मैं तुम्हे हर रोज खाना दूंगा बदले मे मेरे साथ घर चलना होगा..बुजुर्ग ने गरीब लड़की से कहा फ़िर जो हुआ

“आशा की उड़ान”

सपनों के शहर की भीड़ भरी सड़क पर…

सपनों का शहर, जहां हर कोई अपनी मंजिल की ओर दौड़ता है। उसी शहर की एक गंदी, भीड़-भाड़ वाली सड़क के कोने में बैठी थी आशा। उसका नाम था ‘आशा’, जिसका अर्थ है उम्मीद, लेकिन उसकी आंखों में सिर्फ नाउम्मीदी ही झलकती थी। उम्र यही कोई बीस-बाईस साल, मगर गरीबी और हालात ने उसे वक्त से पहले ही बूढ़ा कर दिया था। फटे पुराने कपड़ों में लिपटी, हर आती-जाती आहट पर अपना खाली कटोरा आगे कर देती—”बाबूजी, दो दिन से कुछ नहीं खाया, भगवान आपका भला करेगा।”

लोग आते-जाते, कोई तिरस्कार की नजर से देखता, कोई अफसोस से, मगर मदद के लिए कोई हाथ नहीं बढ़ाता। वह इस बेरहम शहर के लिए महज एक जिंदा लाश थी, जिससे सब अपनी नजरें फेर लेना चाहते थे।

एक अनजान मोड़…

एक दिन, जब सारी गाड़ियां रफ्तार में गुजर रही थीं, एक पुरानी सी कार उसके पास आकर रुकी। सब ने सोचा, कोई अमीर है, शायद कुछ सिक्के फेंकेगा। लेकिन कार से उतरे एक बुजुर्ग शख्स—सफेद दाढ़ी, चेहरे पर झुर्रियां, आंखों में गहराई। उन्होंने ना पैसे दिए, ना खाना। बस उसके सामने आकर खड़े हो गए।

“भूखी हो?” बुजुर्ग ने पूछा। आवाज में एक ठहराव था। आशा ने बस कमजोरी से सिर हिला दिया।

“मैं तुम्हें खाना दूंगा, पेटभर खाना—but मेरी एक शर्त है। तुम्हें मेरे साथ चलना होगा।”

सड़क पर चलते लोगों के कदम एक पल को रुक गए। सब सोचने लगे, कहीं कोई गलत इरादा तो नहीं? आशा का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। क्या यह आदमी भी उसकी मजबूरी का फायदा उठाना चाहता है?

बुजुर्ग मुस्कुराए, “बेटी, मैं तुम्हें भीख नहीं, मेहनत देना चाहता हूं। भीख का खाना सिर्फ पेट भरता है, आत्मा को भूखा रखता है। अगर अपनी इज्जत का खाना खाना है तो मेरे साथ चलो।”

आशा के पास सोचने के लिए ज्यादा कुछ नहीं था—या तो यही फुटपाथ, यही भीख, यही नफरत, या फिर एक अनजान रास्ता जिसमें खतरा भी था, और शायद उम्मीद भी। उसने कांपते हाथों से अपना खाली कटोरा उठाया और कार में बैठ गई।

नई शुरुआत…

गाड़ी शहर की जगमगाती सड़कों से गुजरकर एक तंग गली में मुड़ी। एक छोटे साधारण से घर के सामने रुक गई। “यही मेरा घर है,” बुजुर्ग बोले, “मेरा नाम रहीम चाचा है।”

घर का दरवाजा खुलते ही मसालों की तेज, घर जैसी खुशबू ने आशा का स्वागत किया। अंदर का नजारा किसी आलीशान घर का नहीं, बल्कि एक व्यस्त रसोई का था। बड़े-बड़े बर्तनों में दाल-सब्जी पक रही थी, कुछ औरतें रोटियां बेल रही थीं, स्टील के टिफिन डिब्बों में पैक कर रही थीं।

“यह अपना घर है,” रहीम चाचा ने बताया, “हमारा छोटा सा टिफिन सर्विस है। हम उन लोगों तक घर का खाना पहुंचाते हैं जो अपने घर से दूर हैं।”

आशा हैरानी से सब देख रही थी। “लेकिन मैं क्या करूंगी? मुझे खाना बनाना भी नहीं आता बाबूजी।”

रहीम चाचा उसे बर्तनों के ढेर के पास ले गए। “शुरुआत यहां से होगी। बेटी, कोई भी काम छोटा नहीं होता। सवाल यह नहीं कि तुम्हें क्या आता है, सवाल यह है कि तुम सीखना चाहती हो या नहीं? इज्जत की रोटी कमानी है तो हाथ तो गंदे करने पड़ेंगे।”

उस दिन आशा ने पहली बार मेहनत की कमाई खाई—जली हुई रोटी और थोड़ी सी दाल। लेकिन उस खाने का स्वाद दुनिया की किसी भी चीज से ज्यादा मीठा था।

संघर्ष की राह…

सफर आसान नहीं था। पहले ही दिन गर्म पानी से उसके हाथ जल गए। बर्तन मांजते-मांजते अंगुलियां दुखने लगीं। मोहल्ले वालों ने भी ताने दिए—”यह तो वही भिखारीन है, देखो बुड्ढे ने नौकरानी रख ली।”

कई रातें वह छुपकर रोती। लगता, “इससे अच्छी तो स्टेशन की जिंदगी थी।” लेकिन हर बार रहीम चाचा की आवाज उसे रोक लेती—”लोगों का काम है कहना, तुम्हारे हाथ की लकीरें वह नहीं बदल सकते। लेकिन तुम्हारे हाथ की मेहनत तुम्हारी किस्मत जरूर बदल सकती है।”

धीरे-धीरे आशा बदलने लगी। जो हाथ कल तक भीख के लिए फैलते थे, वह अब तेजी से सब्जियां काटने लगे थे। बर्तन धोने से सफर शुरू हुआ, आटा गूंथने और फिर मसालों की पहचान तक पहुंच गया। रहीम चाचा ने उसे सिर्फ खाना बनाना नहीं सिखाया, बल्कि यह भी सिखाया कि हर टिफिन में सिर्फ खाना नहीं, बल्कि किसी के घर की यादें भी जाती हैं।

कामयाबी की सीढ़ी…

छह महीने बीत गए। आशा अब वो सहमी हुई लड़की नहीं थी। उसके चेहरे पर मेहनत की एक चमक थी। वह रसोई की जरूरी हिस्सा बन चुकी थी। नए लड़कों को काम सिखाती, टिफिन का हिसाब रखती।

एक दिन, शहर के सबसे बड़े कॉर्पोरेट ऑफिस से बड़ा ऑर्डर आया। आशा ने उस दिन रसोई की पूरी जिम्मेदारी संभाली। शाम को जब थक कर बैठी थी, रहीम चाचा उसके पास आए।

“आज खाने में कुछ खास था बेटी। सब तुम्हारी तारीफ कर रहे थे।”

आशा की आंखों में आंसू आ गए। “चाचा, अगर आप उस दिन मुझे…”

रहीम चाचा ने बीच में ही टोक दिया—”मैंने कुछ नहीं किया। आशा, मैंने सिर्फ दरवाजा दिखाया था। मंजिल तक तुम अपनी हिम्मत से पहुंची हो।”

कुछ ही सालों में ‘अपना घर’ सिर्फ एक टिफिन सर्विस नहीं रहा, वह एक मिसाल बन गया। दो और ब्रांच खुल गईं, दर्जनों बेसहारा औरतों को काम मिला।

सम्मान और आत्मसम्मान…

शहर के बड़े सम्मान समारोह में ‘वूमेन एंटरप्रेन्योर ऑफ द ईयर’ का अवार्ड घोषित हुआ। नाम गूंजा—मिस आशा। तालियों की गड़गड़ाहट के बीच आशा मंच पर चढ़ी। आज उसने वही फटे कपड़े नहीं, बल्कि एक साधारण मगर इज्जतदार साड़ी पहनी थी।

उसने माइक थामा, हाथ कांप रहे थे। “मैं आज भी उस सड़क के कोने को नहीं भूली, उस खाली कटोरे को नहीं भूली। लोग कहते थे मेरी किस्मत में सिर्फ भीख लिखी है। लेकिन एक फरिश्ता आया।”

उसने भीड़ में बैठे रहीम चाचा की ओर देखा। “उन्होंने मुझे पैसे नहीं दिए, उन्होंने मुझे आत्मसम्मान दिया। सिखाया कि जब हाथ मेहनत करने के लिए बने हैं, तो उन्हें फैलाना क्यों?”

“आज जो हाथ कल तक भीख मांगते थे, वो सैकड़ों लोगों का पेट भर रहे हैं।”

पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा। उन तालियों की गूंज में सड़क के उस गंदे कोने की सारी कड़वी यादें धुल चुकी थीं।

सीख:
हर इंसान की किस्मत उसकी मेहनत से बदलती है। भीख से पेट भरता है, आत्मा नहीं। उम्मीद और मेहनत से हर गंदा कोना एक नया उजाला बन सकता है।