सौतेले बेटे को साइकिल से भेजा स्कूल सगे को कार में..लेकिन सालों बाद मंच पर जो हुआ सबकी आँखें भर आईं”
“सौतेले बेटे की खामोश जीत”
गांव के उस पुराने घर में हर सुबह दो दृश्य साथ-साथ चलते थे, लेकिन दोनों की दुनिया अलग थी। एक ओर 8 साल का राहुल था, जो तैयार होकर चमचमाती यूनिफॉर्म में, ब्रांडेड बैग टांगे, अपने पिता की खरीदी हुई नीली स्कॉर्पियो गाड़ी का इंतजार करता था। दूसरी ओर उसी उम्र का अंकित, उसका सौतेला भाई, अपनी सस्ती सी कॉपी और टूटी हुई स्लीपर पहनकर एक जंक खाई साइकिल को धक्का देता हुआ स्कूल जाने की तैयारी करता।
राहुल को उसकी मां रेखा अपने हाथों से नाश्ता खिलाती, जूस का गिलास पकड़ाती और प्यार से माथा चूम कर रवाना करती। वहीं अंकित अपनी मां के जाने के बाद उसी घर के एक कोने में पला-बढ़ा और उसका वजूद उस घर में किसी मेहमान से ज्यादा नहीं था। पिता सुरेश दोनों का था, लेकिन व्यवहार जैसे सिर्फ एक का हो।
“तेरा ध्यान पढ़ाई पर नहीं है अंकित। राहुल को देख कितना होशियार है। तुझसे तो कभी कुछ बन ही नहीं सकता।” – सुरेश अकसर कहता। अंकित बस चुपचाप सुन लेता, ना उत्तर देता, ना आंख उठाता। वह जानता था यह घर उसका नहीं है, लेकिन सपने उसके अपने थे।
राहुल स्कूल के बाद ट्यूशन जाता, उसके लिए घर पर कोचिंग टीचर आते। वहीं अंकित स्कूल के बाद पास के चाय के ठेले पर कप धोता, कुछ रुपए इकट्ठे करता ताकि किताबें खरीद सके। रात को जब सब सो जाते, तब वह ट्यूशन पढ़ता – पुरानी किताबें, टूटा पेन और एक जलती माचिस की तीली जितनी उम्मीद।
एक दिन कड़ाके की सर्दी में, जब राहुल अपनी गर्म जैकेट पहनकर कार में बैठा, अंकित को देखा जो साइकिल के पैडल पर पैर जमाने की कोशिश कर रहा था। नंगे पैर, लाल पड़े हुए। रेखा हंसते हुए बोली – “कभी-कभी लगता है भगवान ने इस घर में मुफ्त का बोझ भी भेजा है।” सुरेश ने हंसकर कहा, “चलो कम से कम झाड़ू पोछा कर लेता है।” अंकित ने कुछ नहीं कहा। उसने बस अपनी साइकिल उठाई और ठंडी हवा को चीरते हुए स्कूल की ओर निकल गया।
साल बीतते गए। राहुल अब कॉलेज में था, लेकिन पढ़ाई में ढीला, पैसे खर्च करने में आगे। अंकित ने स्कॉलरशिप के दम पर आगे की पढ़ाई की। वह पढ़ता रहा, संघर्ष करता रहा, बिना शिकायत के। कभी किताबें उधार लेकर पढ़ता, कभी स्टेशन पर बैठकर कोचिंग नोट्स बनाता। कभी किसी से कुछ नहीं मांगा, सिर्फ अपनी मेहनत से दोस्ती की। गांव वालों को अब भी यही लगता था – “सौतेला है, कहां जाएगा? राहुल ही आगे बढ़ेगा।” लेकिन कोई नहीं जानता था कि अंकित हर ताने को ईंधन बना रहा था।
अब कहानी उस मोड़ पर आने वाली थी, जहां किस्मत को भी चुप होना पड़ा। एक बड़ा सरकारी आयोजन होने वाला था – यूथ आइकॉन ऑफ इंडिया पुरस्कार समारोह। देश भर से चुने गए कुछ युवाओं को सम्मानित किया जाना था। कार्यक्रम में देश के बड़े बिजनेसमैन, IAS अधिकारी और मंत्रीगण शामिल होने वाले थे। गांव के ही किसी लड़के का नाम उस लिस्ट में आया था। मीडिया में चर्चा थी। गांव के लोग कौतूहल से पूछते रहे – “कौन है यह?”
और फिर जैसे ही टीवी स्क्रीन पर तस्वीर आई, रेखा और सुरेश की आंखें फटी की फटी रह गईं। स्टेज पर जो खड़ा था, वह अंकित था। समारोह राजधानी दिल्ली में आयोजित किया गया था। भव्य हॉल, चमचमाती लाइट्स, कैमरे की फ्लैश और मीडिया की चहल-पहल। मंच पर एक के बाद एक नामों की घोषणा हो रही थी और दर्शक तालियों से स्वागत कर रहे थे।
फिर एंकर की आवाज गूंजी – “अब इस साल का सबसे प्रतिष्ठित सम्मान यूथ आइकन ऑफ इंडिया दिया जा रहा है उस युवा को जिसने संघर्ष को साधना बना लिया। जिसने गरीबी, भेदभाव और अपमान के बीच भी हार नहीं मानी। प्लीज वेलकम – IAS अधिकारी श्री अंकित वर्मा।”
पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा। काले रंग के सूट में आत्मविश्वास से भरे चेहरे और शांत मुस्कान के साथ जब अंकित मंच पर चढ़ा, तो कैमरे और नजरों का सारा केंद्र वहीं बन गया। वह वही अंकित था, जिसे कभी उसके पिता ने कहा था – “तुझसे कुछ नहीं होगा।” जिसने बचपन में दूसरों के फेंके पुराने जूते पहने थे, अब वह खुद मंच पर चमचमाते जूतों में खड़ा था।
राहुल, रेखा और सुरेश टीवी स्क्रीन के सामने चुप खड़े थे। कोई कुछ नहीं बोल रहा था। रेखा के चेहरे पर अविश्वास था, सुरेश की आंखें झुकी हुई थी और राहुल का मुंह खुला रह गया था। कभी जिसे उन्होंने बोझ समझा था, वही अब देश के सबसे बड़े मंच पर था।
मंच पर आए कई मंत्री और उद्योगपतियों ने अंकित के संघर्ष की सराहना की। एक इंटरव्यू में जब किसी पत्रकार ने पूछा – “आपने इतनी विपरीत परिस्थितियों में इतना कुछ कैसे हासिल किया?” तो अंकित ने मुस्कुराकर कहा – “मैंने कभी किसी से सवाल नहीं किया। बस अपने आप से एक वादा किया था – खामोशी से चलूंगा, लेकिन जब चलूंगा तो दुनिया सुनेगी।”
पूरा सभागार तालियों से गूंज गया।
कार्यक्रम के बाद जब लोग मिल रहे थे, तभी सुरक्षा घेरे से एक हलचल हुई। दरवाजे से तीन लोग धीरे-धीरे अंदर आ रहे थे – सुरेश, रेखा और राहुल। सुरेश की चाल धीमी थी, चेहरा शर्म से झुका हुआ। रेखा की आंखों में पछतावा साफ था, लेकिन अब कुछ कहने की हिम्मत नहीं हो रही थी। राहुल, जो कभी ब्रांडेड कपड़े और कारों का राजा था, अब अपने सौतेले भाई को सूट-बूट में देखकर जैसे छोटा महसूस कर रहा था।
अंकित ने दूर से ही उन्हें देख लिया। कुछ पल को उसकी सांस थमी। बचपन की सारी यादें किसी फिल्म की तरह आंखों के सामने दौड़ने लगी – वह टूटी साइकिल, तानों से भरी चाय की दुकानें, नंगे पैर की ठंड और चुपचाप रोती रातें। लेकिन उसके चेहरे पर नफरत नहीं थी, बल्कि एक शांत मजबूत मुस्कान थी। वह मंच से नीचे उतरा। लोगों ने सोचा अब शायद वह उन्हें नजरअंदाज कर देगा।
लेकिन नहीं। अंकित धीरे-धीरे चला और जाकर अपने पिता सुरेश के सामने रुक गया। उसने कुछ नहीं कहा, सिर्फ झुका और उनके पैर छुए। सुरेश कांप उठा – “माफ कर दे बेटा। मैंने तुझे कभी अपना नहीं माना। लेकिन आज तूने मुझे शर्मिंदा कर दिया।” रेखा की आंखों से आंसू बहने लगे – “हमने तुझे वो नहीं दिया जो तुझे मिलना चाहिए था। फिर भी तूने हमें सब कुछ दे दिया।”
अंकित ने सिर उठाकर कहा – “आपने जो नहीं दिया, वही मेरी ताकत बना। मैं टूट सकता था, लेकिन मैंने खुद को जोड़ना चुना। आपने मुझे भुलाया, लेकिन मैं आपको माफ नहीं करूंगा, क्योंकि मैंने कभी गुस्सा पाला ही नहीं।”
पूरा हॉल चुप था। सिर्फ आंखों से बहते आंसुओं की नमी थी।
कार्यक्रम अब अपने समापन की ओर बढ़ रहा था। लेकिन आयोजकों ने जब देखा कि मीडिया, दर्शक और देश भर से आए लोग अब भी मंच की ओर टकटकी लगाए बैठे हैं, तो उन्होंने मंच संचालक से कहा – “अगर अंकित जी चाहें तो एक आखिरी संबोधन देश के युवाओं के लिए दें।”
अंकित थोड़ी देर चुप रहा। फिर माइक की ओर बढ़ा। मंच पर खड़े उस युवक के चेहरे पर ना घमंड था, ना बदला। बस एक शांति थी, जो एक लंबी लड़ाई जीतने के बाद मिलती है। उसने माइक पकड़ा और गहरी सांस ली।
“मैं बहुत भाग्यशाली हूं कि आज मुझे इतना सम्मान मिला। लेकिन यह जीत सिर्फ मेरी नहीं है। यह हर उस बच्चे की है, जिसे कभी उसके घर में ही पराया बना दिया गया। मैं एक ऐसा बच्चा था, जिसे उसके अपने घर में दूसरे दर्जे का दर्जा दिया गया। मेरे साथ कोई अन्याय नहीं हुआ, सिर्फ मुझे अनदेखा किया गया। पर कभी-कभी सबसे बड़ी तकलीफ वही होती है, जब आपको देखकर भी लोग अनदेखा कर दें।”
उसकी आवाज कांप रही थी, लेकिन शब्द तलवार की तरह सीधे दिलों में उतर रहे थे।
“मेरे पास नई किताबें नहीं थी, लेकिन मेरे अंदर सीखने की आग थी। मेरे पास गर्म कपड़े नहीं थे, लेकिन मेरी हिम्मत मुझे ठंड से बचाती थी। मैंने हर ताना, हर चुप्पी, हर बेइज्जती को अपने सपनों की सीढ़ी बना लिया।”
अब उसकी आंखों में आंसू थे, लेकिन वह मुस्कुरा रहा था।
“आज जो लोग मेरे पास आकर माफी मांग रहे हैं, मैं उन्हें कुछ नहीं कहूंगा, क्योंकि मैं उन्हें दोष नहीं देता। वह खुद टूटी सोच के शिकार थे। लेकिन आज मैं यहां खड़ा हूं, यह साबित करने के लिए कि किसी बच्चे की काबिलियत उसके खून से नहीं, उसकी सोच और संघर्ष से तय होती है।”
तालियां गूंजने लगीं। लेकिन इस बार वह तालियां सिर्फ शोर नहीं थी, वह हर उस बच्चे की आवाज थी जिसे कभी कमजोर समझा गया था।
वहीं एक कोने में सुरेश के आंसू रुक नहीं रहे थे। उसे वह हर बात याद आ रही थी, जो उसने कभी अंकित से कही थी – “तू कभी कुछ नहीं कर पाएगा। तू बोझ है।” अब उसे अपने ही शब्द थप्पड़ जैसे लग रहे थे। रेखा बुरी तरह रो रही थी। वह वही औरत थी जो कभी कहती थी – “एक ही घर में रहते हैं, पर फर्क साफ दिखता है। राहुल में काबिलियत है, अंकित में नहीं।” आज उसे समझ आया कि काबिलियत शोर नहीं करती, वह चुपचाप रास्ता बनाती है।
राहुल जो अब तक चुपचाप बैठा था, पहली बार उठा और अंकित के पास गया। उसने हाथ जोड़कर कहा – “भाई, तू सच में बड़ा हो गया है और हम बहुत छोटे रह गए।” अंकित ने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा – “तू तब छोटा नहीं था, बस समझ से दूर था। आज अगर तू समझ गया है तो तू भी बड़ा हो गया।”
कार्यक्रम के बाद जब सब जाने लगे तो एक छोटा बच्चा मंच के पास आया। उसने अंकित से पूछा – “सर, क्या आप सच में कभी साइकिल पर स्कूल जाते थे?” अंकित ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया – “हां बेटा, कभी साइकिल भी नहीं थी। कभी नंगे पैर भी गया हूं।” बच्चा बोला – “तो फिर आप इतने बड़े कैसे बन गए?” अंकित ने झुक कर कहा – “मैं कभी दूसरों से आगे नहीं भागा बेटा, मैंने बस खुद से आगे बढ़ना सीखा।”
अगले दिन की अखबारों में सिर्फ एक ही नाम था –
IAS अंकित वर्मा: एक सौतेले बेटे की खामोश जीत।
उसने बदले में बदला नहीं, इज्जत लौटाई। टीवी चैनलों, सोशल मीडिया पर हर जगह अंकित की कहानी वायरल हो चुकी थी। बच्चे-बच्चे की जुबान पर एक ही बात थी – “यह वही लड़का है जो नंगे पैर स्कूल जाता था।” अंकित ने अपने भाषण और काम से लाखों दिल जीत लिए थे, लेकिन उसके दिल में अब भी एक अधूरापन था – वो घर।
कुछ दिन बाद जब वह अवकाश पर गांव लौटा, तो वह किसी कार में नहीं बल्कि साइकिल पर बैठकर उसी पुराने रास्ते से गुजरा। वो टूटी सड़क, वो चाय की दुकान, वो पेड़ जिसके नीचे वह पढ़ाई करता था। गांव में जैसे हलचल मच गई हो। लोग दरवाजे से झांकते, बच्चे पीछे दौड़ते – “मम्मी, वह अंकित भैया हैं। IAS अंकित।”
वह उसी घर के सामने रुका, जहां कभी उसके लिए एक गिलास पानी भी झर के बराबर था। दरवाजा खोला तो सामने रेखा खड़ी थी। अब उसके चेहरे पर वह ताने नहीं थे, सिर्फ शर्म, मौन और आंसू थे।
“अंदर आओ बेटा।” – उसने कहा, जैसे यह शब्द पहली बार उसके मुंह से निकले हों।
अंकित ने सिर झुकाया और कहा – “अब मैं बेटा हूं, तब तो मेहमान भी नहीं था।” रेखा की आंखें बहने लगीं – “हमसे बहुत बड़ी गलती हुई। लेकिन तूने हमें माफ करके जो ऊंचाई पाई है, वही हमारी असली सजा है।”
फिर सुरेश सामने आया – वही पिता जिसने कभी उसे नाम से नहीं पुकारा। “बेटा, तेरे जैसे बच्चे के लिए मुझे पिता कहलाने का हक नहीं। लेकिन क्या तू एक बार फिर मुझे अपने हाथों से चाय पिलाएगा? जैसे तू बचपन में चुपचाप मेरे लिए बनाता था।”
अंकित की आंखें नम थी, लेकिन चेहरे पर मुस्कान थी। “आज भी बनाऊंगा पापा। पर अब मैं अकेला नहीं पूंगा, सब साथ बैठेंगे।”
कुछ दिन बाद अंकित ने गांव के स्कूल को गोद लिया और वहां एक बड़ा बदलाव शुरू किया। उन्होंने कहा – “इस गांव में कोई बच्चा अब साइकिल के बिना नहीं पढ़ेगा और कोई बच्चा सिर्फ इसलिए छोटा नहीं समझा जाएगा क्योंकि वह सौतेला है, गरीब है या अकेला है।”
स्कूल गेट पर अब एक बोर्ड लगा था –
“यहां बच्चों को उनके खून से नहीं, उनके जुनून से पहचाना जाता है।”
सीख:
कभी किसी को उसकी परिस्थिति या परिवार से मत आंकिए। असली काबिलियत संघर्ष, सोच और जुनून से बनती है।
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