस बार उसमें कमजोरी नहीं, सम्मान की ताकत थी।
अब ठेले के एक कोने में हर सुबह मीठी जलेबियों की महक और गर्म समोसों की खुशबू एक साथ उठती। सुनीता अब हर सुबह सबसे पहले आकर अपने हाथों से चूल्हा जलाती, चाशनी बनाती और फिर धीरे-धीरे अपने जीवन को भी फिर से सवारने लगी।
अनवी—वही छोटी बच्ची जो कुछ दिन पहले भूख से रोती थी, अब रोज सुबह अपनी मां के साथ दुकान पर आती, और वहां मौजूद होती उस हर मिठास के पल में। वो खेलती रहती, खिलखिलाती, कभी खुद जलेबी बनाने की जिद करती, कभी समोसे गिनती, कभी ठेले पर आए ग्राहकों से बात करने लगती।
रवि जब भी उसे देखता, तो उसे यह दुनिया थोड़ी साफ, थोड़ी मासूम लगने लगती।
रिश्तों की मिठास
एक दिन ठेले पर बहुत भीड़ थी। सुनीता चूल्हे पर थी और रवि समोसे दे रहा था। उसी बीच अनवी ने धीरे से रवि की धोती पकड़ ली।
रवि झुका—“क्या हुआ, छोटी रानी?”
अनवी ने धीमे से पूछा—“आप मेरी मम्मी से शादी करोगे?”
रवि चौंक गया, फिर हंसते हुए बोला—“अरे, यह तो बड़ा सवाल है। क्यों पूछ रही हो?”
अनवी ने बहुत मासूमियत से कहा—“क्योंकि आप मम्मी को खुश रखते हो। मम्मी अब रोती नहीं। और जब आप होते हो तो मुझे डर नहीं लगता।”
रवि कुछ पल खामोश रहा। वह शब्द नहीं, अनवी की आंखें देख रहा था, जो उसे किसी और दुनिया में ले गई। एक ऐसी दुनिया में जहां वो खुद भी कभी अकेला था, जहां उसकी मां उसे रोज मेहनत से पालती थी, जहां उसके भी सपने थे एक परिवार के, एक अपनी दुनिया के।
उस दिन जब दुकान बंद हुई, तो रवि ने सुनीता से कहा—“तुमने अनवी को बहुत अच्छे संस्कार दिए हैं।”
सुनीता मुस्कुराई—“बस कोशिश की है, उस जैसे किसी बच्चे को फिर कभी भूखा ना रहना पड़े, यही सपना है।”
रवि कुछ नहीं बोला। उसने ठेले के बर्तन समेटे, फिर एक डिब्बे में दो जलेबी रखकर अनवी को दी—“पापा से पूछना मत, यह तुम्हारे हैं।”
अनवी खिलखिलाई। और पहली बार ‘पापा’ जैसे शब्द हवा में तैर गया।
सुनीता ने यह सुना, पर कुछ नहीं कहा। उसकी आंखें भीगीं, पर वो आंसू गम के नहीं थे, वो उम्मीद के थे, अपनापन के थे, शायद आने वाले किसी नए रिश्ते के थे।
समाज की कसौटी
एक सुबह जब ठेले की भीड़ कम थी, रवि ने सुनीता से कहा—“आज दुकान जल्दी बंद कर देंगे। पास के मंदिर में अनाथ बच्चों के लिए भंडारा है, चलोगी?”
सुनीता ने तुरंत हां कर दी। वह अब धीरे-धीरे जिंदगी की उन गलियों में लौट रही थी, जहां भरोसा था, सुरक्षा थी, और किसी का साथ था—बिना शर्त।
रवि की ये बातें अब मोहल्ले के लोगों तक भी पहुंचने लगी थीं। कुछ की आंखों में समझदारी थी, तो कुछ की जुबान पर जहर।
एक दिन जब सुनीता दुकान साफ कर रही थी, तो पास की चाय वाली औरत ने धीरे से कहा—“बहन, संभल के रहो, लोग बातें कर रहे हैं।”
सुनीता चौकी—“कौन लोग?”
“यही आस-पड़ोस वाले। कहते हैं विधवा हो, बच्ची साथ है, और अब अकेले मर्द के साथ ठेले पर हो, दुनिया सवाल तो उठाएगी ना।”
सुनीता चुप रही, पर दिल का काम गया। उसने अपना दुपट्टा और कसकर बांध लिया, जैसे शर्म उसे छू भी ना पाए।
शाम को रवि दुकान पर आया, तो देखा सुनीता अलग बैठी थी, आंखों में परेशानी और चेहरे पर बोझ।
“क्या हुआ?”
सुनीता ने थोड़ी देर चुप रहने के बाद कहा—“रवि जी, अगर आपको लगे कि मेरी वजह से आपकी इज्जत पर बात आ रही है, तो मैं कल से ना आऊं दुकान पर।”
रवि का चेहरा सख्त हो गया, लेकिन आंखें वही थीं जो इंसान की गहराई को पढ़ लेती हैं।
“सुनीता, क्या तुम्हें कभी लगा कि मेरी नियत ठीक नहीं थी?”
“नहीं।” सुनीता ने तुरंत जवाब दिया।
“तो फिर उनकी बातों से क्यों डरती हो, जो हमें जानते ही नहीं?”
रवि ने आगे कहा—“जिस समाज को किसी भूखी बच्ची को समोसा देते वक्त इंसानियत नहीं दिखी, उसी समाज को हम क्यों जवाब दें? तुमने मेरी दुकान नहीं, मेरी जिंदगी को संभाला है सुनीता। अब अगर कोई उंगली उठाए, तो जवाब मैं दूंगा।”
सुनीता की आंखें भर आईं। यह वह जवाब था जिसने उसे फिर से सिर उठाकर जीना सिखाया।
अगले ही दिन रवि ने ठेले पर एक नया बोर्ड लगवाया—
रवि, सुनीता, जलेबी-समोसा स्टॉल
और नीचे—
यहां स्वाद से ज्यादा इंसानियत परोसी जाती है।
अब मोहल्ले वालों की आंखों में सवाल नहीं, हैरानी थी। क्योंकि जवाब उन्होंने नहीं, इंसानियत ने दिया था।
रवि के लगाए उस बोर्ड ने मोहल्ले में हलचल तो मचा दी थी, लेकिन अब हर कोई चुप था। क्योंकि रवि के फैसले में कोई दिखावा नहीं, बल्कि एक सच्चे दिल की गूंज थी।
नई जिंदगी, नया रिश्ता
सुनीता अब पहले से ज्यादा हिम्मती हो चुकी थी। लेकिन उसकी आंखों में अब भी एक डर था—कहीं यह सब किसी दिन टूट न जाए।
एक रात ठेला बंद करने के बाद, रवि ने सुनीता और अनवी को बगल के बेंच पर बैठने को कहा। हल्की रोशनी में जलेबी की खुशबू अभी भी हवा में तैर रही थी।
रवि ने जेब से एक सिंपल सी अंगूठी निकाली। कोई फिल्मी सीन नहीं था, ना ही कोई घुटनों के बल प्रपोज करने वाला नजारा।
बस एक आम लड़का और एक टूटी लेकिन मजबूत औरत।
रवि बोला—“सुनीता, जब तू पहली बार ठेले के पास आई थी, तेरी आंखों में भूख नहीं, आत्मसम्मान देखा था। और जब तूने समोसे के बदले मुस्कान दी थी तो मैं समझ गया था, इससे बड़ी दौलत कोई नहीं। मैं बहुत बड़ा आदमी नहीं हूं, लेकिन जो भी हूं उसमें तुम्हारे लिए जगह है। क्या तू मेरी जिंदगी की पार्टनर बनेगी?”
सुनीता की आंखें भर आईं। काफी देर तक कुछ नहीं बोली, फिर अनवी की तरफ देखा, जो उस समय जलेबी खाते हुए मुस्कुरा रही थी।
सुनीता ने आंखें पोछीं और बोली—“रवि जी, मुझे अब डर नहीं लगता, क्योंकि मुझे अब कोई ठुकराने वाला नहीं, बल्कि अपनाने वाला मिल गया है।”
रवि ने हंसते हुए अंगूठी उसके हाथ में पहनाई। यह देखकर अनवी खुशी से तालियां बजने लगी। रवि और सुनीता की आंखें नम हो गईं।
अगले रविवार एक छोटा सा मंदिर, कुछ पास के लोग और समाज की परवाह किए बिना एक साधारण सी शादी हो गई। अब मोहल्ले में कोई उसे बेघर औरत नहीं कहता, बल्कि ‘भाभी जी’ कहता है।
रवि और सुनीता की दुकान अब दोगुनी चलती है—जलेबी और समोसे से ज्यादा, अब वहां इज्जत और प्यार बिकता है।
अनवी अब स्कूल भी जाती है। और जब कोई उससे पूछता है—“तुम्हारे पापा कौन हैं?”
तो वह मुस्कुरा कर कहती है—“जो मेरी मम्मी को रोते नहीं, हंसाते हैं, वो हैं मेरे पापा।”
सीख और सवाल
दोस्तों, ईश्वर कभी-कभी हमें इसलिए गिराता है ताकि कोई ऐसा हाथ बढ़े जो हमें सबसे ज्यादा समझता हो—बिना कुछ कहे।
अब आप सभी से एक सवाल—अगर आप उस ठेले वाले की जगह होते, तो क्या आप भी एक बेघर मां और उसकी बच्ची को अपनाते?
क्या आज के समाज में इंसानियत को रिश्तों से ऊपर रखा जा सकता है?
अपना जवाब कमेंट में जरूर दीजिए।
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समाप्त।
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