स्टेशन पर बैठी लड़की जीवन से हार चुकी थी, एक फौजी मिला… फिर जो हुआ…
लखनऊ स्टेशन की भीड़ में दोपहर का वक्त था। हजारों लोग अपने-अपने सफर में व्यस्त थे, लेकिन एक फौजी, विवेक, की आंखों में अलग ही चमक थी। छुट्टी के बाद वह अपने घर लौट रहा था, बिना बताए अपने मां-बाबूजी और छोटी बहन को सरप्राइज देने के लिए। उसके चेहरे पर खुशी थी, दिल में उत्साह। लेकिन उसी प्लेटफार्म पर कुछ कदम दूर, एक बेंच पर बैठी थी आरती—एक बेहद खूबसूरत, लेकिन टूटी हुई लड़की। उसके चेहरे पर गहरी उदासी थी, आंखों में सवाल थे, और हाथ में एक टिकट जिसे वो घूर रही थी, जैसे उसकी मंजिल उस टिकट से कहीं दूर थी।
विवेक की नजर उस पर पड़ी और उसकी खुशी ठहर गई। वह सोचने लगा—मैं तो इतने दिनों बाद घर लौट रहा हूं, मेरी दुनिया रोशनी से भरी है, फिर यह लड़की इतनी अंधेरी क्यों लग रही है? तभी ट्रेन के आने की अनाउंसमेंट हुई। आरती ने गहरी सांस ली, उठी और जैसे थके हुए सपने की तरह चलने लगी। विवेक के कदम अपने आप उसके पीछे चल पड़े। ट्रेन आई, आरती चढ़ गई और विवेक भी उसी डिब्बे में चढ़ गया।
आरती खिड़की के पास बैठ गई और बाहर जाते चेहरों को देखती रही। विवेक सामने वाली सीट पर बैठा और उसे देखता रहा। वह जानना चाहता था कि इतनी सुंदर लड़की के चेहरे पर इतनी उदासी क्यों है? कुछ देर बाद विवेक ने साहस किया, “माफ कीजिएगा, अगर बुरा न माने तो कुछ पूछूं?” आरती ने उसकी तरफ देखा, नजरें उठी नहीं, लेकिन उनमें थकावट थी। “बोलिए,” उसने धीरे से कहा।
विवेक मुस्कुराया, लेकिन उसकी मुस्कान में बेचैनी थी। “स्टेशन पर देखा था आपको। आप जितनी सुंदर हो, उतनी ही उदास लग रही थी। सब ठीक तो है ना?” आरती की आंखों में एक तीर सा था। वह झुंझला कर बोली, “आपको इससे क्या फर्क पड़ता है? आप अपनी राह देखिए, मैं अपनी देख लूंगी।” विवेक झेंप गया, लेकिन हार नहीं मानी। थोड़ी देर बाद फिर बोला, “मैं जानता हूं मैं अजनबी हूं, लेकिन मैं फौजी हूं। और आज बहुत दिनों बाद घर जा रहा हूं। मां-बाबूजी, बहन को बिना बताए मिलने। बहुत खुश था, लेकिन आपको देखा तो लगा आपकी आंखों में कुछ ऐसा है जो अनकहा रह गया है।”
आरती के चेहरे की सख्ती थोड़ी पिघली। “फौजी हो?” विवेक मुस्कुराया, “जी।” अब आरती की आवाज बदली थी। “माफ कीजिएगा, मुझे नहीं पता था। मैं फौजियों की बहुत इज्जत करती हूं।” “अरे नहीं, माफी की कोई जरूरत नहीं,” विवेक बोला। “मैंने भी कहां माथे पर तिरंगा टांगा है।”
अब चुप्पी टूट चुकी थी। दो अनजान लोग मुसाफिर से कहानी बन गए। आरती ने नजरें खिड़की से हटाकर उसकी आंखों में डाली और कहा, “आपने पूछा था ना क्यों उदास हूं?” विवेक बस गर्दन हिलाकर सुनने को तैयार था।
“तीन साल पहले मैंने सब कुछ छोड़ दिया था—अपने मां-बाप, अपना गांव, अपने सपने—सिर्फ एक लड़के के लिए, नाम था राहुल। कॉलेज में मिला था, बहुत प्यार करता था। जब पापा की नौकरी चली गई तो उसने मेरा साथ दिया। लेकिन जब उसकी नौकरी लगी, वह बदल गया। कहने लगा हम साथ नहीं रह सकते। मैंने अपने मां-बाप से सारे रिश्ते तोड़ दिए थे। अब उनके पास लौटूं तो क्या लेकर जाऊं? और इस शहर में अब कोई बचा नहीं जो अपना लगे। कभी-कभी लगता है कूद जाऊं किसी चलती ट्रेन से। लेकिन मरने के लिए भी हिम्मत चाहिए, और वो मुझमें नहीं है।”
इतना कहकर वह फूट-फूट कर रो पड़ी। विवेक कुछ पल चुप रहा, फिर उसकी बगल में बैठ गया। धीरे से उसके कांपते कंधे पर हाथ रखा और बोला, “तुम टूटी नहीं हो आरती, बस थक गई हो। कभी-कभी दुनिया गिराने से पहले ऊपर वाला हमारी ताकत आजमाता है। जिसने तुम्हें बचाया है, वो तुम्हारे लिए कुछ बेहतर भी रखेगा। अब खुद को अकेला मत समझना।”
आरती ने अपनी भीगी आंखों से उसकी तरफ देखा और पहली बार मुस्कुराई। कहते हैं ना, किसी की आंखों में अपना दर्द उतरता हुआ दिख जाए तो अजनबी भी अपना बन जाता है। आरती अब थोड़ी सहज हो गई थी। उसके आंसू रुक तो नहीं रहे थे, लेकिन अब वह अकेले नहीं बह रहे थे। विवेक की आंखों में भी नमी थी। शायद इसलिए नहीं कि उसे अफसोस था, बल्कि इसलिए कि उसे आरती की टूटन में अपनी ही जिंदगी की परछाई दिख रही थी।
आरती ने धीरे से पूछा, “आप तो कह रहे थे कि आप बहुत खुश हो। पर आपकी आंखें तो कुछ और ही कह रही हैं। आपकी हंसी के पीछे भी कोई कहानी है क्या?” विवेक गहरी सांस लेकर बोला, “हां, मेरी भी एक कहानी है।”
“बोलिए,” आरती ने धीरे से कहा, “शायद आपकी बातों से मेरा भी मन हल्का हो जाए।”
“जब मेरी पहली पोस्टिंग हुई थी तो मां-बाबूजी ने मेरी शादी तय कर दी थी। लड़की का नाम था रूपाली। बहुत सीधी, शांत और मेरी दुनिया की सबसे प्यारी इंसान। शादी के कुछ साल बहुत अच्छे बीते। फिर एक दिन वो मां बनी और उसी दिन मेरी दुनिया से चली गई। उसने बेटी को जन्म दिया, लेकिन खुद इस दुनिया को अलविदा कह गई। मैंने कभी दोबारा शादी नहीं की। हर बार जब मां कहती तो मुझे रूपाली की आंखें याद आती थीं। उसकी मुस्कान, उसकी बातें। मैंने खुद को बेटी की परवरिश में झोंक दिया। वह अब चार साल की हो गई है। मुझे पापा कम और मम्मा ज्यादा बुलाती है। कभी-कभी जब मेरी वर्दी पर हाथ रखकर कहती है, ‘पापा आप सबसे ताकतवर हो ना?’ तो उस वक्त मेरा सीना तो चौड़ा हो जाता है, लेकिन आंखें भीग जाती हैं।”
आरती अब पूरे मन से सुन रही थी। उसके सामने जो लड़का बैठा था, वो एक फौजी था, लेकिन उसके अंदर एक पिता भी था, एक अधूरा पति भी था और एक बेहद संवेदनशील इंसान भी।
“मैं बस यही मानकर चल रहा था कि जिंदगी अब बेटी के साथ कटेगी। लेकिन आज तुम्हें देखा और बात की तो लगा शायद जिंदगी फिर से कुछ नया लिखना चाहती है।”
आरती कुछ नहीं बोली, लेकिन उसकी आंखें अब बोलने लगी थीं। वह नजरें झुका कर मुस्कुरा दी और यही मुस्कान विवेक को एक नई उम्मीद दे गई। ट्रेन की रफ्तार थोड़ी और बढ़ गई थी। जैसे वक्त भी इन दोनों के करीब आने की रफ्तार पकड़ चुका हो।
धीरे-धीरे बातें बढ़ने लगीं। आरती ने विवेक को बताया कि उसे कविताएं लिखना पसंद है। विवेक ने बताया कि उसे खाना बनाना आता है और सबसे अच्छा चना-चावल वही बनाता है। आरती हंसते हुए बोली, “अच्छा, फौजी और रसोई! यह तो नई बात है।”
विवेक ने जवाब दिया, “जब पत्नी चली जाए और बेटी दूध के लिए रोए, तब आदमी कुछ भी सीख लेता है।”
आरती अब हंसते-हंसते रो रही थी और रोते-रोते दिल से जुड़ रही थी। उस दिन उस ट्रेन के एक डिब्बे में दो अधूरी जिंदगियां एक-दूसरे को जोड़ने लगीं—बिना किसी वादा, बिना किसी योजना के, बस दिल से।
ट्रेन दरभंगा स्टेशन पर रुकने वाली थी। जैसे ही गाड़ी धीमी पड़ी, विवेक की आंखें फिर उदास हो गईं और उसने आरती से पूछा, “अब कहां जाओगी तुम? क्या तुम्हारे मां-बाप तुम्हें वापस अपना लेंगे?”
आरती चुप रही। फिर धीमे से बोली, “नहीं जानती। शायद दरवाजा भी न खोले और शायद कोई उलहाना भी न दें। बस चुपचाप देख लें और आंख फेर लें।”
विवेक को यह सुनकर अच्छा नहीं लगा। उसने फिर से आरती की आंखों में देखा और कहा, “तो फिर ऐसा करो, मेरे साथ चलो मेरे घर। मेरी मां से मिलो। मैं नहीं कह रहा कि अभी शादी कर लो, बस इतना कह रहा हूं कि जब तक तुम्हें कोई अपनाने वाला न मिले, तब तक मैं तुम्हारा सहारा बन जाऊं।”
आरती चौंक गई, “तुम्हारे घर वाले क्या कहेंगे? तुम्हारी बहन क्या सोचेगी?”
विवेक गंभीरता से बोला, “अगर तुम चाहो तो क्यों न इस सफर को हम हमेशा के लिए सात का नाम दे दें।”
आरती ने कुछ नहीं कहा। लेकिन उसकी आंखों से दो आंसू गिरे और फिर वह मुस्कुरा दी। उस मुस्कान में हर जवाब था और विवेक समझ गया कि अब उनकी कहानियां एक हो चुकी हैं। कुछ फैसले वक्त नहीं लेता, वो बस दिल से निकलते हैं और जिंदगी की दिशा बदल देते हैं।
आरती ने जब मुस्कुराकर ‘हां’ कहा तो जैसे विवेक के भीतर कुछ स्थिर हो गया। उसे लगा पहली बार कोई उसकी अधूरी कहानी को पूरा करने आ गई है। ट्रेन से उतर कर उन्होंने साथ एक टैक्सी ली। स्टेशन की भीड़ पीछे छूट चुकी थी, लेकिन दिल की धड़कनें अब और तेज हो गई थीं।
आरती खामोश थी, खिड़की से बाहर देख रही थी, लेकिन उसके मन के अंदर बहुत कुछ चल रहा था। वह सोच रही थी—क्या मैं सही कर रही हूं? क्या मुझे किसी के भरोसे दोबारा चलना चाहिए? क्या कोई मुझे अपनाएगा?
विवेक ने उसकी हथेली पर धीरे से हाथ रखा, “डर लग रहा है?” उसने पूछा।
आरती ने गर्दन हिलाकर ‘हां’ कहा, तो विवेक मुस्कुराया, “डरो मत। अब हम साथ हैं। डर अगर आया तो मिलकर सामना करेंगे। अकेली नहीं हो अब।”
टैक्सी रुकती है। विवेक का घर आ गया था। एक साधारण मगर बेहद सलीकेदार घर। दरवाजे पर मां तुलसी के पौधे में पानी डाल रही थी और पिताजी अखबार पढ़ रहे थे। जैसे ही विवेक को देखा, दोनों की आंखों में चमक आ गई। “अरे विवेक! तू तो बिना बताए आ गया बेटा!” लेकिन तभी उन्होंने आरती को देखा। एक अनजान लड़की जो विवेक के साथ खड़ी थी। मां की आंखों में सवाल थे और पापा ने चश्मा ठीक किया।
विवेक थोड़ा मुस्कुराया और कहा, “मां, बाबूजी, यह आरती है। मेरी दोस्त नहीं, मेरा भविष्य है। और अगर आप दोनों की रजामंदी हो तो मेरी पत्नी बनने वाली है।”
पल भर के लिए सन्नाटा छा गया। मां ने सवालिया निगाहों से देखा, “कौन है लड़की? कहां मिली? और इतनी जल्दी कैसे?”
विवेक ने सब कुछ बता दिया—ट्रेन वाला सफर, आरती की कहानी, उसका टूटा भरोसा, उसकी मजबूरी, और फिर अपने दिल की बात। “मां, जब कोई इंसान टूटता है तो उसे सहारा चाहिए। और आरती के आने से मेरी भी अधूरी जिंदगी को सहारा मिल गया है।”
कुछ पल के लिए पापा चुप रहे। फिर बोले, “बेटा, शादी सिर्फ दो लोगों का मेल नहीं होता, दो परिवारों का रिश्ता होता है। और जब लड़की तीन साल पहले अपने मां-बाप को छोड़कर चली गई थी, तो क्या वे आज उसे अपनाएंगे?”
आरती की आंखें भर आईं। उसने धीरे से कहा, “शायद नहीं अंकल, लेकिन मुझे पछतावा है। मैं उस वक्त बहक गई थी। आज जो भी हूं, मैं बस एक सच्चा रिश्ता और इज्जत की तलाश में हूं।”
मां ने आरती के सिर पर हाथ रखा, “बेटा, गलती तो सबसे होती है। लेकिन जो अपनी गलती को स्वीकार कर ले, वो इंसान बड़ा होता है।”
फिर पापा ने गहरी सांस ली, “ठीक है, लेकिन शादी से पहले मैं तुम्हारे घर वालों से बात करना चाहता हूं। अगर वह राजी हैं तो हमें भी कोई एतराज नहीं।”
विवेक ने तुरंत कहा, “पापा, मुझे नहीं लगता वो मानेंगे, क्योंकि आरती उन्हें छोड़ चुकी है और उन्हें बहुत ठेस पहुंची थी।”
लेकिन पापा मुस्कुरा दिए, “बेटा, तू फौजी है। हार मानना तुझे शोभा नहीं देता। अगर दिल साफ हो तो रिश्ते दोबारा बन सकते हैं। अब बाकी मुझ पर छोड़ दे।”
पापा ने उसी वक्त अपने गांव के एक पुराने रिश्तेदार को फोन लगाया और आरती के घर के बारे में पूछा। “हां, बहुत अच्छे लोग हैं,” उस तरफ से जवाब आया। “बेटी की बहुत याद आती है उन्हें, लेकिन बताते नहीं किसी से। चुपचाप बस तस्वीर देखते रहते हैं।”
पापा ने सब कुछ बताया—लड़की हमारे बेटे के साथ है, शादी करना चाहते हैं, लेकिन हम चाहते हैं कि पहले परिवार की सहमति हो। रिश्तेदार थोड़ी देर चुप रहा, फिर बोला, “मैं आज ही बात करके बताता हूं।”
उस शाम जब फोन आया तो खबर उम्मीद से भी ज्यादा अच्छी थी। आरती के पिता राजी हैं। उन्होंने कहा है कि अगर उनकी बेटी अब भी उनसे रिश्ता जोड़ना चाहती है तो वह बिना शर्त उसे अपना लेंगे और वह चाहते हैं कि तुम सब कल ही गांव आओ।”
यह सुनकर आरती रो पड़ी, “मुझे यकीन नहीं हो रहा कि बाबूजी मान गए। मैं सोच रही थी कि वह मुझे कभी माफ नहीं करेंगे।”
मां ने उसे गले लगा लिया, “बेटा, मां-बाप का दिल दुनिया की सबसे बड़ी माफ करने वाली जगह होती है। तू जाकर बस एक बार उनकी आंखों में देखना, सब समझ आ जाएगा।”
कुछ रास्ते कितने भी लंबे क्यों न हों, अगर मंजिल मां-बाप की माफी हो तो हर मोड़ पर सिर झुक जाता है और दिल बस एक ही दुआ करता है—भगवान बस मुझे फिर से मेरा घर लौटा दो।
अगली सुबह सूरज की पहली किरणों के साथ विवेक, आरती, उसके मां-पापा और छोटी बहन सब एक साथ गांव के लिए निकल पड़े। आरती के मन में एक तूफान था। तीन साल पहले जिस घर को उसने छोड़ दिया था, आज उसी चौखट पर दोबारा लौट रही थी। पल-पल यही डर सता रहा था—क्या मां-पापा मुझे सच में अपनाएंगे? क्या वह मेरी बात समझेंगे?
गाड़ी जैसे-जैसे गांव के करीब पहुंची, आरती की धड़कनें तेज होती गईं। विवेक ने उसके हाथ को थाम लिया, “आरती डर मत। आज तुझसे कोई सवाल नहीं करेगा। बस आंखों से तेरे लिए आशीर्वाद निकलेगा, देख लेना।”
गाड़ी रुकती है। घर के सामने जैसे ही आरती उतरती है, उसका दिल गवाही दे रहा था—यही है वह दरवाजा, जहां से मैं कभी नाराज होकर गई थी और आज पछतावे के साथ लौटी हूं।
दरवाजा खुला। उसकी मां खड़ी थी—सिर पर पल्ला, हाथ में पूजा की थाली और आंखों में इंतजार से जमा हुआ पानी। और फिर बिना एक शब्द कहे मां ने अपनी बेटी को गले से लगा लिया। आरती की सिसकियां पूरे आंगन में गूंज उठीं, “मां माफ कर दो। बहुत बड़ी गलती हो गई थी मुझसे। मैंने सब कुछ खो दिया। लेकिन आज भी इस घर की मिट्टी में वही अपनापन महसूस होता है।”
पापा थोड़े दूर खड़े थे, आंखें भीगी हुई थीं, लेकिन चेहरे पर ठहराव था। धीरे से आरती उनके पास गई और उनके पैरों में गिर गई, “बाबूजी, आपने अगर माफ कर दिया तो मुझे खुद पर से शर्म आ जाएगी।”
पापा ने झुककर उसे उठाया और गले से लगा लिया, “बेटी, जिसकी आंखें तीन साल से एक ही दरवाजे पर टिकी हो, वो भला माफ कैसे न करेगा?”
उस पल कोई रिश्ता टूटा हुआ नहीं रहा। हर आंसू एक नई शुरुआत बन गया। फिर आरती की मां ने विवेक की तरफ देखा, “बेटा, तू कौन है?”
विवेक थोड़ा मुस्कुराया, “मां जी, मैं वो मुसाफिर हूं जिसने आपकी बेटी को फिर से जीना सिखाया है। मैं आरती से शादी करना चाहता हूं, अगर आप सबकी रजामंदी हो।”
पापा ने पूछा, “तुम्हारे घर वाले मानेंगे?” “जी, उन्होंने ही मुझे यहां भेजा है,” विवेक ने कहा।
तभी घर के अंदर आकर कोई बोला, “हां, और हम सब साथ भी आए हैं।” विवेक की मां, पापा और छोटी बहन अंदर आ चुके थे। मां ने आरती का हाथ पकड़ लिया, “बेटा, तू अब अकेली नहीं। तू अब हमारी बहू है और बेटी भी।”
फिर क्या था? दूसरे दिन ही दोनों परिवारों की मौजूदगी में सादगी से लेकिन पूरे प्यार से शादी हुई। शोर नहीं था, शहनाई नहीं थी, लेकिन हर आशीर्वाद, हर आंख एक ही बात कह रही थी—रब जब जोड़ता है तो टूटे हुए दिल भी फिर से धड़कने लगते हैं।
शादी के बाद आरती और विवेक एक नए जीवन की शुरुआत करते हैं। आरती बहू की जिम्मेदारियों में ढलती चली जाती है और वह बच्ची जो विवेक की बेटी थी, अब आरती को मम्मा कहकर बुलाने लगी थी।
आरती ने पहली बार जाना—मां बनना सिर्फ जन्म देने से नहीं होता, कभी-कभी दर्द को अपनाने से भी इंसान मां बन जाता है। और कभी-कभी खून से नहीं, तकदीर से बनते हैं रिश्ते। जब वह तकदीर मुस्कुराने लगती है तो जिंदगी अपनी सारी तकलीफें भुला देती है।
आरती अब विवेक के घर में थी—वो बहू भी थी, बेटी भी और एक नन्ही सी बच्ची की मां भी। वो बच्ची जो कभी पापा के कांधे पर सिर रखकर सोती थी, अब आरती की गोद में चैन से मुस्कुरा रही थी।
गांव में कुछ लोग बोले, “यह वही लड़की है जो भाग गई थी।” तो विवेक ने सबके सामने सीना ठोक कर कहा, “अगर लड़का सुधर जाए तो इज्जत मिलती है, तो लड़की को क्यों उम्र भर की सजा?”
और आरती अब हर सुबह अपनी बेटी की मुस्कान में खुद को पा रही थी। क्योंकि उसे अब पता चल चुका था—माफी मांगना कमजोरी नहीं, बल्कि वह ताकत है जो टूटी हुई जिंदगी को फिर से जोड़ सकती है।
दोस्तों, क्या कोई इंसान सिर्फ एक गलती से हमेशा के लिए गलत हो जाता है या गलती मान लेना ही असली ताकत होती है? आपकी राय हमें जरूर लिखिए। क्योंकि आपके विचार किसी की जीवन की सबसे बड़ी सीख हो सकते हैं।
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