गंगा किनारे शुरू हुई मोहब्बत… जिसने दो दिलों की दुनिया बदल दी

“80 घाट की मोहब्बत”

कहते हैं, अगर मोहब्बत सच्ची हो तो वक्त भी रुक जाता है, मुक़द्दर भी झुक जाता है और पूरी कायनात मिलाने की जिद पर उतर आती है।

दोपहर का वक्त था। बनारस से करीब 30 किलोमीटर दूर 80 घाट पर सन्नाटा पसरा था। गंगा की लहरें धीरे-धीरे घाट की सीढ़ियों से टकरा रही थीं, जैसे किसी के इंतजार में बेचैन हो रही हों। चारों ओर भीड़ थी – कोई पूजा कर रहा था, कोई स्नान, कोई तस्वीरें खींच रहा था। लेकिन उस शोरगुल से थोड़ी दूर एक पुरानी लकड़ी की नाव किनारे बंधी थी। उस पर बैठा था एक बुजुर्ग नाविक – भीमनाथ चौधरी। झुर्रियों से भरा चेहरा, माथे से बहता पसीना, लेकिन आंखों में एक ठहराव, एक शांति।

हर दोपहर उसकी बड़ी बेटी राधिका चौधरी टिफिन लेकर घाट पर आती थी। सावली सलोनी, बेहद सादगी से भरी लड़की, जिसकी चाल में सच्चाई थी और आंखों में आत्मसम्मान। जब तक भीमनाथ खाना खाते, राधिका पतवार थाम लेती थी। अगर कोई मुसाफिर आता, तो वह खुद पतवार चलाकर उस पार छोड़ आती थी। उसे यह करना अच्छा लगता था, क्योंकि यह सिर्फ नाव नहीं थी, अपने पिता का सहारा थी।

इसी दोपहर घाट पर आता है एक अनजान युवक – अर्जुन शर्मा, करीब 23-24 साल का, साधारण कपड़ों में, कंधे पर बैग और पास में एक बाइक। वह घाट पर आकर कहता है, “मुझे उस पार जाना है, जरा जल्दी में हूं।” भीमनाथ उस समय खाना खा रहे थे। उन्होंने पूछा, “बेटा, कहां जाना है?” अर्जुन बोला, “यही पास के गांव में बहन की ससुराल है, उसी की शादी में आया था, अब निकल रहा हूं। किसी ने शॉर्टकट बताया तो इधर से आ गया।”

भीमनाथ बोले, “बेटा, मेरी बेटी है राधिका, वो बहुत अच्छा नाव चला लेती है, वो तुम्हें उस पार छोड़ देगी।” अर्जुन थोड़ा हिचकते हुए बोला, “नहीं अंकल, मुझे थोड़ी घबराहट होती है, अगर आप छोड़ दें तो…” भीमनाथ मुस्कुराए, “बिल्कुल डरने की बात नहीं है बेटा, मेरी बेटी कई सालों से नाव चला रही है, भरोसा रखो।”

राधिका मुस्कुरा दी। पतवार थामी और अर्जुन अपनी बाइक समेत नाव पर चढ़ गया। नाव गंगा नदी की लहरों से होती हुई बहने लगी। अर्जुन की नजरें राधिका के चेहरे पर टिक गईं। वह देख रहा था उस सादगी को, उस मेहनत को, उस मासूम मुस्कान को। राधिका का दुपट्टा कमर पर बंधा था, हाथों में पतवार थी, माथे पर पसीना था, और दिल में सिर्फ एक बात – अपने पिता के लिए यह नाव है, सम्मान है।

लेकिन जब अर्जुन की नजरें लगातार उसे देखती रहीं, तो राधिका असहज हो गई। उसने कमर से दुपट्टा खोलकर सिर पर ओढ़ लिया। कुछ देर बाद नाव किनारे आ लगी। अर्जुन उतरा, पूछा, “कितना हुआ?” राधिका बोली, “20 रुपये।” अर्जुन ने ₹50 का नोट थमाया। राधिका ने दुपट्टे के कोने से छुट्टे निकाले और ₹30 वापस किए। अर्जुन बोला, “रहने दो ना, मेहनत से चलाया तुमने।” राधिका हंसते हुए बोली, “लोग तो कहते हैं इसमें पेट्रोल नहीं लगता, फिर भी देने में कतराते हैं। लेकिन मेहनत की कीमत होती है।”

अर्जुन मुस्कुरा कर बोला, “कल फिर आऊंगा, अगर तुम हो तो तुम ही पार उतारना।” राधिका हल्के से मुस्कुरा दी और दिल के किसी कोने में कुछ हलचल सी होने लगी। अर्जुन तो उस पार चला गया, लेकिन राधिका की आंखों के सामने उसकी मुस्कान और उसकी वो बात – “कल फिर आऊंगा, अगर तुम हो तो…” – गूंजती रही।

राधिका कुछ समझ नहीं पा रही थी। उसका मन पहली बार किसी के लिए अजीब सा हो रहा था। ना कोई ख्वाब देखा था, ना कोई चाहत पाली थी। लेकिन अर्जुन की मुस्कान जैसे कुछ छू गई हो उसके अंदर।

उधर अर्जुन, वह तो जैसे उसी शाम से बदल गया था। रात भर करवटें बदलता रहा, नींद उसकी आंखों से दूर थी। लेकिन राधिका का चेहरा उसके दिल के बहुत करीब था। उसे अब बस एक बात का इंतजार था – सुबह, फिर दोपहर, फिर 10:00 बजे, और फिर वो घाट।

अगले दिन ठीक 10:00 बजे अर्जुन फिर उसी घाट पर पहुंचा। भीमनाथ खाना खा रहे थे और राधिका वही टिफिन लेकर खड़ी थी। अर्जुन को देखकर राधिका के होठों पर मुस्कान तैर गई और आंखों में हल्की चमक भी। पिता से पूछा, “बाबा, कोई आया है, मैं उतार लाऊं?” भीमनाथ ने अर्जुन को देखा और बोले, “हां बेटी, वही लड़का है, कल जो गया था बहन के घर, लगता है लौट कर आ रहा है, जाओ छोड़ आ।”

राधिका चुपचाप नाव ले जाती है। अर्जुन बाइक लेकर नाव पर चढ़ता है। राधिका पतवार थामती है और अर्जुन उसे देखते हुए मुस्कुराता है। “कैसे हो?” राधिका बोली, “ठीक हूं, आप जल्दी लौट आए।” अर्जुन हंसकर बोला, “तुमसे मिलने का बहाना ढूंढ रहा था, और क्या?”

राधिका का चेहरा थोड़ा लाल हो गया, नजरें झुका लीं। अर्जुन को थोड़ी घबराहट हुई, सोचा कहीं कुछ गलत तो नहीं कह दिया। वह झट से बात बदलता है, “वैसे मैं नाव चलाना सीखना चाहता हूं, सिखा दोगी?” राधिका हंस पड़ी, “नाव चलाने से पहले तैरना आना चाहिए, नहीं तो बह भी सकते हो।” अर्जुन बोला, “तो तैरना भी सिखा दो।” राधिका फिर मुस्कुरा दी, “तुम कोई बच्ची हो क्या? लड़कों को लड़कों से सीखना चाहिए।”

बातों-बातों में नाव किनारे पहुंच जाती है। अर्जुन फिर ₹100 का नोट देता है। राधिका कहती है, “छुट्टे नहीं हैं।” अर्जुन ₹20 देता है और कहता है, “वो ₹100 तुम रख लो, खुद के लिए कुछ ले लेना।” राधिका झट से मना करती है, “नहीं, मम्मी पूछेंगी तो क्या जवाब दूंगी? इतना पैसा किसका?” अर्जुन बोला, “बस कह देना रास्ते में गिरा हुआ मिला।” राधिका कहती है, “₹100 गिरते नहीं, और अगर गिरते हैं तो कोई भी उठा के भाग जाता है, मैं नहीं ले सकती।”

अर्जुन गहराई से उसकी तरफ देखता है और कहता है, “यही तो तुम्हें बाकियों से अलग बनाता है, राधिका।” राधिका फिर झेंप जाती है और बिना कुछ कहे किनारे से वापस चली जाती है। अर्जुन वहीं खड़ा रह जाता है और पहली बार उसे यकीन होता है कि वो अब सिर्फ नाव की सवारी नहीं कर रहा, वह राधिका के दिल में उतरने की कोशिश कर रहा है।

अर्जुन की बातें अब राधिका के दिल में कुछ ऐसा हलचल करने लगी थी जो उसने कभी महसूस नहीं किया था। ना किसी से सुना था, ना सोचा था। अब वो हर सुबह जल्दी उठती, टिफिन सजा कर रखती, बालों में तेल लगाकर चोटी बनाती और हर रोज आईने में खुद को देखकर पूछती – क्या वो फिर आएगा?

उधर अर्जुन की हालत तो और भी खराब थी। एक ग्राम कचहरी में कर्मचारी था, सरकारी नौकरी थी, लेकिन अब हर दिन लगता जैसे समय काटना है। क्योंकि उसकी असली जिंदगी तो सुबह 10:00 बजे से शुरू होती थी, जब वह बनारस के घाट पर राधिका के इंतजार में खड़ा होता।

रविवार की छुट्टी थी। अर्जुन तैयार होकर फिर चल पड़ा घाट के रास्ते। लेकिन इस बार घाट तक पहुंचने से पहले ही 1 किलोमीटर दूर उसे रास्ते में राधिका मिल गई। राधिका हाथ में टिफिन लेकर अपने पापा के लिए खाना ले जा रही थी। अर्जुन ने बाइक पास में रोक दी और मुस्कुरा कर बोला, “अरे वाह, आज तो किस्मत अच्छी है, तुम रास्ते में ही मिल गई।”

राधिका भी हंसी, “तो आज भी नाव की सवारी है?”
“नहीं,” अर्जुन बोला, “आज तो सिर्फ तुम्हारी सवारी करनी है, यानी तुम्हारे साथ नाव पर जाना है, किसी और से नहीं।”
राधिका थोड़ी मुस्कुरा दी, “तो फिर थोड़ा इंतजार करो, मैं घाट पर जाकर पापा को खाना दे दूं, फिर मैं ही तुम्हें पार ले जाऊंगी।”
अर्जुन बोला, “ठीक है, आधा घंटा रुकता हूं, लेकिन इस बार कोई बहाना नहीं चलेगा।”

आधे घंटे बाद अर्जुन घाट पर पहुंचा। राधिका तैयार थी, नाव पर पतवार थामे खड़ी थी। अर्जुन बाइक के साथ नाव पर चढ़ा। नाव धीरे-धीरे आगे बढ़ी। गंगा की लहरें शांत थीं, लेकिन राधिका का दिल तेजी से धड़क रहा था। अर्जुन उसे देखता रहा, फिर बोला, “राधिका, एक बात पूछूं?”
राधिका बोली, “हां, पूछिए।”
“अगर मैं कहूं कि कई रातें यूं ही जागते हुए गुजर जाती हैं, तो क्या तुम समझ पाओगी कि वजह क्या है?”
राधिका थोड़ा मुस्कुराई, “क्यों, मच्छर काटते हैं क्या?”
अर्जुन हंसा, “नहीं, एक लड़की है जिसकी यादें मुझे सोने नहीं देती।”

राधिका कुछ नहीं बोली लेकिन उसका चेहरा गुलाबी हो गया। अर्जुन बोला, “अगर तुम बुरा ना मानो तो कहूं, मैं तुमसे मोहब्बत करने लगा हूं राधिका।” इतना सुनते ही राधिका की आंखें झुक गईं। उसके हाथ अब भी पतवार पर थे, लेकिन दिल कहीं और था। धीरे से बोली, “मुझे नहीं पता प्यार क्या होता है, लेकिन तुम्हारी बातें और तुम्हारा इंतजार अब आदत सी बन गई है।”

अर्जुन उसे देखते हुए बोला, “बस यही तो मोहब्बत होती है – इंतजार करने की आदत और फिर उसी का ख्याल आना हर वक्त।” अब राधिका ने हल्के से उसकी तरफ देखा। अर्जुन बोला, “आज तुमने दुपट्टा सिर पर नहीं ओढ़ा। मैं आज भी तुम्हें देख रहा हूं।”
राधिका हल्का सा हंसी और बोली, “उस दिन तुम जिस तरह देख रहे थे मुझे गलत लग रहा था, इसलिए ओढ़ लिया था। लेकिन आज अच्छा लग रहा है, क्योंकि अब समझ गई हूं – तुम मुझे सिर्फ देख नहीं रहे थे, महसूस कर रहे थे।”

नाव किनारे पहुंच गई। अर्जुन फिर ₹100 का नोट देता है। राधिका मना करती है, “अब नहीं चाहिए, बहुत पैसे दे चुके हो।”
“तो एक शर्त पर लोगी,” अर्जुन बोला, “अगर तुम ये लोगी तो कल फिर आऊंगा।”
राधिका चुपचाप मुस्कुरा दी और नोट ले लिया। लेकिन जैसे ही नोट लिया, अर्जुन ने उसका हाथ हल्के से पकड़ लिया। राधिका की धड़कनें तेज हो गईं। उसने बिना कुछ कहे हाथ छुड़ाया, लेकिन उसकी आंखें बहुत कुछ बोल गईं।

कहानी अब सिर्फ घाट तक नहीं रही थी, अब वह दिल तक उतर चुकी थी। अर्जुन के जाने के बाद भी राधिका घाट पर देर तक बैठी रही। उसका दिल किसी अजनबी लहर की तरह बेचैन था। आज पहली बार उसने किसी लड़के का हाथ थामा था और वह भी यूं अनजाने में, लेकिन दिल के बेहद करीब।

अगले दिन सुबह से ही राधिका की आंखें रास्ता ताकने लगीं। हर बाइक की आवाज पर उसकी नजरें चौंक कर घाट की ओर जातीं – शायद अर्जुन आ गया हो। 10:00 बजे, फिर 11:00 बजे, एक घंटा बीत गया, लेकिन अर्जुन नहीं आया। वह बार-बार घाट की सीढ़ियों से झांकती रही। कई बार पापा से पूछना चाहा कि कल जो लड़का आया था, क्या आज भी आया था? लेकिन जुबान साथ नहीं दे रही थी।

उस दिन पहली बार राधिका ने घड़ी देख कर समय काटा था। वो लौट तो आई घर, लेकिन कुछ पीछे छूट गया था, कुछ अधूरा सा। फिर बीत गया एक दिन, फिर एक हफ्ता, फिर दो – पूरा एक महीना गुजर गया। राधिका अब शांत रहने लगी थी, अपने मन की हर बेचैनी को मुस्कान में छुपा लेती। लेकिन जब अकेली होती तो उसकी आंखें बिना वजह भीग जातीं।

इधर अर्जुन, वो भी बेचैन था। लेकिन काम के सिलसिले में किसी रिश्तेदार के यहां चला गया था। वापसी देर हो गई और यह सोचकर डर भी लगने लगा कि कहीं वो अब मुझसे नाराज तो नहीं।

एक दिन संडे को अर्जुन फिर बनारस के उसी 80 घाट पर पहुंचा। वह घाट की तरफ जा ही रहा था कि थोड़ी दूर एक जगह राधिका दिख गई। हाथ में टिफिन लिए वही पुराना पथरीला रास्ता और वही नरम चाल। अर्जुन ने बाइक एक तरफ खड़ी की और खुद पेड़ के पीछे छुप गया। जैसे ही राधिका की नजर अर्जुन की बाइक पर पड़ी, वो बेचैन हो गई। एक बार उसके पास दौड़ी, इधर-उधर देखा, और फिर उसकी आंखें भीग गईं – सोचने लगी, “वो आया था, फिर कहां गया?”

तभी अर्जुन पेड़ के पीछे से निकल कर बोला, “राधिका!”
राधिका पलटी और जैसे अपने होश खो बैठी, वो दौड़कर अर्जुन के पास आई और फूट-फूट कर रोने लगी, “कहां चले गए थे तुम? उस दिन क्यों नहीं आए?”
राधिका की आवाज कांप रही थी, उसके आंसुओं में एक महीने का सूनापन था। अर्जुन भी गंभीर हो गया, धीरे से उसके आंसू पोछे और बोला, “माफ कर दो राधिका, मैं फंस गया था, बहुत कोशिश की आने की, लेकिन आ नहीं पाया। पर क्या तुम मेरा इंतजार कर रही थी?”

राधिका रोते हुए बोली, “हर दिन, हर पल सिर्फ तुम्हारा।”
अर्जुन ने उसका हाथ थाम लिया। राधिका बिना कुछ कहे उससे लिपट गई। अब तक जो भावनाएं छुपी थीं, वो आंसुओं में बह रही थीं।

उसी दिन फिर दोनों घाट पहुंचे। नाव पर बैठे। राधिका ने बिना कुछ कहे पतवार थामी। गंगा की लहरें उन्हें अपने साथ बहा रही थीं, लेकिन दोनों की आंखों में आज एक नई गहराई थी।

अर्जुन बोला, “राधिका, मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूं…”
“हां, बोलो,” राधिका बोली आंखों में सच्चाई के साथ।
“मैं तुमसे शादी करना चाहता हूं। क्या तुम मेरी जिंदगी बनोगी?”
राधिका चुप हो गई। कुछ देर तक सिर्फ हवा की आवाज थी, और फिर उसका जवाब आया, “मुझे पता है अर्जुन, हमारी दुनिया अलग है। शायद तुम्हारे घर वाले कभी मुझे अपनाए ना। लेकिन मैं भी ना जाने कब तुमसे जुड़ गई हूं। ऐसा लगने लगा था कि तुम ना आओ तो दिन अधूरा है।”

उसकी आंखों में आंसू थे, पर वो मुस्कुरा रही थी। अर्जुन ने उसका हाथ थामा, “मैं वादा करता हूं, कोई हमें अलग नहीं कर पाएगा। मैं तुम्हारे पापा से बात करूंगा और तुम मेरी जिंदगी बनोगी।”

राधिका रोते हुए बोली, “अगर वाकई ऐसा हुआ तो मैं सबसे खुशनसीब लड़की बन जाऊंगी।” अर्जुन ने ₹500 निकाल कर देना चाहा, लेकिन राधिका ने हाथ झटक दिया, “मुझे अब कुछ नहीं चाहिए अर्जुन, सिर्फ तुमसे एक वादा चाहिए।”
“कौन सा वादा?” अर्जुन ने पूछा।
“कि अगर कल नहीं आ सके तो बिना बताए ना जाओ। मेरी आंखें अब और इंतजार नहीं कर पाएंगी।”
अर्जुन मुस्कुराया और वादा किया, “अब हर सुबह तुम्हारी होगी और हर शाम तुम्हारे नाम।”

अर्जुन ने वादा किया था कि अब हर सुबह राधिका की होगी, और वह वादा निभाने निकल पड़ा। अगले ही दिन वह सीधे भीमनाथ चौधरी से मिलने पहुंचा। भीमनाथ उस समय नाव किनारे बंद रहे थे। अर्जुन ने धीरे से कहा, “अंकल, मुझे आपसे एक जरूरी बात करनी है।”
भीमनाथ ने मुस्कुरा कर देखा, “बोलो बेटा।”
“मैं राधिका से मोहब्बत करता हूं, और उससे शादी करना चाहता हूं।”

यह सुनते ही भीमनाथ का चेहरा सख्त हो गया। नजरें दूर नदी की तरफ टिक गईं, जैसे कुछ पुराने सपने ढहते देख रहे हों। कुछ देर चुप रहने के बाद बोले, “हर बाप चाहता है कि उसकी बेटी को राजकुमार जैसा जीवन साथी मिले। लेकिन बेटा, हकीकत की जमीन सपनों से दूर होती है। मैं नाव चलाता हूं, मेरी बेटी ने गरीबी में सांस ली है, और मैं नहीं चाहता कि मेरी बेटी तुम्हारे अमीर घर की चौखट पर ताने सुने। तुम्हारी दुनिया और हमारी दुनिया एक जैसी नहीं है।”

अर्जुन ने उनके पैर पकड़ लिए, “अंकल, मैं आपसे वादा करता हूं, राधिका को कभी कोई दुख नहीं दूंगा। मैं नौकरी करता हूं, अपने पैरों पर खड़ा हूं, और अगर आप चाहे तो सादगी से मंदिर में शादी कर लेंगे। बस राधिका को मुझसे जुदा मत करिए।”

भीमनाथ ने राधिका की तरफ देखा। उसकी आंखों में आंसू थे, लेकिन वह बहते नहीं थे, बस चुपचाप भींग रहे थे। पिता के दिल ने बेटी की आंखों की चुप्पी पढ़ ली। उन्होंने गहरी सांस ली और कहा, “अगर कभी मेरी बेटी को एक आंसू भी आया तो यह बाप खुद को कभी माफ नहीं करेगा।”

अर्जुन की आंखों में चमक आ गई, “आप देखिए अंकल, राधिका की जिंदगी अब सिर्फ खुशी से भरी होगी।”

लेकिन असली लड़ाई तो अब शुरू होने वाली थी। जब अर्जुन ने अपने घर पर शादी की बात रखी, सब मानो आग बबूला हो गए। मां बोली, “क्या सोचकर यह फैसला लिया है? एक नाव की बेटी, लोग क्या कहेंगे? इतने पढ़े लिखे हो और शादी नदी में नाव चलाने वाली लड़की से?” पिता ने भी हाथ झाड़ दिए, “घर की इज्जत मिट्टी में मिला दी। जिस लड़की ने घाट पर नाव चलाई है, अब वह हमारी बहू बनेगी?”

अर्जुन ने बहुत समझाया – राधिका की ईमानदारी, उसके संस्कार, उसकी सादगी – लेकिन कोई नहीं माना। और फिर जब बात हद से आगे बढ़ी, एक दिन अर्जुन ने कड़ा फैसला ले लिया, “अगर राधिका से शादी नहीं करने दी तो मैं सब कुछ छोड़ दूंगा। घर भी, नौकरी भी, और खुद को भी।”

घर वाले सन्न रह गए। इधर राधिका सब कुछ जानती थी, लेकिन उसने अर्जुन से एक ही बात कही, “जो फैसला लो, अपने मां-बाप को दुख पहुंचाकर मत लेना। मैं तुम्हें पाकर सब कुछ नहीं खोना चाहती।”

राधिका की यह बातें सुनकर अर्जुन की आंखों में आंसू आ गए, और उसने सिर्फ इतना कहा, “अब तुम सिर्फ मेरा प्यार नहीं, मेरी जिम्मेदारी भी हो।”

फिर आया दिन जब राधिका के बड़े भाई की शादी थी। अर्जुन किसी तरह अपने माता-पिता और बहनों को मनाकर अपने साथ पहली बार राधिका के घर आया। राधिका के भाई की शादी में सब शामिल हुए और शादी भी ठीक-ठाक से संपन्न हो गई। सब कुछ ठीक चल रहा था। लेकिन घर लौटने के समय नदी पार करना था, और नाव में बैठते ही अर्जुन की मां तानों का पिटारा खोल देती है, “क्या औकात थी तुम्हारी? तुम दोनों बाप-बेटी ने मेरे बेटे को फंसा लिया। गरीब लोग हो और सपने अमीरी के देखते हो।”

राधिका का पिता भी चुप सुनता रहा। अर्जुन बीच में बोलता है, “मम्मी, बस करिए, वो मेरी पत्नी है।” लेकिन अर्जुन की बातों से उसकी मां को कोई फर्क नहीं पड़ा। अर्जुन की मां राधिका और उसके पिता का अपमान किए जा रही थी।

अर्जुन एक बार फिर अपनी मां से रोते हुए कहता है, “अगर मेरी मोहब्बत को तिरस्कार ही मिलना है तो जीकर क्या करूंगा?” और अचानक गुस्से में आकर अर्जुन नदी में कूद जाता है। राधिका चीख उठती है और बिना एक पल गवाए वह भी कूद जाती है अर्जुन के पीछे, बिना अपनी जान की परवाह किए हुए।

नदी उफान पर थी, लहरें तेज थीं, लेकिन राधिका तैरती रही, अर्जुन को थामे रही, “मर भी जाऊं तो चलेगा, पर तुम्हें कुछ नहीं होने दूंगी अर्जुन।” कुछ देर बाद कुछ मछुआरों और गोताखोरों की मदद से दोनों को बाहर निकाला गया। राधिका बेहोश थी, और अर्जुन की हालत भी ठीक नहीं थी। उन दोनों को तुरंत अस्पताल ले जाया गया। इलाज शुरू हुआ, और अर्जुन की हालत कुछ देर बाद ही ठीक-ठाक हो गई, लेकिन राधिका की हालत कुछ ज्यादा ही नाजुक थी।

अर्जुन राधिका के पास बैठा रहा, उसका हाथ थामे रोता रहा। कुछ समय बाद राधिका को भी होश आ गया। अर्जुन को पास बैठा देखकर उसकी आंखें भर आईं। तभी इमरजेंसी रूम के बाहर बैठे अर्जुन के माता-पिता राधिका के पास आए और बोले, “माफ कर दो बेटी, तुम जैसी बहू हर घर को नहीं मिलती। हम तुम्हें समझ नहीं पाए। आज समझ आया, तुम सिर्फ मेरी बहू नहीं, मेरे बेटे की राधा हो।”

राधिका ने नम आंखों से कहा, “कोई मां अपने बेटे की चिंता करे यह गलत नहीं होता, आप जैसी मां बनना चाहती हूं।” सारे रिश्ते उस दिन सच्चे हो गए थे।

कुछ दिन बाद अर्जुन और राधिका की शादी खूब धूमधाम से रस्मो-रिवाज के साथ संपन्न हुई, जहां सिर्फ सादगी, सच्चाई और आंखों में भरोसे के आंसू थे।

समय बीता। राधिका को दो बच्चे हुए। अर्जुन आज भी पोस्ट ऑफिस में काम करता है। राधिका ने सिलाई का छोटा काम शुरू किया और अब हर साल अपने मैरिज एनिवर्सरी डे पर दोनों उसी गंगा के 80 घाट पर बैठते हैं, उसी पुरानी नाव के पास, जहां पहली बार उनकी आंखें मिली थीं।

और अब सवाल आपसे – क्या आज के समय में ऐसी सच्ची मोहब्बत वाकई बची है? क्या आप किसी के लिए ऐसी लड़ाई लड़ सकते हैं?

अगर कहानी दिल को छू गई हो तो इसे शेयर जरूर कीजिए।
जय हिंद।