“अरब इंजीनियर लेबर्स को समझता था पैर की जूती, एक दिन छत से गिरा तो लेबर्स ने जो किया, सबकी आँखें नम हो गईं!”

कहानी: बुर्ज अल नूर की ऊँचाइयों से इंसानियत की गहराइयों तक

दुबई की चमचमाती इमारतों में से एक, बुर्ज अल नूर, सिर्फ कंक्रीट और स्टील का ढांचा नहीं थी, बल्कि हजारों गरीब मजदूरों के खून-पसीने से सींची गई थी। इसी इमारत के निर्माण स्थल पर मिस्र के एक अमीर परिवार से ताल्लुक रखने वाले इंजीनियर खालिद अल फयाद की कहानी शुरू होती है। खालिद, जिसने लंदन से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी, अपने हुनर और पद पर इतना घमंड करता था कि उसे मजदूर सिर्फ धूल-मिट्टी में काम करने वाले बेजुबान जानवर लगते थे।

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वह हर रोज अपनी वातानुकूलित गाड़ी में महंगे कपड़े और जूते पहनकर साइट पर आता, मजदूरों को गालियाँ देता और उनकी मेहनत को तुच्छ समझता। मजदूर डर के मारे खालिद को फिरौन कहते थे, एक ऐसा राजा जो अपनी क्रूरता के लिए प्रसिद्ध था।

मजदूरों की दुनिया अलग थी। वो एक छोटे से कमरे में 10-12 लोग रहते, दिनभर की मेहनत के बाद अपनी छोटी-सी खुशियों में जीते। इस परिवार के मुखिया थे रहीम चाचा, जो सबको सब्र और ईमानदारी से काम करने की सलाह देते थे। संजय, अनवर, कुमार – सबकी अपनी-अपनी कहानियाँ थीं, लेकिन संघर्ष ने उन्हें एक परिवार बना दिया था।

एक दिन, खालिद का गुस्सा चरम पर था। 40वीं मंजिल पर कंक्रीट ढलाई में कमी देखकर उसने संजय को धक्का दे दिया और उसकी दिहाड़ी काट दी। उसी दोपहर, खालिद निरीक्षण करते हुए सुरक्षा जाली के बिना किनारे पर चल रहा था। अचानक उसका पैर फिसला और वह 40वीं मंजिल से नीचे गिर गया। किस्मत ने साथ दिया, वह लोहे की छड़ों के जाल पर गिरा, लेकिन गंभीर रूप से घायल हो गया।

पूरी साइट पर सन्नाटा छा गया। मजदूर, जिनका अपमान वह रोज करता था, बिना एक पल गंवाए उसकी मदद के लिए दौड़ पड़े। कुमार ने अपनी मजबूत बाहों से उसे उठाया, संजय आगे था, रहीम चाचा ने सबको संभाला। मजदूरों ने अपनी जान की परवाह किए बिना उसे अस्पताल पहुँचाया। वहाँ भी उन्हें भेदभाव झेलना पड़ा, लेकिन रहीम चाचा ने डॉक्टरों का ध्यान खींचा। जब पता चला कि मरीज चीफ इंजीनियर है, सब भागदौड़ करने लगे।

खालिद की हालत गंभीर थी। ऑपरेशन के बाद उसे होश आने में दो दिन लगे। जब वह जागा, उसके मजदूर वहीं थे, उसके लिए दुआ कर रहे थे। संजय अपने हिस्से का खाना लाता, अनवर सहारा देता, कुमार रात भर जागता। खालिद ने पहली बार उनकी कहानियाँ सुनीं, उनके संघर्ष को महसूस किया। उसे अपनी गलती का एहसास हुआ और उसने संजय से माफी मांगी। मजदूरों का निस्वार्थ प्रेम और क्षमा ने उसके दिल को बदल दिया।

अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद, खालिद सबसे पहले लेबर कैंप गया। उसने रहीम चाचा के पैर छूने की कोशिश की, सबके सामने माफी मांगी और कहा, “आज से आप मेरे मजदूर नहीं, मेरे भाई हैं।”

उस दिन के बाद बुर्ज अल नूर की साइट पर सब कुछ बदल गया। खालिद अब मजदूरों के साथ बैठकर खाना खाता, उनकी समस्याएँ सुनता, उनके वेतन बढ़वाता। डर की जगह सम्मान और प्रेम का माहौल था। बुर्ज अल नूर जब बनकर तैयार हुआ, तो वह सिर्फ एक इमारत नहीं, इंसानियत की जीत का प्रतीक था।

यह कहानी हमें सिखाती है कि असली पहचान हमारे कपड़ों या पैसे से नहीं, बल्कि हमारे दिल और व्यवहार से होती है। नफरत को सिर्फ प्यार से ही जीता जा सकता है, और एक इंसान को बदलने की सबसे बड़ी ताकत किसी दूसरे इंसान की निस्वार्थ अच्छाई में छिपी होती है।

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