मंत्री ने बुजुर्ग फौजी को थप्पड़ मारा—लेकिन कुछ ही घंटों में उसकी कुर्सी चली गई
एक थप्पड़, एक सम्मान: कर्नल राठौर की कहानी
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छोटे से कस्बे की सरकारी पेंशन ऑफिस के बाहर लंबी लाइन लगी थी। भीड़ गर्मी से बेहाल थी, शिकायतों से भरी। उस लाइन में सबसे आखिर में एक बुजुर्ग खड़ा था—पतला सा शरीर, ढीली-सी पुरानी फौजी वर्दी, एक हाथ में लकड़ी की छड़ी और दूसरे में एक फाइल। फाइल में सिर्फ एक गुजारिश थी: अपनी रिटायर्ड पेंशन की अर्जी ट्रैक कराना।
उसके कंधे पर एक फेड हो चुकी मेडल की पिन लटकी थी, जिसे आजकल कोई पहचानता नहीं था। कुछ नौजवान लड़के उसकी हालत देखकर हंसते हुए बोले, “यह देखो, फिल्मी डायलॉग वाला फौजी लगता है, ट्रेनिंग से सीधे पेंशन लेने आ गया।”
बुजुर्ग कुछ नहीं बोला। बस मुस्कुरा कर आगे की लाइन की ओर देखता रहा। जैसे वह हर ताना, हर नजरिया पहले ही सह चुका हो।
तभी अचानक सायरन की तेज आवाज आई। लाल बत्ती वाली गाड़ी के साथ पूरा काफिला आया। एक नौजवान मंत्री तेज चिल्लाता हुआ बाहर निकला, “लाइन हटाओ! मुझे अंदर जाना है। किसी से मिलने का टाइम नहीं है।”
भीड़ इधर-उधर भागी, लेकिन वह बुजुर्ग अपनी चाल में, संतुलन में, धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था। उसकी उम्र और थकान उसकी रफ्तार में झलक रही थी। मंत्री की नजर उस पर पड़ी और वह गुस्से से भड़क उठा।
“अबे ओ बुजुर्ग, क्या अंधा है? रास्ते में क्यों अड़ा है? जानता है मैं कौन हूं?”
बिना कुछ सोचे उसने उस बुजुर्ग के गाल पर जोरदार थप्पड़ मार दिया। भीड़ सन्न रह गई। फाइल जमीन पर गिर गई, चश्मा टूट गया। बुजुर्ग झुका, अपने चश्मे के टुकड़े उठाने लगा।
धीरे से बोला, इतना धीमे कि सिर्फ पास खड़ा लड़का ही सुन पाया, “मैंने इस देश के लिए गोली खाई है। पर यह अपमान पहली बार झेला है।” उसकी आंखें भर आईं।
भीड़ में खड़ा एक नौजवान साधारण कपड़ों में चुपचाप यह सब देख रहा था। उसने तुरंत जेब से मोबाइल निकाला और एक कॉल मिलाया, “सर, कोड ग्रीन एक्टिवेट करें। लोकेशन—जिला पेंशन भवन। हां, वही बुजुर्ग।”
कॉल काटते ही वह आगे बढ़ा, बुजुर्ग के पास आया, उनके कंधे पर हाथ रखा और कहा, “आप बैठिए, अब सब ठीक होगा।”
मंत्री को अभी तक अंदाजा नहीं था कि उसने क्या कर दिया है। लेकिन अगले 10 मिनट में कस्बे का माहौल ही बदल गया।
सरकारी दफ्तर के बाहर हलचल जारी थी। जैसे ही दूर से सेना की हरी गाड़ियों की कतार नजर आई, सबकी आंखें फैल गईं। पहले एक, फिर दो, फिर तीन लगातार आर्मी के वाहन आकर ऑफिस के गेट के पास रुके।
भीड़ के बीच किसी ने फुसफुसाकर कहा, “सेना यहां क्यों आई है? क्या कोई बड़ा अफसर आया है? कहीं आतंक की कोई सूचना तो नहीं?”
लेकिन अगले ही पल जो हुआ, उसने पूरे कस्बे को स्तब्ध कर दिया।
तीन उच्च रैंकिंग आर्मी अफसर—मेजर, ब्रिगेडियर और एक लेफ्टिनेंट जनरल—गाड़ी से उतरे और सीधे उस बुजुर्ग के पास आए, जो अब भी टूटी ऐनक ठीक कर रहा था। वे झुके और तीनों ने एक साथ सैल्यूट ठोका।
पूरा दफ्तर हक्का-बक्का रह गया।
“सलाम, कर्नल अरविंद राठौर साहब!”
बुजुर्ग चौंक कर उठे, थोड़ी देर सबको देखा और फिर हल्की मुस्कान के साथ बोले, “इतने साल बाद भी पहचान लिया?”
ब्रिगेडियर ने कहा, “सर, आप ही तो हैं जिन्होंने कारगिल गेट ऑपरेशन में हमें जिंदा वापस लाया था। यह देश आपका कर्जदार है।”
अब तो पूरा दफ्तर, मंत्री समेत, अवाक खड़ा था। जिस बुजुर्ग को अभी कुछ देर पहले बेकार, असहाय, धीमा, पेंशन का बोझ समझकर धक्का दिया गया था, वही आदमी अब तीन जनरल रैंक के अफसरों से सैल्यूट ले रहा था।
वह मंत्री, जिसने थप्पड़ मारा था, धीरे-धीरे भीड़ के पीछे सरकने लगा। लेकिन सबकी निगाहें अब उस पर थीं। इतने में मीडिया भी पहुंच गई। कैमरे, माइक, रिपोर्टर सब जुट गए।
“सर, क्या आप सच में कर्नल राठौर हैं? आप यहां इस हालत में क्यों आए? सरकार ने आपकी पेंशन क्यों नहीं दी?”
कर्नल राठौर धीरे-धीरे बोले, “मैं यहां किसी को नीचा दिखाने नहीं आया था। सिर्फ अपनी बकाया पेंशन की अर्जी लेकर आया था। सोचा शायद कोई सुन ले। पर यहां तो थप्पड़ मिला।”
तभी वहीं खड़ा वह नौजवान, जिसने कॉल किया था, अपनी पहचान बताता है, “मैं कैप्टन आरव राठौर, कर्नल साहब का पोता। मैं आज यहां सिविल ड्रेस में इसलिए था क्योंकि मुझे पहले ही शक था कि इस ऑफिस में बुजुर्गों के साथ खराब व्यवहार होता है। आज मैंने खुद देखा और रिकॉर्ड भी कर लिया।”
उसने फोन उठाकर वीडियो मीडिया को सौंप दिया।
अगले 20 मिनट में वह वीडियो पूरे देश में वायरल हो चुका था—
“देश के हीरो को थप्पड़ मारा मंत्री ने। देखिए कैसे अपमान किया गया कारगिल योद्धा का।”
शाम होते-होते प्रधानमंत्री कार्यालय से आदेश आया—
“कर्नल अरविंद राठौर को राष्ट्रपति भवन में विशेष सम्मान समारोह में आमंत्रित किया जाता है। मंत्री श्रीमान का तत्काल इस्तीफा लिया गया है।”
राष्ट्रपति भवन, नई दिल्ली, शाम के ठीक 5:00 बजे। हर चैनल की हेडलाइन एक ही थी—
“आज देश अपने सच्चे हीरो को करेगा सलाम।”
लाल कालीन बिछा था। बैंड बज रहा था। सशस्त्र बलों के अधिकारी कतार में खड़े थे।
वहीं से सफेद शेरवानी में, छड़ी के सहारे, धीरे-धीरे चलते हुए मंच पर पहुंचे कर्नल अरविंद राठौर।
भीड़ खचाखच थी। राजनेता, फौजी अधिकारी, आम जनता, स्टूडेंट्स—सब एक झलक उस चेहरे को देखने के लिए बेताब थे, जिसे कल तक कोई पहचानता तक नहीं था।
राष्ट्रपति महोदय खुद आगे बढ़े। हाथ जोड़कर नमस्कार किया और बोले, “देश आपका ऋणी है, कर्नल साहब। आपने न केवल युद्ध भूमि में बल्कि आज फिर से हमें सिखाया कि असली वीरता क्या होती है।”
पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा।
कर्नल राठौर ने मंच पर आकर माइक थामा। सबको सन्नाटा हो गया। उनकी आंखें नम थीं, पर आवाज में वही फौजी ठहराव।
“साथियों, मैं कोई शिकायत करने नहीं आया। मैंने यह देश सिर्फ अपनी जान से नहीं, अपनी आत्मा से जिया है। कल मुझे एक थप्पड़ पड़ा। लेकिन आज जो सम्मान मिला, वह हर चोट से बड़ा है।”
“मेरे कपड़े फटे हो सकते हैं, मेरी चाल धीमी हो सकती है, पर जो सम्मान मैंने वर्दी में कमाया है, उसे कोई मंत्री, कोई पद, कोई कुर्सी नहीं छीन सकती।”
यह कहते हुए उन्होंने जेब से अपने वही फटे चश्मे निकाले, जिन्हें मंत्री की मार से टूट गए थे। और सबके सामने हवा में उठाकर कहा,
“यह टूटी ऐनक उस दिन की याद दिलाती है जब देश अपने बुजुर्गों को भूल जाता है। पर याद रखिए, जिस देश ने अपने सैनिक का सम्मान नहीं किया, वह कभी सच्चा महान नहीं बन सकता।”
पूरे हॉल में खड़े होकर तालियां बजने लगीं। कैमरे, मीडिया सभी झूम उठे।
उसी समारोह में एक और नजारा हुआ। मंच के एक किनारे पर खड़ा एक व्यक्ति धीरे-धीरे मंच की ओर बढ़ा। वही मंत्री, जिसके कारण यह पूरा घटनाक्रम हुआ था। वह मंच पर आया, सबके सामने झुका और कर्नल राठौर के पांव छू लिए।
“माफ कीजिए, मुझे पहचानने में भूल हो गई। सत्ता ने मेरी आंखें ढक दी थी।”
कर्नल ने बस एक वाक्य में जवाब दिया,
“पहचान की गलती नहीं थी, आदर की कमी थी। और यह कमी सिर्फ आपकी नहीं, इस सिस्टम की है, जिसे बदलना अब जरूरी है।”
उसी मंच से सरकार ने एक घोषणा की—
“हर सरकारी दफ्तर में अब एक दिन ‘वेटरन डिग्निटी डे’ मनाया जाएगा, जहां रिटायर्ड सैनिकों और बुजुर्गों को सम्मानपूर्वक आमंत्रित किया जाएगा, उनकी बातें सुनी जाएंगी और उनका अनुभव आगे की पीढ़ियों को सिखाया जाएगा।”
अंत में जैसे ही कर्नल राठौर मंच से उतरे, एक बच्चा उनके पास आया और पूछा,
“दादा जी, आपको इतना सब्र कैसे आया?”
वो मुस्कुराए और बोले,
“बेटा, जो आदमी बॉर्डर पर बिना सवाल के गोली झेल सकता है, वो अपने ही देश की नजरों से गिरने की तकलीफ भी सह सकता है। लेकिन याद रखो, इज्जत कोई दे नहीं सकता, उसे अपने कर्मों से कमाना पड़ता है।”
सीख:
सम्मान और पहचान वर्दी, पद या उम्र से नहीं, बल्कि अपने कर्म और जज्बे से मिलती है।
जो देश अपने सैनिकों और बुजुर्गों का सम्मान करता है, वही सच में महान बनता है।
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