देहरादून की ठंडी सर्दियों की एक सुबह। पहाड़ों पर बर्फ की हल्की चादर बिछी थी और सूरज की किरणें धीरे-धीरे बादलों के बीच से झाँक रही थीं। शहर के मध्यमवर्गीय रिहायशी इलाक़े में बसे शर्मा परिवार को लोग अक्सर सफलता और संतुलित जीवन का उदाहरण कहते थे।
पति अर्जुन शर्मा एक सिविल इंजीनियर थे और एक नामी ठेकेदार कंपनी में काम करते थे। काम का दबाव भले ही ज़्यादा था, पर स्थिर आय और इमानदारी के लिए लोग उनका सम्मान करते थे। पत्नी नेहा, जो कुछ ही गलियों दूर स्थित एक छोटे से ब्यूटी सैलून में काम करती थी, पड़ोस की औरतों के बीच लोकप्रिय थी। उनके दो छोटे बच्चे—राघव और प्रिया—हर सुबह नीली यूनिफ़ॉर्म पहने, हाथों में पानी की बोतल और बैग लेकर हँसते-खेलते स्कूल जाते। मोहल्ले वाले अकसर कहते:
“शर्मा परिवार का घर मंदिर जैसा शांत है, जहाँ से हमेशा हँसी-खुशी की आवाज़ें आती हैं।”
पहली दरारें
पर तस्वीरें हमेशा सच नहीं बतातीं। घर की चारदीवारी के भीतर हालात धीरे-धीरे बदल रहे थे। अर्जुन सुबह से देर रात तक काम में डूबे रहते। ठेकेदार की मांगें और प्रोजेक्ट की समयसीमाएँ उन्हें थका देतीं। वहीं नेहा, दिनभर सैलून में काम करती, तेज़ रसायनों की गंध और लगातार खड़े रहने की वजह से थक चुकी थी।
एक रात जब अर्जुन देर से घर लौटे, खाना ठंडा हो चुका था और बच्चे सो चुके थे। नेहा ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा:
“मैं शहर में क्या कर रही हूँ? सुबह से शाम तक मशीन की तरह काम करती हूँ। ना अपने लिए वक्त, ना परिवार के लिए।”
अर्जुन ने चिड़चिड़े स्वर में जवाब दिया:
“कम से कम यहाँ हमारे बच्चों का भविष्य तो सुरक्षित है। गाँव लौटकर क्या मिलेगा?”
यह बहस रोज़ की ज़िंदगी का हिस्सा बन गई। छोटे-मोटे झगड़े गहरी खाई में बदलते जा रहे थे। बाहर से खुशहाल दिखने वाला परिवार अंदर ही अंदर दरक रहा था।
नेहा और नया रिश्ता
इसी बीच सैलून में एक नियमित ग्राहक आता था—राहुल खन्ना। लंबा, आत्मविश्वासी और मीठी बातें करने वाला। वह नेहा की थकान पहचान लेता, उसकी तारीफ़ करता और उसके दुखों को सुनता। धीरे-धीरे नेहा उसके साथ सहज महसूस करने लगी।
छोटी-छोटी बातें अब गुप्त मुलाक़ातों तक पहुँच गईं। नेहा को लगा कि राहुल उसकी दुनिया समझता है, जो अर्जुन कभी नहीं कर पाया। अपराधबोध और आकर्षण के बीच झूलती नेहा ने मन ही मन सोचना शुरू कर दिया:
“अगर अर्जुन न होता, तो मेरी ज़िंदगी कुछ और होती।”
रहस्यमयी गुमशुदगी
जनवरी की ठंडी सुबह, शर्मा परिवार ने घोषणा की कि वे पिकनिक पर नाग टिब्बा जा रहे हैं। पड़ोसियों ने बच्चों को हँसते हुए देखा और शुभकामनाएँ दीं। लेकिन उसी शाम खबर आई—शर्मा परिवार की एसयूवी ट्रेल के प्रवेश द्वार पर खड़ी मिली। दरवाज़ा आधा खुला था, बैग और कपड़े भीतर थे, लेकिन अंदर कोई नहीं था।
पूरा देहरादून सन्न रह गया। पुलिस ने तुरंत जाँच शुरू की। मीडिया में सुर्खियाँ बन गईं:
“पूरा परिवार रहस्यमयी तरीके से लापता।”
जगह अजीब थी—न कोई संघर्ष के निशान, न पैरों के निशान। मानो पूरा परिवार बर्फीले जंगल में हवा में घुल गया हो। अफ़वाहें फैलने लगीं—जंगली जानवर, अपहरण, यहाँ तक कि आत्मिक शक्तियाँ। लेकिन पुलिस ने साफ कहा:
“यह साधारण गुमशुदगी नहीं है।”
दर्दनाक सच
दो हफ़्तों की खोजबीन के बाद, पुलिस को नाग टिब्बा ट्रेल से कई किलोमीटर दूर एक खाई में तीन शव मिले—अर्जुन और उनके दोनों बच्चे। शवों पर जंगली जानवरों के कोई निशान नहीं थे, बल्कि यह साफ था कि उनकी मौत मानव-हिंसा का नतीजा थी।
पूरा शहर शोक में डूब गया। लोग कहने लगे:
“कैसे कोई बच्चों को मार सकता है? यह किसी दुश्मनी का मामला लगता है।”
नेहा की परछाई
जाँच के दौरान पुलिस को नेहा का पता क्लेमेंट टाउन के एक सर्विस्ड अपार्टमेंट में चला। वहाँ वह राहुल खन्ना के साथ थी। उसका चेहरा थका हुआ था, पर आँखों में अजीब सी शांति थी।
पूछताछ में नेहा के बयान विरोधाभासी निकले। कभी कहा कि वह रास्ता भटक गई थी, कभी बोली कि किसी अजनबी ने उसे अगवा कर लिया था। लेकिन पुलिस ने मोबाइल लोकेशन, कॉल डिटेल्स, सीसीटीवी फुटेज और टोल प्लाज़ा के रिकॉर्ड खंगाले। सच सामने था—नेहा इस “पिकनिक” की मास्टरमाइंड थी।
उसने राहुल के साथ मिलकर योजना बनाई। अर्जुन और बच्चों को पहाड़ों पर ले जाकर, पहले से तय जगह पर धकेल दिया। उसके मन में “आजादी” का सपना था—शादी और जिम्मेदारियों से छुटकारा। लेकिन आजादी की कीमत इतनी भयावह होगी, यह उसने सोचा भी न था।
शहर का आघात
खबर आग की तरह फैल गई। अख़बारों की सुर्खियाँ बन गईं:
“माँ ने ही रचा परिवार की हत्या का षड्यंत्र।”
पड़ोसी सदमे में थे। एक औरत, जिसे सब आदर्श पत्नी और माँ मानते थे, वह इतनी निर्दयी हो सकती है, यह किसी ने नहीं सोचा था। लोग रोते हुए बच्चों की तस्वीरें देख रहे थे।
“इतने मासूम थे… किस गुनाह की सज़ा मिली इन्हें?”
कड़वा सबक
नेहा और राहुल पुलिस हिरासत में थे। कोर्ट में मुकदमा चला और दोनों को कठोर सज़ा सुनाई गई।
देहरादून के लोगों के लिए यह घटना चेतावनी बन गई।
दबाव, टूटते रिश्ते और निजी कमजोरियाँ इंसान को किस हद तक गिरा सकती हैं, इसका यह जीवित उदाहरण था।
शर्मा परिवार की यादें मोहल्ले के लोगों की आँखों में अब भी ताज़ा थीं। बच्चों की खिलखिलाती हँसी, अर्जुन का ईमानदार चेहरा, और नेहा का छुपा अंधकार—सब एक ही कहानी में कैद हो गए।
और यह कहानी हमेशा याद दिलाती रहेगी:
विश्वासघात की कीमत सिर्फ एक टूटे हुए परिवार की नहीं होती, बल्कि पूरे समाज की आत्मा पर गहरे घाव छोड़ देती है।
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मेरे जीवन की शुरुआत बहुत साधारण थी। पढ़ाई ख़त्म करने के बाद मैं एक निर्माण कंपनी में काम करने लगा। शुरू-शुरू में मेरा काम सिर्फ़ मजदूरों और कर्मचारियों की टीम का प्रबंधन करना था। धीरे-धीरे मुझे काम की आदत हो गई, और जब लोगों से अच्छे रिश्ते बन गए तो मैंने हिम्मत जुटाई और अलग होकर अपनी एक छोटी सी कंपनी खड़ी कर दी। मेरी कंपनी देहरादून में थी, लेकिन काम पूरे उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में मिलता था। इसलिए मैं हमेशा यात्रा करता रहता था। जब भी घर लौटता, मेरी पत्नी सुनीता अपने चेहरे पर वही संतोष और अपनापन लिए मेरा इंतज़ार करती। उसने तीन बच्चों—दो बेटे और एक बेटी—को जन्म दिया। मैंने उससे कहा कि अब खेती-बाड़ी छोड़कर सिर्फ़ बच्चों और घर पर ध्यान दे। आर्थिक बोझ मैं उठा लूँगा। सुनीता ने मेरी बात मान ली।
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