“एयरपोर्ट पर बुज़ुर्ग को रोका गया, लेकिन नाम सुनते ही स्टाफ ने किया सलाम!”

दिल्ली एयरपोर्ट पर बुज़ुर्ग का रहस्य: विक्रांत देशमुख की कहानी

दिल्ली एयरपोर्ट का माहौल हमेशा की तरह व्यस्त था। यात्रियों की भीड़, सुरक्षा जांच की लंबी कतारें और फ्लाइट घोषणाओं की गूंज। इसी भीड़ में एक बुज़ुर्ग व्यक्ति सफेद कुर्ता-पायजामा, गांधी टोपी और चप्पल पहने हुए धीरे-धीरे सिक्योरिटी गेट की ओर बढ़ रहे थे। उनकी चाल धीमी थी, लेकिन उनके चेहरे पर एक गहरी शांति थी।

सिक्योरिटी गार्ड ने रूटीन तरीके से उनकी पहचान पत्र मांगा। बुज़ुर्ग ने अपनी जेब से एक पुराना सा पर्स निकाला और आईडी कार्ड दिखाया। आईडी पर लिखा नाम—”विक्रांत देशमुख”। यह नाम स्क्रीन पर देखते ही गार्ड चौंक गया। उसने तुरंत कंट्रोल रूम को सूचना दी।

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कंट्रोल रूम में बैठे अधिकारी ने नाम सुनते ही गंभीरता से जांच शुरू कर दी। कुछ ही मिनटों में एयरपोर्ट की सुरक्षा टीम अलर्ट हो गई। तीन उच्च अधिकारी सिक्योरिटी गेट की ओर भागे। बुज़ुर्ग अब भी शांत खड़े थे, जैसे उन्हें इस हलचल का अंदाजा था।

एक अधिकारी ने धीरे से पूछा, “सर, क्या आप वही विक्रांत देशमुख हैं जो वायुसेना में थे?” बुज़ुर्ग ने हल्की मुस्कान के साथ कोई जवाब नहीं दिया। उनकी आंखों में ऐसा ठहराव था जो शब्दों से परे था। अधिकारी ने उनके पैर छू लिए।

तभी एक महिला अधिकारी ने बताया, “यह वही विक्रांत देशमुख हैं जिन्होंने 1971 की लड़ाई में पाकिस्तान के प्लान को नष्ट कर दिया था।” एयरपोर्ट पर सन्नाटा छा गया। सभी कर्मचारियों को समझ आ गया कि यह साधारण व्यक्ति नहीं, बल्कि देश का असली हीरो है।

विक्रांत देशमुख ने कभी प्रचार या सम्मान नहीं लिया। उन्होंने गुमनाम रहकर देश की सेवा की। आज वह बनारस जा रहे थे, अपने गुरु के मंदिर में अधूरा काम पूरा करने।

जब अधिकारी उन्हें वीआईपी लाउंज में ले जाने की पेशकश करते हैं, तो वह विनम्रता से मना कर देते हैं। “मैं सिर्फ एक नागरिक हूं। मेरा काम पूरा हो चुका।”

बनारस पहुंचने पर वह एक तंग गली में जाते हैं, जहां एक बच्चे को पतंग उड़ाते हुए देखते हैं। वह उसे दूर से देखते हुए मुस्कुराते हैं। शायद वही बच्चा था, जिसकी मां उनकी वजह से शहीद हुई थी। उन्होंने मंदिर के पुजारी को एक लिफाफा दिया और कहा, “यह उसकी मां के अधूरे सपनों के लिए है। नाम मत बताना।”

घाट पर बैठकर उन्होंने गंगा के प्रवाह को निहारा। एक युवक उनके पास आया और पूछा, “क्या यह लिफाफा आपने भेजा था?” विक्रांत ने जवाब दिया, “नहीं बेटा, वह तो देश का सच्चा बेटा रहा होगा। मैं तो बस एक यात्री हूं।”

कुछ देर बाद वह वहां से गायब हो गए। उनका नाम इतिहास में दर्ज नहीं हुआ, लेकिन वह हर तिरंगे, हर सलाम और हर सांस में जिंदा रहेंगे।